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गुना मध्य प्रदेश की एक घटना


संध्या का समय हो चुका था लगभग, सूर्य अपने अस्तांचल में प्रवेश करने की तैयारी करने ही वाले थे, पक्षी आदि अपने अपने घरौंदों की ओर उड़ रहे थे, कुछ एकांकी और कुछ गुटों में! लोग-बाग़ कुछ पैदल और अपनी अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे आगे खाली खाने के डब्बे बांधे और कुछ भाजी-तरकारी लिए, सवारी गाड़ियों में जिसे यहाँ के निवासी आपे कहते हैं, भरे पड़े थे खचाखच! कुल मिलकर लग रहा था की दिवस का अवसान हो चुका है और और अब रात्रि के आगमन की बेला आरम्भ हो चुकी है! सड़क किनारे खड़े खोमचे अब प्रकाश से जगमगा उठे थे, सड़क किनारे एक सरकारी शराब के ठेके पर खड़े वाहन गवाही दे रहे थे कि मदिरा-समय हो चुका है! उधर ही आसपास कुछ ठेलियां भजी खड़ी थीं जिन पर ठेके से सम्बंधित वस्तुएं ही बेचीं जा रही थीं, गिलास, नमकीन, उबले चने इत्यादि! तभी हामरी गाड़ी चला रहे क़य्यूम भाई ने भी गाड़ी उधर ही पास में उसी ठेके के पास लगा दी, थोड़ी सी आगे-पीछे करने के बाद गाड़ी खड़ी करने की एक सही जगह मिल ही गयी, सो गाड़ी वहीँ लगा दी गयी, गाड़ी का इंजन बंद हुआ और हम दरवाजे खोल कर बाहर आये, ये गाड़ी जीप थी, क़य्यूम भाई ने नई ही खरीदी थी और शायद पहली बार ही वो शहर से इतनी दूर यहाँ आई थी!
हम बाहर उतरे तो अपनी अपनी कमर सीधी की, आसपास काफी रौनक थी, ये संभवतः किसी कस्बे का ही आरम्भ था, मदिरा-प्रेमी वहीँ भटक रहे थे, कुछ आनंद ले चुके थे और अब वापसी पर थे और कुछ अभी अभी आये थे जोशोखरोश के साथ!
"क्या चलेगा?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
मै कुछ नहीं बोला तो क़य्यूम भाई की निगाह शर्मा जी की निगाह से टकराई, तो शर्मा जी ने मुझसे पूछा, "क्या लेंगे गुरु जी?"
"कुछ भी ले लीजिये" मैंने कहा,
"बियर ले आऊं?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"नहीं, बियर नहीं, आप मदिरा ही ले आइये" मैंने कहा,
क़य्यूम भाई मुड़े और चल दिए ठेके की तरफ!
"अन्दर बैठेंगे या फिर यहीं गाड़ी में?" शर्मा जी ने मुझ से पूछा,
"अन्दर तो भीड़-भाड़ होगी, यहीं गाड़ी में ही बैठ लेंगे" मैंने कहा,
थोड़ी देर बाद ही क़य्यूम भाई आये वहाँ, हाथ में मदिरा की दो बोतल लिए और साथ में ज़रूरी सामान भी, शर्मा जी ने गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोला और क़य्यूम भाई ने सारा सामान वहीँ रख दिया, फिर हमारी तरफ मुड़े,
"आ रहा है लड़का, मैंने मुर्गा कह दिया है, लाता ही होगा, आइये, आप शुरू कीजिये" क़य्यूम भाई ने कहा,
मै और शर्मा जी अन्दर बैठे, एक पन्नी में से कुछ कुटी हुई बरफ़ निकाली और शर्मा जी ने दो गिलास बना लिए, क़य्यूम भाई नहीं पीते थे, ये बात उन्होंने रास्ते में ही बता दी थी, वो बियर के शौक़ीन थे सो अपने लिए बियर ले आये थे, थोड़ी देर में ही दौर-ए-जाम शुरू हो गया, एक मंझोले कद का लड़का मुर्गा ले आया और एक बड़ी सी तश्तरी में डाल वहीँ रख दिया, आखिरी चीज़ भी पूरी हो गयी!
ये स्थान था ग्वालियर से गुना के बीच का एक, हमको ग्वालियर से लिया था क़य्यूम भाई ने, हम उन दिनों ललितपुर से आये थे ग्वालियर, ललितपुर में एक विवाह था, उसी कारण से आना हुआ था, और क़य्यूम भाई गुना के पास के ही रहने वाले थे, उनका अच्छा-ख़ासा कारोबार था, सेना आदि के मांस सप्लाई करने का काम है उनका, तीन भाई हैं, तीनों इसी काम में लगे हुए हैं, क़य्यूम भी पढ़े लिखे और रसूखदार हैं और बेहद सज्जन भी!
"और कुछ चाहिए तो बता दीजिये, अभी बहुत वक़्त है" क़य्यूम भाई ने कहा,
"अरे इतना ही बहुत है!" शर्मा जी ने कहा,
"इतने से क्या होगा, दिन से चले हैं, अब ट्रेन में क्या मिलता है खाने को! खा-पी लीजिये रज के!" क़य्यूम भाई ने कहा,
इतना कह, अपनी बियर का गिलास ख़तम कर फिर से चल दिए वहीँ उसी दूकान की तरफ!
बात तो सही थी, जहां हमको जाना था, वहाँ जाते जाते कम से कम हमको अभी ३ घंटे और लग सकते थे, अब वहाँ जाकर फिर किसी को खाने के लिए परेशान करना वो भी गाँव-देहात में, अच्छा नहीं था, सो निर्णय हो गया कि यहीं से खा के चलेंगे खाना!
गाड़ी के आसपास कुछ कुत्ते आ बैठे थे, कुछ बोटियाँ हमने उनको भी सौंप दीं, देनी पड़ीं, आखिर ये इलाका तो उन्ही का था! उनको उनका कर चुकाना तो बनता ही था! वे पूंछ हिला हिला कर अपना कर वसूल कर रहे थे! जब को बेजुबान आपका दिया हुआ खाना खाता है और उसको निगलता है तो बेहद सुकून मिलता है! और फिर ये कुत्ता तो प्रहरी है! मनुष्य समाज के बेहद करीब! खैर,
क़य्यूम भाई आये और साथ में फिर से पन्नी में बरफ़ ले आये, बरफ़ कुटवा के ही लाये थे, ताकि उसके डेले बन जाएँ और आराम से गिलास में समां सकें! अन्दर आ कर बैठे और जेब से सिगरेट का एक पैकेट निकाल कर दे दिया शर्मा जी को, शर्मा जी ने एक सिगरेट निकाली और सुलगा ली, फिर दो गिलासों में मदिरा परोस तैयार कर दिए! थोड़ी ही देर में वो लड़का आया और फिर से खाने का वो सामान वहीँ रख गया! हम आराम आराम से थकावट मिटाते रहे!
मित्रगण, हम यहाँ एक विशेष कारण से आये थे, क़य्यूम भाई के एक मित्र हैं, हरि, हरि साहब ने गुना में कुछ भूमि खरीदी थी, भूमि कुछ तो खेती-बाड़ी आदि के लिए और कुछ बाग़ आदि लगाने के लिए ली गयी थी, दो वर्ष का समय हो चुका था, भूमि तैयार कर ली गयी थी, परन्तु उस भूमि पर काम कर रहे कुछ मजदूरों ने वहां कुछ संदेहास्पद घटनाएं देखीं थीं जिनका कोई स्पष्टीकरण नहीं हुआ था, स्वयं अब हरि ने भी ऐसा कुछ देखा था, जिसकी वजह से उसका ज़िक्र उन्होंने क़य्यूम भाई से और क़य्यूम भाई ने मेरे जानकार से किया, सुनकर ही ये तो भान हो गया था कि वहाँ उस स्थान पर कुछ तो विचित्र है, कुछ विचित्र, जिसके विषय में जानने की उत्सुकता ने अब सर उठा लिया था, कुछ चिंतन-मनन करने के बाद मैंने यहाँ आने का निर्णय लिया और अब हम उस स्थान से महज़ थोड़ी ही दूरी पर थे!
हमको गुना में नाना खेड़ी जाना था, हरि की रिहाइश वहीँ थी, गुना शहर का भी अपना ही एक अलग इतिहास है, इसका इतिहास काफी समृद्ध और रोमांचक है, पुराने अवंति साम्राज्य का ही एक हिस्सा रहा है गुना, बाद में कई और सत्ताधारी हुए और बाद में जा कर गुना मध्य प्रदेश में शामिल हुआ!
"और कुछ ले आऊं गुरु जी?" क़य्यूम भाई के सवाल ने मेरी तन्द्रा भंग की!
"अरे नहीं! यही बहुत है!" मैंने कहा,
"रुकिए, अभी आया" क़य्यूम भाई उठे और चल दिए फिर से ठेके की तरफ,
यहाँ मैंने एक और बड़ा सा पैग बनाया और खींच गया, फिर शर्मा जी से सुलगती हुई सिगरेट ले ली, कश मारा और सिगरेट वापिस उनको पकड़ा दी, उन्होंने भी एक जम कर कश मारा! धुंए को आज़ाद कर दिया उस सिगरेट से!
"गुरु जी, हरि ने जो भी बताया है वो है तो वैसे हौलनाक ही!" वे बोले,
"हाँ, अब तक तो हौलनाक ही है!" मैंने कहा,
"क्या लगता है आपको वहाँ?" उन्होंने पूछा,
"जाकर देखते हैं!" मैंने कहा,
"हाँ! कारण अभी स्पष्ट नहीं है, कभी-कभार प्रेत भी ऐसी माया रच दिया करते हैं!" उन्होंने सुझाया!
"हाँ, ये बात सच है शर्मा जी!" मैंने कहा,
तभी क़य्यूम भाई आये, साथ में वही मंझोले कद का लड़का भी था, उसके हाथ में इस बार कुछ नया ही व्यंजन था, उसने वो हमको थमाया, हमने थामा और वहीँ उस तश्तरी में रख लिया! लड़का चला गया वहाँ से! क़य्यूम भी पानी और बरफ ले आये थे और!
"ज्यादा हो जाएगा ये सब क़य्यूम भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"कैसे ज्यादा! आप लीजिये बस!" उन्होंने हंस के कहा!
हमने एक एक टुकड़ा उठाया और फिर शर्मा जी ने मदिरा परोसना आरम्भ किया!
अब क़य्यूम भाई आ बैठे अपनी सीट पर!
"क़य्यूम भाई?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी, पूछिए?" उन्होंने ध्यान देते हुए कहा,
"आपने हरि जी के बार में कुछ बातें बतायीं" मैंने कहा,
क़य्यूम भाई अपनी बियर खोलने के लिए अपना अंगूठा चलाया और सफलता मिल गयी! झक्क की आवाज़ करते हुए बियर खुल गयी!
"हाँ, गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हरि साहब ने ये ज़मीन २ साल पहले ली थी?" मैंने पूछा,
''हाँ गुरु जी" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
"मैंने ही दिलवाई थी, दरअसल मेरे एक जानकार थे उन्ही से" उन्होंने बताया,
"अच्छा, तो उन्होंने क्यों बेचीं?" मैंने पूछा,
"ये तो पता नहीं, उन्होंने जिक्र किया था की वे अपनी ज़मीन बेचना चाहते हैं" वे बोले,
अब तक शर्मा जी ने एक गिलास और बना दिया था, सो मैंने आधा ख़तम किया और बात फिर से ज़ारी रखी,
"मेरा पूछने का आशय था कि क्या ऐसी घटनाएं उनके साथ भी हुई थीं?" मैंने पूछा,
"उन्होंने तो कभी नहीं बताया ऐसा कुछ?'' वे बोले,
"हम्म!" मैंने कहा और बाहर देखा, बाहर दम हिलाते हुए कुत्ते खड़े थे, अबकी बार दो और बढ़ गए थे, मैंने एक एक बोटी उनकी तरफ उछाल दी, बड़ी सहजता से अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सभी का मुंह चलने लगा!
एक बोतल ख़तम हो गयी थी, बड़े सम्मान के साथ मैंने वो बोतल पास में ही लगे एक पेड़ के नीचे फेंक दी!
दूसरी बोतल खोल ली गयी!
"क्या नाम है आपके जानकार का?" मैंने पूछा,
"जी अनिल" वे बोले,
"अच्छा, तो अनिल ने ही ये ज़मीन हरि को बेचीं!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"तो क्या अनिल जी से मिला जा सकता है अगर ज़रुरत पड़ी तो?" मैंने पूछा,
"हाँ हाँ! क्यों नहीं!" वे बोले,
अब तक एक गिलास और बना दिया शर्मा जी ने, एक ही बनाया था, शर्मा जी ने अब ना कर दी थी, उनका कोटा पूरा हो गया था! मै अभी डटा हुआ था! मुठभेड़ ज़ारी थी मेरी अभी मदिरा से! वो मुझे पस्त करना चाहती थी और मै उसको!
मैंने एक टुकड़ा उठाया, फाड़ा और चबाने लगा! साढ़े ८ का समय हो चला था तब तक! शर्मा जी उठे और गाड़ी से बाहर निकले, कमर सीधी की और एक सिगरेट और पजार ली! वो लघु-शंका से निवृत होने चले गए!
"क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"बस अब निकलते हैं यहाँ से" मैंने कहा,
"हाँ, निबट लीजिये, और कुछ चाहिए हो तो बताइये" वे बोले,
"नहीं, और नहीं, बस!" मैंने कहा,
फिर मैंने दो पैग और लिए, निबट गया मै और शर्मा जी भी आ बैठे और हम अब चल पड़े अपनी मंजिल की ओर! गाड़ी दौड़ पड़ी सरपट!
जिस समय हम वहाँ पहुंचे, रात के पौने दस का समय था, हरि साहब के भी फ़ोन आ गए थे, उनसे बात भी हो गयी थी, तो हम सीधे हरि साहब के पास ही गए, उनके घर पर ही, हरि साहब ने शालीनता से स्वागत किया हमारा, खूब बातचीत हुई और फिर रात्रि में निंद्रा हेतु हमने उनसे विदा ली, एक बड़े से कमरे में इंतजाम किया गया था हमारे सोने का! ये घर कोई पुरानी हवेली सा लगता था! खाना खा ही चुके थे, नशा सर पर हावी था ही, थकावट सो अलग, सो बिस्तर में गिरते ही निंद्रा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया!
जैसे लेटे थे उसी मुद्रा में सो गए!
सुबह जब आँख खुली तो सुबह के आठ बज चुके थे! हाँ, नींद खुल कर आई थी सो थकावट जा चुकी थी! दो चार ज़बरदस्त अंगडाइयां लेकर बदन के हिस्से आपस में जोड़े और खड़े हो गए!
फिर नित्य-कर्मों से फारिग होने के पश्चात नहाने के लिए मै सबसे पहले गया, स्नान किया, ताजगी आ गयी! फिर शर्मा जी गए और कुछ देर में वो भी वापिस आ गए नहा कर!
"यहाँ मौसम बढ़िया है" वे बोले,
"हाँ, इन दिनों में अक्सर ऐसा ही होता है यहाँ मौसम, दिन चढ़े गर्मी होती है और दिन ढले ठण्ड!" मैंने कहा,
"हाँ, रात को भी मौसम बढ़िया था, सफ़र आराम से कट गया इसीलिए!" वे बोले,
तभी कमरे में हरि साहब ने प्रवेश किया, उनके साथ एक छोटी सी लड़की भी थी, ये उनकी पोती थी शायद, नमस्कार हुई और हम तीनों ही वहाँ बैठ गए, लड़की भी नमस्ते करके बाहर के लिए दौड़ पड़ी! हँसते हुए!
"पोती है मेरी!" वे बोले,
"अच्छा!" शर्मा जी ने कहा,
तभी चाय आ गयी, ये उनका नौकर था शायद जो चाय लाया था, उसने ट्रे हमारी तरफ बढ़ाई, उसमे कुछ मीठा, नमकीन आदि रखा था, मैंने थोडा नमकीन उठाया और हमने अपने अपने कप उठा लिए और चाय पीनी शुरू की, नौकर चला गया तभी,
"और कोई परेशानी तो नहीं हुई आपको?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं नहीं! क़य्यूम भाई के साथ आराम से आये हम यहाँ!" मैंने कहा,
"कुछ बताया क़य्यूम भाई ने आपको?" उन्होंने चुस्की लेते हुए पूछा,
"हाँ बताया था" मैंने कहा,
"गुरु जी, बात उस से भी आगे है, मैंने क़य्यूम भाई को पूरी बात नहीं बतायी, मैंने सोचा की जब आप यहाँ आयेंगे तो आपको स्वयं ही बताऊंगा" वे बोले,
"बताइये?" मैंने उत्सुकता से पूछा,
"गुरु जी, जिस दिन से मैंने वो ज़मीन खरीदी है, उसी दिन से आप लगा लीजिये कि दिन खराब हो चले हैं" वे अपना कप ट्रे में रखते हुए बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"जी मेरे तीन लड़के हैं और एक लड़की, दो लड़के ब्याह दिए हैं और लड़की भी, अब केवल सबसे छोटा लड़का ही रहता है, नाम है उसका नकुल, पढाई ख़त्म कर चुका है और अब वकालत की प्रैक्टिस कर रहा है ग्वालियर में, दोनों बेटे भी अपने अपने काम में मशगूल हैं, एक मुंबई रहता है अपने परिवार के साथ, दूसरा आगरे में है अपने परिवार के साथ, उसकी भी नौकरी है वहाँ, अध्यापक है, आजकल यहीं आया हुआ है अपने परिवार के साथ, लड़की जो मैंने ब्याही है वो अहमदाबाद में है, २ वर्ष हुए हैं ब्याह हुए" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
उन्होंने अपना चश्मा उतारा और रुमाल से साफ़ करते हुए बोले, " लड़की ससुराल में खुश नहीं है, बड़े लड़के का बड़ा लड़का, मेरा पोता बीमार हो कर ३ वर्ष का गुजर गया, अब कोई संतान नहीं है उसके, जो लड़का यहाँ आया हुआ है.." वे बोले,
मैंने तभी बात काटी और पूछा, "नाम क्या है जो आया हुआ है?"
"दिलीप" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मै कह रहा था कि जो लड़का यहाँ आया हुआ है, उसके २ लडकियां ही हैं, लड़का कोई नहीं, उसकी पत्नी के गर्भ में कोई बीमारी बताई है डॉक्टर्स ने और अब संतान के लिए एक तरह से मना ही कर दिया है" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"एक बात और, मेरा अपना व्यवसाय है यहाँ, व्यवसाय लोहे का है, वो भी एक तरह से बंद ही पड़ा है दो साल से, कोई उछाल नहीं है" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"अब वही बात मै कह रहा था, कि जब से मैंने यहाँ वो ज़मीन ली है तबसे सबकुछ जैसे गड्ढे में चला गया है" वे बोले,
"अच्छा, और उस से पहले?" मैंने पूछा,
"सब ठीक ठाक था! कभी मायूसी नहीं थी घर-परिवार में!" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"हाँ जी, इस ज़मीन में ऐसा कुछ न कुछ ज़रूर है जिसकी वजह से ऐसा हुआ है हमारे साथ" वे बोले,
"क़य्यूम भाई ने बताया था कि वहाँ कुछ गड़बड़ तो है, अनेक मजदूरों ने भी देखा है वहाँ ऐसा कुछ, मुझे बताएं कि क्या देखा है ऐसा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, देखा है, वहाँ ४ मजदूर अपने परिवारों के साथ रहते हैं, उन्होंने वहाँ देखा है और महसूस भी किया है" वे बोले,
"क्या देखा है उन्होंने?'' मैंने पूछा और मेरी भी उत्सुकता बढ़ी अब!
"वहां एक मजदूर है, शंकर, उसने बताया था मुझे एक बार कि उसने और उसकी पत्नी ने खेत में दो औरतों को देखा है घूमते हुए, हालांकि उन औरतों ने कभी कुछ कहा नहीं उनको" वे बोले,
"दो औरतें?'' मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"जहां पानी लगाया जाता है, उसके दो घंटे के बाद वो जगह सूख जाती है अपने आप! जैसे वहाँ कभी पानी लगाया ही नहीं गया हो!" वे बोले,
बड़ी अजीब सी बात बताई थी उन्होंने!
"ये एक ख़ास स्थान पर है या हर जगह?" मैंने पूछा,
"खेतों में ऐसे कई स्थान हैं गुरु जी, जहां ऐसा हो रहा है" वे बोले,
सचमुच में बात हैरत की थी!
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, शुरू शुरू में हमने एक पनिया-ओझा बुलवाया था, उसने पानी का पता तो बता दिया लेकिन ये भी कहा कि यहाँ बहुत कुछ गड़बड़ है और ये ज़मीन फलेगी नहीं हमको, उसका कहना सच हुआ, ऐसा ही हुआ है अभी तक, वहाँ से घाटे के आलावा कुछ नहीं मिला आज तक!" वे बोले,
"तो आपने किसी को बुलवाया नहीं?" मैंने पूछा, मेरे पूछने का मंतव्य वे समझ गए,
"बुलाया था, तीन लोग बुलाये थे, दो ने कहा कि उनके बस की बात नहीं है, हाँ एक ने यहाँ पर पोरे ग्यारह दिन पूजा की थी, लेकिन उसके बाद भी जस का तस! कोई फर्क नहीं पड़ा!" वे बोले,
स्थिति बड़ी ही गंभीर थी!
"आपने अनिल जी से इस बाबत पूछा?" मैंने सवाल किया,
"हाँ, उन्होंने कहा कि ऐसा तो उनके यहाँ न जाने कब से हो रहा है, किसी को चोट नहीं पहुंची तो कभी ध्यान नहीं दिया" वे बोले,
"मतलब उन्होंने अपने घाटे से बचने के लिए और आपने कच्चे लालच में आ कर ये ज़मीन खरीद ली!" मैंने कहा,
"हाँ जी, इसमें कोई शक नहीं, कच्चा लालच ही था मुझमे!" वे हलके से हँसते हुए ये वाक्य कह गए!
"कोई बात नहीं, मई भी एक बार देख लूँ कि आखिर क्या चल रहा है वहाँ?" मैंने कहा,
"इसीलिए मैंने आपको यहाँ बुलवाया है गुरु जी, ललितपुर वाले हरेन्द्र जी से भी मैंने इसी पर बात की थी" वे बोले,
"अच्छा, हाँ, मुझे बताया था उन्होंने" मैंने कहा,
तभी क़य्यूम भाई अन्दर आये, नमस्कार आदि हुई और वो बैठ गए,
"कुछ पता चला गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"अभी तो मैंने वहाँ की कुछ बातें सुनी हैं, आज चलेंगे वहाँ और मै स्वयं देखूंगा कि वहाँ आखिर में चल क्या रहा है?" मैंने कहा,
"ये सही रहेगा गुरु जी!" क़य्यूम भाई ने कहा,
"वैसे क्या हो सकता है? कोई कह रहा था कि यहाँ कोई शाप वगैरह है!" वे बोले,
"शाप! देखते हैं!" मैंने कहा,
"आप खाना आदि खा लीजिये, फिर चलते हैं वहाँ" हरि साहब ने कहा,
"हाँ, ठीक है" मैंने कहा,
"और क़य्यूम भाई आपका घर कहाँ है यहाँ?" शर्मा जी ने पूछा,
"इनके साथ वाला ही है शर्मा जी! आइये गरीबखाने पर!" वे बोले,
"ज़रूर, आज शाम को आते हैं आपके पास!" वे बोले,
"ज़रूर!" क़य्यूम भाई ने मुस्कुरा के कहा!
तभी हरि साहब उठे और बाहर चले गए!
"मौसम बढ़िया है यहाँ क़य्यूम भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"खुला इलाका है, पथरीला भी है सुबह शाम ठंडक बनी रहती है, हाँ दिन में पारा चढ़ने लगता है!" वे बोले,
"और सुनाइये क़य्यूम भाई, घर में और कौन कौन है?" शर्मा जी ने पूछा,
"दो लड़के हैं जी, और माता-पिता जी" वे बोले,
"अच्छा! और दूसरे भाई?" उन्होंने पूछा,
"जी एक ग्वालियर में है और एक टेकनपुर में" वे बोले,
'अच्छा!" वे बोले,
"और काम-धाम बढ़िया है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ जी, ठीक है, निकल जाती है दाल-रोटी!" हंस के बोले क़य्यूम भाई!
थोड़ी देर शान्ति छाई, इतने में ही हरि साहब अन्दर आ गए, बैठ गए!
"नाश्ता तैयार है, लगवा दूँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, लगवा लीजिये" मैंने कहा,
वे उठ कर बाहर गए और थोड़ी देर बाद उनका नौकर नाश्ता लेकर आ गया, हम नाश्ता करने लगे!
"नाश्ते के बाद चलते हैं खेतों पर" मैंने कहा,
"जी, चलते हैं" हरि साहब बोले,
"मै आता हूँ फिर, गाड़ी ले आऊं" क़य्यूम भाई ने कहा,
"ठीक है, आ जाओ" हरि साहब बोले,
हम नाश्ता करते रहे, लज़ीज़ था नाश्ते का स्वाद! नाश्ता ख़तम किया और इतने में ही क़य्यूम भाई भी आ गए गाड़ी लेकर, तब हम चारों वहाँ से निकल पड़े खेतों की तरफ! हम चारों खेत पहुंचे! बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था वहाँ का! जंगली पीले रंग के फूलों ने ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लिया था, उनमे से कहीं कहीं नीले रंग के फूल भी झाँक रहे थे, जैसे प्रकृति ने मीनाकारी का काम किया हो! कुछ सफ़ेद फूल भी निकले थे वहाँ, वो अलग ही खूबसूरती ज़ाहिर कर रहे थे! पेड-पौधों ने माहौल को और खुशगवार बना दिया था! अमरुद, बेर और आंवले के पेड़ों के समरूप रूप ने जैसे प्रकृति का सलोनापन ओढ़ लिया था! बेलों ने क्या खूब यौवन धारण किया था, काबिल-ए-तारीफ़! उनके चटख हरे रंग ने मन मोह लिया था, पीले रंग के फूल जैसे स्वर्ग का सा रूप देने में लगे थे! सच में प्राकृतिक सौंदर्य वहाँ उमड़ के पड़ा था! शुष्क नाम की कोई जगह वहाँ नहीं दिखाई दे रही थी! हर तरफ हरियाली और हरियाली!
"आइये, इस तरफ" हरि साहब ने कहा और जैसे मै किसी सम्मोहन से जागा!
जी, चलिए" मैंने कहा,
ये एक संकरा सा रास्ता था! दोनों तरफ नागफनी ने विकराल रूप धारण कर रखा था, लेकिन उसके खिलते हुए लाल और पीले फूलों ने उसकी कर्कशता को भी हर लिया था! बहुत सुन्दर फूल थे, बड़े बड़े! अमरबेल आदि ने पेड़ों पर अपनी सत्ता कायम कर रखी थी! मकड़ियों ने भी अपने स्वर्ग को क्या खूब सजाया था अपने जालों से! ऊंचाई पर लगे बड़े बड़े जाले!
"यहाँ से आइये" हरि साहब ने कहा, और हम उनके पीछे पीछे हो लिए, हम अब एक बाग़ जैसी ज़मीन में प्रवेश कर गए, खेतों में लगे बैंगन और गोभी आदि बड़े लुभावने लग रहे थे!
तभी सामने तीन पक्के कमरे बने दिखाई दिए, उसके पीछे भी शायद कमरे बने थे, वहाँ मजदूरों की भैंस और बकरियां बंधी थीं, चारपाई भी पड़ी थीं, उनके बालक वहीँ खेल रहे थे, हमे देख ठिठक गए!
कय्यूम भाई ने एक चारपाई बिछायी और एक पेड़ के नीचे बिछा दी, हम बैठ गए उस पर, अपने लिए उन्होंने एक और चारपाई बिछा ली, वे भी बैठ गए, तभी हरि साहब ने आवाज़ दी और अपने मजदूर शंकर को बुलाया, पहले उसकी पत्नी बाहर आई और फिर वो समझ कर चली गयी शंकर को बुलाने, शंकर कहीं खेत में काम कर रहा था उस समय,
"ये है जी ज़मीन" हरि साहब बोले,
"देख ली है, अभी जांच करूँगा यहाँ की" मैंने कहा,
कय्यूम भाई उठे और अन्दर से घड़े में से पानी ले आये, मैंने पानी के दो गिलास पिए और शर्मा जी ने एक, पानी भी बढ़िया और ठंडा था! उसी पनिया-ओझा के बताये हुए स्थान पर खोदे हुए कुँए का ही था!
तभी शंकर आ पहुंचा वहाँ, उसने नमस्ते की और अपने अंगोछे से अपना मुंह पोंछते हुए अपने हाथ धोये और फिर वहीँ एक खटोला बिछा कर बैठ गया!
हरि साहब ने दो चार बातें कीं उस से और फिर सीधे ही बिना वक़्त गँवाए काम की बात पर आ गए! अब शंकर मेरे सवालों का उत्तर देने को तैयार था!
"शंकर, जैसा मुझे हरि साहब ने बताया है वैसा कुछ देखा है आपने?" मैंने पूछा,
'हाँ जी, देखा है, मै क्या सभी ने देखा है यहाँ" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब तक शंकर की पत्नी भी वहाँ आ बैठी, घूंघट किये हुए,
"क्या देखा है शंकर आपने?" मैंने पूछा,
"यहाँ अक्सर दो औरतें दिखाई देती हैं घूमते हुए" वो बोला,
"तुमने देखी हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, तीन बार" वो बोला,
"क्या उम्र होगी उनकी?" मैंने पूछा,
"जी पक्का पता नहीं, होगी ३०-३५ बरस" वो बोला,
"क्या पहन रखा है उन्होंने?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" वो बोला,
"कुछ नहीं? मतलब नग्न?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
धमाका हुआ! मेरे दिमाग में हुआ धमाका! प्रेत यदि नग्न हो तो बलि कारण होता है उसका! और यहाँ बलि?
"पास में से देखी थीं?" मैंने पूछा,
"नहीं जी, कोई पचास फीट की दूरी से देखा था" वो बोला,
"किस जगह?" मैंने पूछा,
"जी पीछे है वो जगह, वहाँ केले, पपीते के पेड़ हैं" वो बोला,
"अक्सर वहीँ दिखाई देती हैं?'' मैंने पूछा,
"जी दो बार वहीँ दिखाई दी थीं, और एक बार कुँए के पास, चक्कर लगा रही थीं कुँए के" वो बोला,
"अच्छा, बाल कैसे हैं उनके?" मैंने पूछा,
"काले" उसने कहा,
"नहीं, खुले हैं या बंधे हुए?" मैंने पूछा,
"खुले हुए, छाती तक" वो बोला,
खुले हुए! फिर से बलि का द्योतक!
"किसी को पुकारती हैं? कुछ कहती हैं?" मैंने पूछा 
"नहीं जी, चुप ही रहती हैं" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और गुरु जी, मेरी पत्नी ने भी कुछ देखा है यहाँ" वो बोला,
"क्या?" मैंने उत्सुकता से पूछा,
अब उसकी पत्नी की तरफ हमारी नज़रें गढ़ गयीं,
"क्या देखा आपने?" मैंने पूछा,
"जी मैंने यहाँ एक आदमी को देखा था, पेड़ के नीचे बैठे हुए" उसने बताया,
"आदमी? कैसा था वो?" मैंने कुरेदा!
"होगा कोई पचास-साठ बरस का, सर पर साफ़ सा बाँधा था उसने" वो बोली,
"और?" मैंने पूछा,
"वो बैठा हुआ था, जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो, बीच बीच में उठकर सामने कमर झुक कर देखता था, फिर बैठ जाता था" उसने बताया,
"फिर?" मैंने पूछा,
"मैंने सोचा यहीं आसपास का होगा, मै वहाँ तक गयी और जैसे ही मेरी नज़र उस से मिली वो गायब हो गया, मै डर के मारे चाखते हुए वापिस आ गयी यहाँ और सभी को बताया!" वो बोली,
"अच्छा! ये कब की बात होगी?" मैंने पूछा,
"करीब छह महीने हो गए" वो बोली,
"फिर कभी नज़र आया वो?" मैंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने मुंह बंद रखते हुए ही कहा,
तभी वो उठी और चली गयी वहाँ से!
"कुछ और? कोई विशेष बात?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"क्या?" मैंने पूछा,
"यहाँ ऐसी चार पांच जगह हैं जहां पानी नहीं ठहरता, कितना ही पानी दे दो, लेकिन वहाँ दो घंटे के बाद ही पानी सूख जाता है, जैसे सारा पानी कोई सोख रहा है नीचे ही नीचे" उसने बताया,
"कहाँ है ऐसी जगह?" मैंने पूछा,
"आइये, दिखाता हूँ" वो कहते हुए उठा,
हम सभी उठ गए उसके साथ और उसके पीछे हो लिए, वो हमको थोड़ी दूर ले गया और हाथ के इशारे से बताया कि ये है वो जगह, उनमे से एक" उसने कहा,
उसका कहना सही था! वहाँ मिट्टी ऐसी थी जैसे कि रेत, एक दम सूखी रेत! बड़ी हैरत की बात थी! मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था! आज पहली बात देख रहा था! मेरे सामने ही उसने एक बाल्टी पानी वहाँ डाला, और कहा, "ये देखिये, यहाँ पानी नहीं रुकेगा, गीला भी नहीं होगा यहाँ कुछ देर के बाद"
मैंने आगे बढ़कर देखा, जहां पानी डाला गया था! जूते से खंगाला तो पानी मिट्टी पर था ही नहीं, हाँ गीलेपन के निशान ज़रूर थे वहाँ!
"और वो जगह कहाँ है जहां वो औरतें दिखाई दीं थीं?" मैंने पूछा,
"आइये, उस तरफ है" वो बोला, और हम उसके पीछे चले,
वो हमको एक जगह ले आया, यहाँ केले और पपीते के पेड़ लगे थे, जगह बहुत पावन सी लग रही थी! एक दम शांत! जैसे किसी मंदिर का प्रांगण!
"यहाँ! यहाँ देखा था जी" शंकर ने वहाँ खड़े हो कर कहा,
मैंने गौर से देखा, सबकुछ सामान्य था वहाँ, कुछ भी अजीब नहीं! पेड़ों पर पपीते लदे थे पीछे अमरुद के पेड़ों से खुशबू आ रही थी उसके फूलों की! बेहद सुकून वाली जगह थी वो!
"दोनों बार यहीं दिखाई दीं थीं वो दोनों?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" शंकर ने कहा,
तभी शंकर का लड़का आया वहाँ भाग भाग और शंकर से कुछ कहा, शंकर हमको लेकर फिर से अपनी कमरे पर आ गया, वहाँ दूध का प्रबन्ध कर दिया गया था, हमने दूध लिया, बहुत बढ़िया ताजा दूध था वो! हमने दो दो गिलास पी लिया, तबीयत प्रसन्न हो गयी!
फिर शंकर ने खाने की पूछी, तो खाने की हमने मना कर दी, पेट दूध पीकर भर गया था, रत्ती भर भी जगह शेष नहीं थी!
"आइये मै आपको वो पानी वाली जगह दिखा दूँ" शंकर ने कहा,
"चलिए" मैंने कहा, 
हम चल पड़े उसके पीछे, वहाँ पहुंचे और सच में, सच में वहाँ पानी का कोई नामोनिशान नहीं था! मैंने नीचे बैठकर, छू कर देखा, मिट्टी सूखे रेत के समान थी! कमाल की बात थी ये! अद्भुत! न कभी देखा था ऐसा और न सुना था! आज देख भी रहा था और अचंभित भी था! पानी जैसे भाप बनकर उड़ गया था! जैसे ज़मीन ने एक एक बूँद पानी की लील ली हो! हैरत-अंगेज़!
"कमाल है!" मेरे मुंह से निकला!
"मैंने बताया था ना गुरु जी, ऐसी चार पांच जगह हैं यहाँ!" अब हरि साहब ने कहा! 
"हाँ, कमाल की बात है!" मैंने फिर से कहा,
"यहाँ ना जाने क्या चल रहा है, हम बड़े दुखी हैं गुरु जी" हरि साहब बोले,
"मै समझ सकता हूँ हरि साहब!" मैंने कहा,
"अब आप जांच कीजिये कि यहाँ ऐसा क्या है?" वे बोले, याचना के स्वर में,
"मै आज रात जांच आरम्भ करूँगा हरि साहब!" मैंने कहा,
"जी बहुत अच्छा" हरि साहब ने कहा,
"शंकर?" मैंने कहा,
"जी?" उसने चौंक कर कहा,
"वो पेड़ कहाँ है जहां आपकी पत्नी ने वो आदमी देखा था?" मैंने पूछा,
"आइये जी, उस तरफ!" मैंने कहा,
हम उसके पीछे चल पड़े!
"ये है जी वो पेड़" शंकर ने इशारा करके बताया,
ये पेड़ अमलतास का था, काफी बड़ा पेड़ था वो! 
मै वहीँ उसके नीचे खड़ा हो गया! कुछ महसूस करने की कोशिश की लेकिन सब सामान्य!
अब तो सिर्फ रात को ही जांच की जा सकती थी!
अतः, मै वहाँ से वापिस आ गया, हम वहाँ से वापिस चल दिए और हरि साहब के पास आ गए, उनके घर,
खाना लगा दिया गया, खाना खा लिया हमने और फिर कुछ देर आराम करने के लिए हम अपने कमरे में आ गए, लेट गए!
"क्या लगा आपको गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"अभी तक तो कुछ नहीं लगा अजीब, सब सामान्य ही है" मैंने कहा,
"तो अब रात को करेंगे जांच?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, आज रात को" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी" वे बोले,
और फिर हम दोनों ही सो गए, नींद की ख़ुमारी थी काफी, आँख लग गयी जल्दी ही!
४ बज चले थे, जब हमारी आँख खुली, शर्मा जी और मै एक साथ ही उठ गए थे, बदन में ताजगी आ गयी थी! और अब मुझे इंतज़ार था तो रात घिरने का, मै आज रात जांचना चाहता था कि वहाँ दरअसल चल क्या रहा है? कौन है वो दो औरतें? कौन है वो इंतज़ार करता आदमी और क्या रहस्य है वहाँ कुछ जगह पानी के न ठहरने का! एक तो उत्सुकता और दूसरी रहस्य की गहराई, जैसे मै बंधता जा रहा था उनमे, जैसे मेरे ऊपर पड़ा कोई फंदा धीरे धीरे कसता चला जा रहा हो!
"शर्मा जी?'' मैंने कहा,
"जी हाँ?" वे बोले,
"आप बैग में से वही सामान निकाल लीजिये, जांच वाला" मैंने कहा,
"जी, अभी निकालता हूँ" वे बोले,
उन्होंने पास में रखा बैग खिसकाया और उसको खोला, फिर कुछ सामान निकाल लिया, इसमें कुछ तंत्राभूषण और विभिन्न प्रकार की सामग्रियां रखी थीं, मैंने शर्मा जी से मुख्य मुख्य सामग्री निकलवा ली और फिर बाकी का सामान बैग के अन्दर ही रखवा दिया,
"आज रात को हम जांच करेंगे वहाँ, हरि साहब से एक नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ज़रूर ले लेना, आवश्यकता पड़ेगी इसकी" मैंने कहा,
"जी मै कह के ले लूँगा उनसे" वे बोले,
"ठीक है शर्मा जी, देखते हैं कि क्या रहस्य है यहाँ" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी, आज पता चल जाएगा" वे बोले,
"हाँ, पता चल जाए तो इस समस्या का भी निवारण हो जाए, हरि साहब बेहद उदास हैं, कुंठाग्रस्त हो चले हैं अब इस ज़मीन की वजह से" मैंने कहा,
"सही कहा आपने, बेचारे पस्त हो गए हैं" वे बोले,
तभी हरि साहब आ गए अन्दर!
"उठ गए गुरु जी?" उन्होंने कुर्सी पर रखे अखबार को हटाते हुए और बैठते हुए कहा,
"हाँ हरि साहब" शर्मा जी ने जवाब दे दिया,
"चाय मंगवा लूँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, मंगवा लीजिये" मैंने कहा,
"जी, अभी कहता हूँ" वे बोले, उठे और दरवाज़े पर जाकर आवाज़ दे दी अपने रसोईघर की तरफ, और फिर अन्दर आ बैठे, कुर्सी पर,
अब शर्मा जी ने उनसे सामान के बारे में कह दिया, उन्होंने सामान के लिए तुरंत ही हाँ कर दी, अब हमारा काम एक तरह से फ़ारिग हो चला था, अब केवल जांच शेष थी, और उसके लिए हम तैयार थे, बस रात घिरने का इंतज़ार ही था!
थोड़ी देर में चाय आ गयी, हम चाय पीने लगे, हरि साहब गुना शहर के बारे में बातें करने लगे, कुछ इतिहास और कुछ राजनीति की बातें आदि, चाय समाप्त हुई तो मैंने और शर्मा जी ने बाहर घूमने की बात कही, उन्होंने भी साथ चलना ठीक समझा, आखिर ये निर्णय हुआ कि वापसी में हम क़य्यूम भाई के घर से होते हुए वापिस आ जायेंगे, हम बाहर निकल आये!
पुराने मकान, बड़े बड़े! इतिहास समेटे हुए! इतिहास के मूक गवाह! शहर जैसे अभी भी डेढ़ सौ वर्ष पीछे चल रहा था! पुराने खरंजे, ऐसे जैसे किसी विशेष प्रयोजन हेतु बिछाए गए हों! उनसे टकराते हुए जूते और जूतों की आवाज़, ऐसी कि जैसे घोडा बिदक गया हो कोई! पाँव पटक रहा हो अपने! एक पान की दुकान पर रुके हम और मैंने एक पान लिया, सादी पत्ती और गीली सुपारी का! ऊपर से थोडा सा और तम्बाकू डलवा लिया, पान खाया तो ज़र्दे की खुशबू उड़ चली! जैसे क़ैद से आज़ाद हो गयी हो! पान बेहद बढ़िया था! बनारसी पत्ता तो मिला नहीं, देसी पत्ते में ही बनवाया था! मजा ही मजा!
खैर, बाज़ार से गुजरे, वही पुराना देहाती बाज़ार! वही दिल्ली के किनारी बाज़ार और आगरा के बाज़ार जैसा! शानदार!
हम चलते गए, चलते गए क्या घूमते गए, और फिर वापसी की राह पकड़ी! वापसी में क़य्यूम भाई के घर पहुंचे हम! क़य्यूम भाई घर पर ही मिले, हमे देख बड़े खुश हुए और बेहद सम्मान के साथ हमे अन्दर ले गए घर में! घर में चाय बनवाई गयी, हालांकि दूध के लिए पूछा था लेकिन दूध संभालने की जगह नहीं थी पेट में! मिठाई आदि खायी हमने! कुल मिलकर क़य्यूम भाई ने मजे से बाँध दिए! क़य्यूम भाई को भी रात के विषय में बता दिया हमने कि जांच करने जायेंगे और दस बजे का वक़्त सही रहेगा, उनको तैयार रहने को कहा तो उन्होंने हामी भर दी, अब रात में हम चारों फिर से उन्ही खेतों पर जाने वाले थे, जांच करने!
रात घिरी, दौर-ए-जाम शुरू हुआ, साथ में क़य्यूम भाई के घर से आया हुआ भोजन भी किया! लज़ीज़ भोजन था, देसी मुर्गा और पूरा देसी घी में बना हुआ! ज़ायका ऐसा कि इंसान अपनी ऊँगली ही चबा जाए! और फिर बजे दस!
'चलिए क़य्यूम भाई" मैंने कहा,
"जी चलिए" वे बोले,
वो उठे और गाड़ी लेने चले गए, यहाँ हरि साहब ने नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ले ली! मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये और शर्मा जी को भी धारण करवाए! कुछ एक मंत्र जागृत किये और फिर हम चल पड़े, गाड़ी आ गयी थी बाहर, हम गाड़ी में बैठे और चल दिए उसी ज़मीन के लिए जहां कुछ राज दफ़न थे! कुछ अनजाने राज!
सवा दस बजे हम उसी ज़मीन के पास खड़े थे, वातावरण में भयावह शान्ति पसरी थी! कोने कोने में सन्नाटे के गुबार छाये थे! दूर कहीं कहीं सरकारी खम्भों पर लटके बल्ब जल रहे थे, अपने पूरे सामर्थ्य के पास, लेकिन कीट-पतंगों की मित्रतावश अपनी रौशनी खोने लगे थे, कोई तेज और कोई बिलकुल ही धूमिल!
टोर्च जलाई हरि साहब ने, सहसा एक जंगली बिल्ली हमारे सामने गुर्रा के चली गयी! शायद दो थीं या किसी शिकार के पीछे लगी थी वो! हम आगे बढ़ चले, रास्ता बनाते हुए हम उस ज़मीन के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे, कोई लोहे की कंटीली तारों वाली या ईंट की पक्की चारदीवारी नहीं थी वहाँ, बस जंगली पेड़-पौधों और नागफनी से ही एक दीवार सी बना दी गयी थी, यही थी वो चारदीवारी! ये बहुत दूर तलक चली गयी थी! हम अन्दर चले टोर्च की रौशनी के सहारे और फिर अन्दर आ गए, अन्दर अभी चूल्हा जल रहा था, शायद दूध उबल रहा था, हरि साहब ने शंकर को आवाज़ लगाई, शंकर अन्दर से आया भागा भागा, उसने आते ही चारपाई बिछाई और हम उस पर बैठ गए, मैंने तीन जगह निश्चित कर के रखी थीं, जहां मुझे जांच करनी थी, एक अमलतास के पेड़ के पास, एक केले-पपीते के पेड़ों के बीच और एक कुँए के पास, यहीं से कुछ सुराग मिलना था किसी दफ़न राज का!
"शर्मा जी, वो नमक की थैली ले लीजिये, और टोर्च भी" मैंने कहा,
उन्होंने टोर्च और वो नमक की थैली ले ली अपने हाथों में और हम वहाँ से हरि साहब और क़य्यूम भाई को बिठाकर चल दिए उन स्थानों के लिए!
सबसे पहले मै उस अमलतास के पेड़ के पास पहुंचा, वहाँ उसका एक चक्कर लगाया और महा-भान मंत्र चलाया और कुछ चुटकी नमक वहाँ बिखेर दिया फिर पेड़ के इर्द गिर्द एक घेरा बना दिया, यहाँ का काम समाप्त होते ही मै कुँए की तरफ निकल पड़ा, कुँए के पास भी यही क्रिया दोहराई और फिर वहाँ से निकल कर केले-पपीते के पेड़ों के बीच आ गया, तभी कुछ चमगादड़ जैसे आपस में भिड़े और नीचे गिर गए, शर्मा जी ने उन पर प्रकाश डाला तो वे नीचे ही पड़े थे और अब रेंग कर एक दूसरे से विपरीत दिशा में जा रहे थे!
मैंने यहाँ भी वही क्रिया दोहराई और फिर महा-भान मंत्र चलाया! महा-भान मंत्र चलाते ही एक धुल का गुबार मेरे चेहरे से टकराया, जैसे किसी ने ज़मीन में लेटे हुए मेरी आँखों में धूल फेंक दी हो! शर्मा जी चौंक गए! उन्होंने मुझे फ़ौरन ही रुमाल दिया, मैंने रुमाल से अपना चेहरा और आँखें साफ़ कीं, लेकिन मिट्टी मेरी आँखों में पद चुकी थी और अब जलन हो रही थी, छोटे छोटे कंकड़ आँखों में किरकिरी बन चुभ रहे थे! मै हटा वहाँ से और फिर किसी तरह शंकर के पास आया, पानी मंगवाया और आँखें साफ़ कीं, साफ़ होते ही राहत हुई! नथुनों में भी मिट्टी भर गयी थी, वो भी साफ़ की!
मिट्टी किसने फेंकी?
यही प्रश्न अब मेरे दिमाग में कौंध रहा था! जैसे कोई पका हुआ फोड़ा फूटने को लालायित हो पूरी जलन के साथ!
शर्मा जी ने ये बात वहाँ सब को बता दी, वे भी चौंक पड़े! दिल धड़क उठे दोगुनी रफ़्तार से सभी के! कुछ न कुछ तो है वहाँ! पेड़ों के बीच!
अब मैंने कलुष-मंत्र का ध्यान किया, और फिर संधान कर अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! और अब हम दोनों चल पड़े उन्ही पेड़ों के पास! हम वहाँ पहुंचे, अन्दर आये और उस स्थान को देखा! वहाँ एक गड्ढा हुआ पड़ा था, कोई चार फीट की परिमाप का! मै और शर्मा जी वहाँ बैठ गए उस गड्ढे के पास! उसमे रौशनी डाली, वहाँ केश पड़े थे! स्त्रियों के केश! मैंने शर्मा जी को और शर्मा जी ने मुझको देखा! ये कलुष मंत्र के प्रभाव से हुआ था, लेकिन कोई भान नहीं हो सका! कुछ समझ नहीं आ सका कि ये गड्ढा किसलिए और ये केश? क्या रहस्य?
तभी पीछे से आवाज़ आई! कर्कश आवाज़, किसी वृद्ध स्त्री की! जैसे कराह रही हो! हमने पलट के देखा! रौशनी मारी तो पीछे एक पेड़ के सहारे कोई छिपा हुआ दिखाई दिया! करीब दस बारह फीट दूर!
"कौन है वहाँ?" मैंने पुकारा,
कोई उत्तर नहीं!
"कौन है? सामने आओ?" मैंने फिर से कहा,
वो जस की तस!
मै उठा और उसकी तरफ चला, कोई चार फीट तक ही गया होऊंगा कि फिर से कराहने की आवाज़ आई, ये आवाज़ वहाँ से नहीं आई थी, ये मेरी बायीं तरफ से आई थी, मैंने रौशनी मारी, वहाँ कोई नहीं था!
मै फिर आगे बढ़ चला! शर्मा जी मेरे साथ ही थे!
मै आगे बढ़ा, उस पेड़ से करीब दो फीट दूर रुक गया, वहाँ जो कोई भी था उसका कद मुझसे ऊंचा था! मै उसके कंधे तक ही आ पा रहा था!
"कौन है?" मैंने कहा,
"कोई उत्तर नहीं!
मै भाग के उसके पास गया और उसका हाथ जैसे ही पकड़ा उसने मुझे उसी हाथ से धक्का दिया और मै पीछे गिर पड़ा! मेरी कमर पपीते के एक पेड़ से टकराई, शर्मा जी फ़ौरन मेरे पास आये और मुझे खड़ा किया, मै संयत हुआ और फिर सामने देखा, सामने कोई नहीं था! वहाँ जो कोई भी था वो जा चुका था!
ये क्या था? कोई चेतावनी? कोई बड़ा संकट? फिर क्या? अब दिमाग में बुलबुले फूटने लगे! प्रश्नों की रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी पतंगें उड़ने लगी मेरे मस्तिष्क के पटल में! मस्तिष्क के आकाश में!
ये सब क्या है???
मै फिर से उसी पेड़ की तरफ बढ़ चला, उसके पीछे गया, लेकिन वहां कोई नहीं था! मैंने चारों ओर देखा, कोई भी नहीं! मैंने अब एक मुट्ठी नमक लिया और वहीँ ज़मीन पर एक मंत्र पढ़ते हुए फेंका! जैसे ज़मीन हिली! जूते में कसे मेरे पाँव और अधिक पकड़ के साथ स्थिर हो गए! वहाँ जो कुछ भी था, बेहद ताक़तवर और पुराना था!
"कौन है यहाँ?" मै चिल्लाया,
कोई हरक़त नहीं हुई!
"कौन है?" मैंने फिर से आवाज़ मारी!
लेकिन कोई उत्तर नहीं!
"सामने क्यों नहीं आते?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
"क्या चाहते हो?" मैंने जोर से कहा,
और तभी एक कपडे की बनी काली गुड़िया आकाश में से ज़मीन पर गिरी, मेरे सम्मुख! मैंने गुड़िया उठाई, उसका पेट फूला था, अर्थात, उसका पेट उसके शरीर के अनुमाप में अत्यंत दीर्घ था, मैंने दोनों हाथों से उसका पेट दबाया, तभी मुझे लगा की मेरे हाथों में कुछ द्रव्य आ गया है, हाथ गीले हो गए थे, मैंने टोर्च की रौशनी में अपने हाथ दखे, ये रक्त था! मानव रक्त!
खेल अब खूनी हो चला था!
"सामने आओ मेरे?" मैंने कहा,
कुछ पल गहन शान्ति! केवल झींगुरों की ही आवाज़, मंझीरे जैसे डर गए थे!
"सामने क्यों नहीं आते?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
"तो ऐसे नहीं मानोगे तुम?" मैंने अब क्रोध से कहा,
तभी गुड़िया में आग लग उठी! मैंने उसे नीचे फेंक दिया! वो धू धू कर जल उठी! और धीरे धीरे राख हो गयी!
अब बताता हूँ मित्रगण! ये पल मेरे लिए अत्यंत भयानक था! जो अशरीरी आग पर नियंत्रण कर लेता है उसको हराना इतना आसान नहीं! और यही हुआ था यहाँ, यही देखा था मैंने!
यहाँ न भूत था और न कोई प्रेत अथवा चुडैल! यहाँ कोई और था! उसने अपनी सत्ता दिखा दी थी मुझे!
"मेरे समक्ष आओ" मैंने चिल्ला के कहा,
कोई नहीं आया!
अब मै वहीँ बैठ गया, आसन लगाया, और अपना एक नथुना कनिष्ठा ऊँगली से बंद कर मैंने महापाश-मंत्र पढ़ा! अभी आधा ही पढ़ा था कि मुझे सामने दो औरतें दिखाई दीं! वो वहीँ दूर खड़ी थीं करीब पंद्रह फीट दूर! नग्न, चेहरे पर क्रोध का भाव्लिये, हाथों में कटार लिए, केश उनके घुटनों तक थे, साक्षात मृत्युदेवी जैसी थीं वो! मैंने एक बात और गौर की, उनकी ग्रीवा से रक्त बह रहा था, वो रक्त उनके स्तनों से बहता हुआ भूमि पर गिरता जा रहा था और भूमि पर कोई निशान नहीं थे! भूमि पर गिरते ही लोप हो जाता था! मेरा महापाश-मंत्र पूर्ण हुआ, मै खड़ा हो गया!
"कौन हो तुम दोनों?" मैंने पूछा,
कोई कुछ नहीं बोला उनमे से!
मैंने इशारे से शर्मा जी को अपने पास बुला लिया! वे दौड़ कर मेरे पास आ गए! उनको वहाँ देख उन औरतों ने अपनी कटार ऊपर उठा लीं!
"शर्मा जी, हिलना नहीं!" मैंने कहा,
वे समझ गए!
"कौन हो तुम दोनों?" मैंने पूछा,
और तब एक औरत ने कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहा उसने, बस एक दो शब्द ही सुनाई दिए, 'त्वच' और 'कंठ', दोनों ही शब्द निरर्थक थे! कोई सामंजस्य नहीं था उनमे!
"कौन हो तुम?" मैंने अब धीरे से कहा,
कोई उत्तर नहीं!
बड़ी अजीब सी स्थिति थी!
मैंने कुछ निर्णय लिया और उनकी ओर बढ़ा, जैसे ही मै उनके सामने आया कोई दो फीट दूर, तो मैंने देखा कि, उनका सर और धड़ अलग अलग थे! धड़ गोरा और सर एकदम भक्क काला! दुर्गन्ध फूट रही थी उनमे से! बहते हुए रक्त की दुर्गन्ध ने मेरा मुंह कड़वा कर दिया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
और तभी दोनों एक दूसरे को देखती हुई हंसीं और झप्प से लोप हो गयीं! मै अवाक सा खड़ा वहाँ रह गया! जैसे मेरे कांटे में फंसी मछली मेरे पास तक आते आते आज़ाद हो गयी हो!
दुर्गन्ध भी समाप्त हो गयी! परन्तु एक बात निश्चित हो गयी! यहाँ जो भी कुछ था वो इतना सामान्य नहीं था जिसका मैंने अंदाज़ा लगाया था! यहाँ तो खौफनाक शक्तियां थीं! लेकिन कौन था जो इनको नियंत्रित कर रहा था? यही दो? नहीं ये नहीं हो सकतीं! ये तो बलि-प्रयोग की महिलायें हैं! फिर एक और बात, शंकर ने इनको कैसे देखा था? मैंने तो रक्त-रंजित देखा! ये पूछना था मुझे शंकर से ही!
मै शर्मा जी को समझाते हुए, वापिस चल पड़ा शंकर की तरफ!
हम सीधा शंकर के पास आये, वे सभी बड़ी बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे, चेहरे पर हवाइयां उडी हुईं थीं उनके!
"सब खैरियत तो है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ सब खैरियत से है" मैंने कहा,
अब उन्हें चैन पड़ा!
"शंकर?" शर्मा जी ने कहा,
"जी?" वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया,
"तुमने जो दो औरतें देखीं थीं, वो रक्त-रंजित थीं क्या?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं जी, बिलकुल नहीं" उसने कहा,
अब मुझे जैसे झटके से लगने लगे!
"एक दम साफ़ थीं वो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, हाँ उन्होंने पेट पर शायद कोई भस्म या चन्दन सा मला हुआ था, पक्का नहीं कह सकता" शंकर ने कहा,
"कोई हथियार था उनके हाथ में?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी नहीं, कोई हथियार नहीं, केवल खाली हाथ थीं वो" उसने कहा,
यहाँ हरि साहब और क़य्यूम भी की साँसें रुक रुक कर आगे बढ़ रही थीं! आँखें ऐसे फटी थीं जैसे दम निकलने वाला ही हो! एक एक सवाल पर आँखें और चौड़ी हो जाती थीं उनकी!
"क्या हुआ गुरु जी?" हरि साहब ने पूछा,
"कुछ नहीं" मैंने उलझे हुए भी सुलझा सा उत्तर दिया!
"आपको दिखाई दीं वो?" अब क़य्यूम ने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
अब तो जैसे दोनों को भय का भाला घुस गया छाती के आरपार!
"क्क्क्क्क.......क्या?" हरि साहब के मुंह से निकला!
"हाँ, उनका बसेरा यहीं है!" मैंने कहा,
"मैंने कहा था न गुरु जी? यहाँ बहुत बड़ी गड़बड़ है, आप बचाइये हमे" अब ये कहते ही घबराए वो, हाथ कांपने लगे उनके!
"आप न घबराइये हरि साहब, मै इसीलिए तो आया हूँ यहाँ" मैंने कहा,
"हम तो मर गए गुरु जी" वे गर्दन हिला के बोले,
"आप चिंता न कीजिये हरि साहब" मैंने कहा,
"गुरु जी, वहाँ उस पेड़ को देखें?" शर्मा जी ने याद दिलाया मुझे,
"हाँ! हाँ! अवश्य!" मैंने कहा,
हम भागे वहाँ से, उस अमलतास पेड़ की तरफ! वहाँ पहुंचे, टोर्च की रौशनी डाली वहाँ, कोई नहीं था वहाँ! हम आगे गए! मैंने रुका, शर्मा जी को रोका, कुछ पल ठहरा और फिर मै अकेला ही आगे बढ़ा, पेड़ के नीचे कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं! मैंने आसपास गौर से देखा, और देखने पर अचानक ही मुझे पेड़ से दूर, चारदीवारी के पास एक आदमी खड़ा दिखा, साफ़ा बांधे! मै वहीँ चल पड़ा! वो अचानक से नीचे बैठ गया, जैसे कोई कुत्ता छलांग मारने के लिए बैठता है, मै रुक गया तभी कि तभी, जस का तस! वो नीचे ही बैठा रहा, मै अब धीरे धीरे आगे बढ़ा! और फिर रुक गया!
"कौन है वहाँ?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
अब मै आगे बढ़ा तो वो उठकर खड़ा हो गया! लम्बा! कद्दावर और बेहद मजबूत! पहलवानी जिस्म! उसने बाजूओं पर गंडे-ताबीज़ बाँध रखे थे! गले में माल धारण कर राखी थी, कौन सी? ये नहीं पता चल रहा था! कद उसका सात या सवा सात फीट रहा होगा! उम्र कोई चालीस के आसपास!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
मै आगे बढ़ा!
"जहां है, वहीँ ठहर जा!" वो गर्रा के बोला!
भयानक स्वर उसका और लहजा कड़वा! रुक्ष! धमकाने वाला!
मै ठहर गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"क्या करेगा जानकार?" उसने जैसे ऐसा कह कर चुटकी सी ली!
"मै जानना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
अब इसका उत्तर मेरे पास नहीं था!
"यहाँ प्रेतों का वास है" मैंने कहा,
वो हंसा! बहुत तेज! सच में बहुत तेज!
"मै चाहता हूँ कि तुम सब यहाँ से चले जाओ, अज ही!" मैंने कहा,
"अब वो गुस्सा हो गया! कूद के मेरे सामने आ खड़ा हुआ! मरे सर पर अपना भारी भरकम हाथ रखा! और मुझे हैरत! मेरे तंत्राभूषण भी नहीं रोक पाए उसे मुझे छूने से! ये कैसा भ्रम??
"ये भूमि हमारी है! पार्वती नदी तक, सारी भूमि हमारी है!" उसने मुझे दूर इशारा करके बताया!
"कैसी भूमि?" मैंने उसका हाथ अपने सर से नीचे किया और पूछा,
"ये भूमि" उसने अपने पैर से भूमि पर थाप मारते हुए कहा!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"मेरा नाम खेचर है! ये मेरा ही स्थान है!" उसने कहा,
स्थान? यही सुना न मैंने??
''स्थान? कैसा स्थान?" मैंने पूछा,
"ये स्थान!" उसने फिर से इशारा करके मुझे वही भूमि दिखा दी!

मै हतप्रभ था!
मै हतप्रभ था! हतप्रभ इसलिए कि मेरे सभी मंत्र और तंत्राभूषण, सभी शिथिल हो गए थे! खेचर के सामने शिथिल! दो ही कारण थे इसके, या तो खेचर स्वयंभू एवं स्वयं सिद्ध है अथवा उसको किसी महासिद्ध का सरंक्षण प्राप्त है! ये स्थान या तो परम सात्विक है या फिर प्रबल तामसिक! जो भी तत्व है यहाँ, वो अपने शीर्ष पर है! एक बार को तो मुझे भी आखेट होने का भय मार गया था, उसी खेचर के सामने जिसके सामने मै खड़ा था!
"सुना तूने?" अचानक से खेचर ने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ये मेरा स्थान है, अब तुम यहाँ से चले जाओ" उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी!
"मै नहीं जाऊँगा खेचर!" मैंने भी डटकर कहा!
"मारा जाएगा! हा हा हा हा!" उसने ठहाका मार कर कहा!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
उसका ठहाका बंद हुआ उसी क्षण!
वो चुप!
मै चुप!
और फिर से मैंने अपना प्रश्न दोहराया!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
वो चुप!
और फिर मेरे देखते ही देखते वो झप्प से लोप हो गया!
मेरा प्रश्न अब बेमायनी हो गया था!
"खेचर?" मैंने पुकारा!
कोई उत्तर नहीं!
"खेचर?" मैंने फिर से पुकारा!
अबकी बार भी कोई उत्तर नहीं!
वो चला गया था!
अब मै पलटा वहां से और शर्मा जी के पास आया, वे भी हतप्रभ खड़े थे! बड़ी ही अजीब स्थिति थी! अभी तक कोई ओर-छोर नहीं मिला था! धूल में लाठी भांज रहे थे हम!
"चला गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
और फिर मैंने उसी पेड़ को देखा जहां कुछ देर पहले खेचर आया था! वहाँ का माहौल इस वर्तमान में भूतकाल की गिरफ्त से आज़ाद हो चुका था! उसके पत्ते बयार से खड़खडाने लगे थे! वर्तमान-संधि हो चुकी थी!
"चलो, अब कुँए पर चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम कुँए पर पहुंचे! कुँए में से भयानक शोर आ रहा था! जैसे बालक-बालिकाओं की पिटाई हो रही हो! उनका क्रंदन कानफोड़ू था! मैंने और शर्मा जी ने कुँए में झाँक कर देखा! वहाँ जो देखा उसको देखकर आँखें चौड़ी हो गयीं! साँसें बेलगाम हो गयीं! अन्दर लबालब सर कटे पड़े थे, बालक-बालिकाओं के! और सभी अपनी जिव्हा निकाल तड़प के स्वर में चिल्ला रहे थे! रक्त की धाराएं एक दूसरे पर टकरा रही थीं! हमसे कोई छह फीट दूर! अत्यन्त भयावह दृश्य था! मैंने गौर किया, कुछ सर दो टुकड़े थे बस हलके से एक झिल्ली से चिपके थे, वो चिल्ला तो नहीं रहे थे, हाँ, सर्प की भांति फुफकार रहे थे, अपने नथुनों से!
मैंने तभी ताम-मंत्र का संधान किया, और नीचे से मिट्टी उठाकर वो मिट्टी अभिमंत्रित की और कुँए में डाल दी, विस्फोट सा हुआ! और वहाँ की माया का नाश हुआ! अब कोई सर नहीं बचा था वहाँ, पानी में नीचे हलचल थी, मैंने टोर्च की रौशनी मारी पानी के ऊपर तो वहाँ पानी के ऊपर कुछ तैरता हुआ दिखाई दिया! मैंने ध्यान से देखा, ये वही दो औरतें थीं! कमर तक पानी में डूबी हुईं और अपना अपना सर अपने हाथों में लिए! एक बार को तो मै पीछे हट गया! बड़ा ही खौफनाक दृश्य था! उनके कटे सर एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे थे! अजीब सी भाषा में! न डामरी, न कोई अन्य भाषा, ऐसे जैसे कोई अटके हुए से शब्द, कुछ कराह के शब्द जिसका केवल स्वर होता है और कोई व्यंजन नहीं!
"चलो यहाँ से" मैंने कहा,
शर्मा जी पीछे हट गए!
हम वापिस चल पड़े, शंकर के कमरे की तरफ, और तभी पीछे से मुझे किसी ने आवाज़ दी, मेरा नाम लेकर! मै चौंक पड़ा! ठहर गया! पीछे देखा, वो खेचर था!
खेचर वहीँ खड़ा था! मै दौड़ के गया वहाँ! उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, कोई क्रोध नहीं अबकी बार!
"मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"बोलो खेचर!" मैंने कहा!
"चला जा यहाँ से!" मैंने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मुझे मालूम हो गया है तू क्यों आया है यहाँ!" उसने मुस्कुरा के कहा,
"मै नहीं जाऊँगा फिर भी!" मैंने कहा,
"सुन, हम ग्यारह हैं यहाँ, तू एक, क्या करेगा?" उसने मुझे कहा,
"मै जानता हूँ! लेकिन मै नहीं जाने वाला खेचर!" मैंने कहा,
"तुझे काट डालेगा!" वो गंभीर हो कर बोला,
"कौन?" मैंने पूछा,
"भेरू" उसने कहा,
"कौन भेरू?" मैंने कहा,
"मेरा बड़ा भाई" उसने कहा,
"अच्छा! कहाँ है भेरू?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" उसने कहा,
'कहाँ है उसका वास?" मैंने पूछा,
"वहाँ, नदी से पहले" उसने इशारा करके कहा, 
मै अपना मुख पूरब में करके खड़ा था, उसने अपना सीधा हाथ उठाया, यानि मेरा बाएं हाथ, मै घूम कर देखा, मात्र अन्धकार के अलावा कुछ नहीं! अन्धकार! हाँ, मै था उस समय भौतिक अन्धकार में! वो नहीं! वो तो अन्धकार को लांघ चुका था! अन्धकार था मात्र मेरे लिए, शर्मा जी के लिए, रात थी मात्र मेरे और शर्मा जी के लिए, खेचर के लिए क्या दिन और क्या रात! सब बराबर! क्या उजाला और क्या अन्धकार! सब बराबर!
"खेचर, मै कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"पूछ" उसने कहा,
"वो औरत कौन है?" मैंने पूछा,
मैंने पूछा और वो झप्प से लोप!
वो बताना नहीं चाहता था, या उसका 'समय' हो चुका था! किसी भी अशरीरी का समय होता है! वो अपने समय में लौट जाते हैं! यही हुआ था खेचर के साथ!
अब मुझे लौटना था! वापिस! सो, मै शर्मा जी को लेकर वापिस लौटा, रास्ते में कुआ आया, मै रुका और फिर टोर्च की रौशनी से नीचे देखा, पानी शांत था! वहां कोई नहीं था!
खेचर-लीला समाप्त हो चली थी अब! मैंने सभी मंत्र वापिस ले लिए! अब मेरे पास दो किरदार थे, वो औरतें और खेचर! बाकी सब माया थी! और हाँ, वो भेरू! भेरू ही था वो मुख्य जिसके सरंक्षण में ये लीला चल रही थी! लेकिन भेरू कहाँ था, कुछ नहीं पता था और अब, अब मुझे खोजी लगाने थे उसके पीछे! और ये कम आसान नहीं था! ये तो मुझे भी पता चल गया था! खेचर चाहता तो मेरा सर एक झटके में ही मेरे धड से अलग कर सकता था! परन्तु उसने नहीं किया! क्यों? यही क्यों मुझे उलझाए था अब! इसी क्यों में ही छिपी थी असली कहानी!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा और हटा वहाँ से,
'जी, चलिए" वे बोले, वो भी उस समय से बाहर निकले!
हम चल पड़े वापिस!
वहीँ आ गए जहां क़य्यूम भाई और हरि साहब और शंकर टकटकी लगाए हमारी राह देख रहे थे!
"कुछ पता चला गुरु जी?" हरि साहब ने उत्कंठा से पूछा,
"हाँ, परन्तु मै स्वयं उलझा हुआ हूँ अभी तो!" मैंने हाथ धोते हुए कहा,
हाथ पोंछकर मै चारपाई पर बैठ गया, शंकर ने शर्मा जी के हाथ धुलवाने शुरू कर दिए,
"मामला क्या है?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और भयानक मामला है क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"ओह...." उनके मुंह से निकला,
"आपका अर्थ कि काम नहीं हो पायेगा?" हरि साहब ने पूछा,
'ऐसा मैंने नहीं कहा, अभी थोड़ा समय लगेगा" मैंने कहा,
"जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी" बड़े उदास मन से बोले हरि साहब!
"वैसे है क्या यहाँ?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"ये तो मुझे भी अभी तक ज्ञात नहीं!" मैंने बताया,
मेरे शब्द बे अटपटे से लगे उन्हें, या उनको मुझ से ऐसी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी!
"खेचर!" मैंने कहा,
"क..क्या?" कहते हुए हरी साहब उठ खड़े हुए!
"खेचर मिला मुझे यहाँ" मैंने कहा,
"हे ईश्वर!" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, मरी पत्नी को सपना आया था, इसी नाम का जिक्र किया था उसने!" हरि साहब ने बताया!
कहानी में एक पेंच और घुस गया!
"सपना?" मैंने पूछा, मुझे इस बारे में नहीं बताया गया था,
"जी गुरु जी" हरि साहब बोले,
"तब तो मुझे मिलना होगा आपकी धर्मपत्नी से हरि साहब" मैंने कहा,
"अवश्य" वे बोले,
मैंने घड़ी देखी, बारह चालीस हो चुके थे और अब मिलना संभव न था, अब मुलाक़ात कल ही हो सकती थी, सो मैंने उनको कल के लिए कह दिया और हम लोग फिर वहाँ से वापिस आ गए है साहब के घर!
खाना खा ही चुके थे, सो अब आराम करने के लिए मै और शर्मा जी लेटे हुए थे, तभी कुछ सवाल कौंधे मेरे मन में, मै उनका जोड़-तोड़ करता रहा, उधेड़बुन में लगा रहा! कभी कोई प्रश्न और कभी कोई प्रश्न!
मै करवटें बदल रहा था और तभी शर्मा जी बोले, "कहाँ खो गए गुरु जी?"
"कहीं नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा और उठ बैठा, वे भी उठ गए!
"शर्मा जी, खेचर ने कहा कि वे ग्यारह हैं वहां, और हमको मिले कितने, स्वयं खेचर, एक, दो वो औरतें, तीन और एक वो जिसने मुझे धक्का दिया था, चार, बाकी के सात कहा हैं?"
"हाँ, बाकी के सात नहीं आये अभी" वे बोले,
"और एक ये भेरू, खेचर का बड़ा भाई!" मैंने कहा,
"हाँ, इसी भेरू से सम्बंधित है यहाँ का सारा रहस्य!" वे बोले,
"हाँ, ये सही कहा आपने" मैंने भी समर्थन में सर हिलाया,
"खेचर ने कहा नदी के पास उसका स्थान है, अब यहाँ का भूगोल जानना बेहद ज़रूरी है, कौन सी नदी? पारवती नदी या उसकी कोई अन्य सहायक नदी?" मैंने कहा,
"हाँ, इस से मदद अवश्य ही मिलेगी!" वे बोले,
"अब ये तो हरि साहब ही बताएँगे" मैंने कहा,
"हाँ, कल पूछते हैं उन से" वे बोले,
"हाँ, पूछना ही पड़ेगा, वहाँ खेत पैर कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है" मैंने कहा,
"हाँ, मामला खतरनाक है वहाँ" वे बोले,
तभी वे उठे और गिलास में पानी भरा, मुझसे पूछा तो मैंने पानी लिया और पी लिया, नींद कहीं खो गयी थी, आज रात्रि मार्ग भटक गयी थी! हम बाट देखते रहे! लेट गए लेकिन फिर से सवालों का झुण्ड कीट-पतंगों के समान मस्तिष्क पर भनभनाता ही रहा! मध्य-रात्रि में नींद का आगमन हुआ, बड़ा उपकार हुआ! हम सो गए!
सुबह उठे तो छह बज रहे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, नहाए धोये और आ बैठे बिस्तर पे!
तभी हरि साहब आ गए, नमस्कार आदि हुई, साथ में नौकर चाय-नाश्ता भी ले आया! हमने चाय-नाश्ता करना शुरू किया! जब निबट लिए तो हाथ भी धो लिए!
"हरि साहब?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी?" वे चौंके!
''आपकी पत्नी कहाँ है?" मैंने पूछा,
"मंदिर गयी है, आने वाली ही होगी" वे बोले,
'अच्छा, आने दीजिये फिर" मैंने कहा,
अब कुछ देर चुप्पी हो गयी वहाँ!
"वैसे गुरु जी, कोई प्राण-संकट तो नहीं है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगा" मैंने कहा, कहना पड़ा ऐसा!
और कुछ देर बाद उनकी पत्नी आ गयीं पूजा करके, हरि साहब उठे और उनको बुलाने के लिए चले गए, ले आये साथ में कुछ ही देर में, नमस्कार हुई, उन्होंने हमे प्रसाद भी दिया, हमने माथे से लगा, खा लिया प्रसाद!
अब हरि साहब ने अपनी पत्नी से वो सपना बताने को कहा, उन्होंने बताया और मै चौंकता चला गया!
अब मैंने उनसे प्रश्न करने शुरू किये!
"आपने बताया, कि वो वहाँ ग्यारह हैं, ये आपको किसने बताया था?" मैंने पूछा,
"खेचर ने" वे बोलीं,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और आपने उस बाबा को देखा, जिसका वो स्थान है?" मैंने पूछा,
"हाँ, देखा था, बहुत डरावना है वो, गले में सांप लपेट कर रखा था उसने!" उन्होंने बताया,
"किसी ने कुछ कहा आपसे?" मैंने पूछा,
"हाँ एक औरत ने कहा था कुछ" वे बोलीं,
"क्या?" मैंने पूछा,
"पोते के लिए तरस जायेगी तू! ये बोली वो मुझसे!" ये बताया उन्होंने 
"अच्छा! उस औरत ने अपना कोई नाम बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसने अपना नाम भामा बताया था" वे बोलीं,
"ओह...भामा!" मैंने कहा,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"बाकी वही जो मैंने आपको बताया है" वे बोलीं,
"ठीक है, बस, जो मै जानना चाहता था जान लिया" मैंने कहा, वो उठीं और चली गयीं बाहर!
अब मै फंस गया इस जाल में!
बड़ी ही विकट स्थिति थी! समझ की समझ से भी परे के बात हो गयी थी ये तो! सर खुजा खुजा कर मै सारा ताना-बाना बुन रहा था! परन्तु प्रश्नों का तरकश कुछ ऐसा था कि उसमे से बाण समाप्त ही नहीं हो पा रहे थे! अक्षय तरकश बन गया था! तभी मैंने हरि साहब से पूछा, "हरि साहब, क्या आपके खेतों के पास कोई नदी है?" 
"हाँ, है, एक बरसाती नदी है, ये पार्वती नदी में मिलती है आगे जाकर" उन्होंने बताया, 
"क्या वहाँ तक जाया जा सकता है?" मैंने पूछा,
"कहाँ तक?" उन्होंने पूछा,
"जहां वो बरसाती नदी है" मैंने कहा,
"हाँ, जा सकते हैं, लेकिन आजकल पानी नहीं है उसमे" वे बोले,
"पानी का कोई काम नही है, मुझे केवल नदी देखनी है, आपके खेतों की तरफ वाली" मैंने कहा,
"कब चलना है?" उन्होंने पूछा,
"जब मर्जी चलिए, चाहें तो अभी चलिए" मैंने कहा,
"ठीक है, मै क़य्यूम को कहता हूँ" वे बोले और क़य्यूम को लिवाने चले गए, हम वहीँ बैठ गए!
और फिर थोड़ी देर बाद क़य्यूम भाई आ गए वहाँ, नमस्कार हुई तो वे बोले, "चलिए गुरु जी"
"चलिए" मैंने कहा,
अब हम निकल पड़े वहाँ से उस बरसाती नदी को देखने के लिए, कोई सुराग मिलेगा अवश्य ही, ऐसा न जाने क्यों मन में लग रहा था!
गाड़ी दौड़ पड़ी! मै खुश था! पथरीले रास्तों पर जैसे तैसे कुलांचें भरते हुए हम पहुँच ही गए वहाँ! बड़ा खूबसूरत दृश्य था वहाँ! बकरियां आदि और मवेशी चर रहे थे वहाँ! बड़ी बड़ी जंगली घास हवा के संग नृत्य कर रही थी बार बार एक ओर झुक कर! जंगली पक्षियों के स्वर गूँज रहे थे! होड़ सी लगी थी उनमे!
"ये है जी वो नदी" हरि साहब बोले,
मैंने आसपास देखा, चारों तरफ और मुझे वहाँ एक टूटा-फूटा सा ध्वस्त मंदिर दिखा, मै वहीँ चल पड़ा, जंगली वनस्पति ने खूब आसरा लिया था उसका! एक तरह से ढक सा गया था वो मंदिर, अब पता नहीं वो मंदिर ही था या को अन्य भग्नावशेष, ये उसके पास ही जाकर पता चल सकता था, मै उसी ओर चल पड़ा! सभी मेरे पीछे हो लिए! मै मंदिर तक पहुँच, अन्दर जाना नामुमकिन ही था! प्रवेश कहाँ से था कुछ पता नहीं चल रहा था, गुम्बद आदि टूटी हुई थी, खम्बे टूट कर शिलाखंड बन गए थे! स्थापत्य कला हिन्दू ही थी उसकी, निश्चित रूप से ये एक हिन्दू मंदिर ही था!
"कोई पुराना मंदिर लगता है" मैंने कहा,
"हाँ जी, हमतो बचपन से देखते आ रहे हैं इसको" हरि साहब ने कहा,
"कुछ जानते हैं इसके बारे में?" मैंने पूछा,
:नहीं गुरु जी, बस इतना कि ये मंदिर यहाँ पर बंजारों द्वारा बनवाया गया था, एस बाप-दादा से सुना हमने" वे बोले,
तभी मुझे मंदिर के एक कोने में बाहर की तरह एक मोटा सा सांप दिखाई दिया, ये धुप सेंक रहा था शायद! मै उसकी ओर चल पड़ा! सभी चल पड़े उस तरफ! सांप को देखकर हरि साहब और क़य्यूम ठिठक के खड़े हो गए! मै और शर्मा जी आगे बढ़ चले! ये एक धामन सांप था! बेहद सीधा होता है ये सांप! काटता नहीं है, स्वभाव से बेहद आलसी और सुस्त होता है! रंग पीला था इसका!
"ज़हरीला सांप है जी ये?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"जी हमको तो सभी सांप ज़हरीले ही लगते हैं!" वे बोले,
"ये नहीं है, काटता नहीं है, चाहो तो उठा लो इसको!" मैंने उस सांप के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा!
सांप जस का तस लेटा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने!
"ये नहीं काटता!" मैंने कहा,
"कमाल है गुरु जी!" वे बोले,
मै उठा गया वहाँ से! सहसा मंदिर की याद आ गई!
अब मैंने उसका चक्कर लगाया, उसको बारीकी से देखा! अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया!
मै अब हटा वहाँ से! और हरी साहब और क़य्यूम को वहाँ से हटाकर वापिस गाड़ी में बैठने के लिए कह दिया, मै यहाँ कलुष-मंत्र का प्रयोग करना चाहता था! वे चले गए!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!
दूर वहाँ खेचर खड़ा था! हंसता हुआ! मै उसको देखता रहा, वो आया उर फिर मंदिर की एक दीवार में समा गया!
अब समझ में आया! भेरू का स्थान! खेचर का स्थान!
यही मंदिर! यही है वो स्थान!
इसका अर्थ था कि ये था स्थान भेरू का! खेचर इसीलिए आया था यहाँ! उसने तो मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया था! अब सोचने वाली बात ये कि वो क्यों चाहता था कि मै यहाँ आऊं? भेरू के स्थान पर? जबकि वो चाहता तो मुझे अपने रास्ते से कब का हटा चुका होता! खेचर इसी मंदिर में समा गया था, यही स्थान था, हाँ यही स्थान!
"शर्मा जी?" मी कहा,
"जी?" वो आगे आते हुए बोले,
"आपने देखा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"यही स्थान है उस भेरू का?" मैंने ये भी पूछा,
"हाँ जी, यही लगता है" वे बोले,
"तो वो क्या चाहता है?" मैंने कहा,
"नहीं पता गुरु जी" वे बोले,
"सही कहा!" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया!
"शर्मा जी, एक बात तो है, ये खेचर कुछ कहना चाहता है" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"नदी का पता, ये मंदिर! है या नहीं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, ये तो है" वे बोले,
"अब हमारा काम पूर्ण हुआ यहाँ, चलो अब वापिस चलें, अब मै दिखाता हूँ इनको अपना माया-जाल!" मैंने कहा,
"माया-जाल?" वे विस्मित से होकर पूछ गए!
"हाँ! अब हमारी मुलाक़ात शीघ्र ही भेरू से होगी" मैंने कहा,
'अच्छा!" वे बोले,
"आप एक काम करो, हरि साहब से पूछो, यहाँ कोई शमशान है?" मैंने कहा,
"अभी पूछ लेता हूँ जी" वे बोले और वो चले गए, हरि साहब की ओर!
मै कुछ एर बाद पहुंचा वहाँ, उनकी बातें चल रही थीं!
"गुरु जी, ये कहते हैं कि दो शमशान हैं यहाँ पर, एक शहर के पास और एक इसी नदी के किनारे, आपको कौन सा चाहिए?" शर्मा जी ने पूछा,
"इसी नदी के किनारे वाला" मैंने कहा,
हरि साहब ने बता दिया, ये शमशान कोई चार किलोमीटर था वहाँ से!
'चलिए, एक नज़र मार लेते हैं" मैंने कहा,
और हम अब चल पड़े वहाँ से उसी शमशान की ओर!
वहाँ पहुंचे और मै वहाँ गाड़ी से उतरा! आसपास नज़र दौड़ाई, ये शमशान नहीं लगता था, कोई प्रबंध नहीं था वहाँ, हाँ वहाँ दो चिताएं अवश्य ही जल रही थीं!
मै उन चिताओं तक गया, ठंडी हो चुकीं राख को मैंने हाथ जोड़कर उठाया और एक पन्नी में भर लिया, पन्नी वहाँ बिखरी पड़ी थीं!
"चलिए, अब सीधे खेतों की तरफ चलें!" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब बोले,
और हम चल दिए अब खेतों की तरफ!
मै सीधे ही खेतों पर पहुंचा, वहाँ अलग अलग स्थान पर पांच जगह मैंने वो भस्म ज़मीन में गाड़ दी, ये स्थान-कीलन था! जो अब ज़रूरी भी था! 
"शर्मा जी, आप इस बाल्टी पानी मंगवाइये" मैंने कहा,
"अभी लीजिये" उन्होंने कहा,
उन्होंने हरि साहब को, हरि साहब ने शंकर से कहा और शंकर वो बाल्टी ले आया! मैंने उसी स्थान पर, जहां पानी नहीं रुकता था, एक बाल्टी पानी डाला, और कमाल हुआ, स्थान-कीलन चक्रिका ने वहाँ का भेदन-चक्र पूर्ण किया और मिट्टी गीली हो गयी! पानी ठहर गया! ये देख सभी की आँखें चौड़ी हो गयीं!
"अब चलो यहाँ से" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब ने कहा,

तभी मेरी नज़र एक जगह पड़ी, वहाँ दोनों औरतें खड़ी थीं! अपना सर हाथों में लिए!
मै उनकी ओर चल पड़ा, शर्मा जी चलने लगे तो मैंने उनको रोक दिया, मै अकेला ही जाना चाहता था वहां, मैंने हाथ के इशारे से उनको रोक दिया और फिर वापिस शंकर के यहाँ भेज दिया, मै अब उन औरतों की तरफ बढ़ने लगा, वे दोनों औरतें मुड़ीं और आगे चलने लगीं, जैसे मुझे ही लेने आई हों! वो आगे चलती रहीं और मै उनके पीछे! मुझे जैसे सम्मोहन पाश में जकड़ लिया था उन्होंने, सच कह रहा हूँ, उस समय मै सारी सुध-बुध खो बैठा था! बस उनके पीछे पीछे पागल सा चले जा रहा था, और फिर वो कुआँ आया, कुँए में से जैसे पानी बाहर आ रहा था, बहता पानी मेरे जूतों से टकरा रहा था, मै जैसे किसी और की लोक में विचरण करने लगा था, प्रेतलोक में जैसे! कुआँ भी पार कर लिया और फॉर मैंने ज़मीन पर तड़पती हुई मछलियाँ देखीं! जैसे उनको पानी से निकाल कर बाहर छोड़ दिया गया हो! वो मुड-मुड कर उछल रही थीं, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ! सभी बड़ी बड़ी! मै एकटक उनको देखता रहा! धप्प-धप्प की आवाज़ आ रही थी उन मछलियों की, जब वो नीचे गिरती थीं! बड़ा ही अजीब सा दृश्य था!
वे औरतें और आगे चलीं, ये उन खेतों का निर्जन स्थान था, वहाँ बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, तभी वे एक बड़े से पत्थर के पीछे जाकर गायब हो गयीं, मै वहाँ उस पत्थर के सामने गया, और क्या देखा!! जो देखा अत्यंत भयानक था! वहाँ ७ सर पड़े थे, कटे हुए, धड भी थे उनके, पेट फटे हुए थे और सर उन आतों में उलझे हुए थे! मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उनकी भिनभिनाहट बहुत तीव्र और भयानक थीं, कुछ अन्य कीड़े भी लगे थे वहाँ! एक दूसरे पर चढ़े हुए! चार सर औरतों के थे और तीन सर पुरुषों के! सभी जीवित! एक एक करके सभी मेरा नाम पुकारे जा रहे थे! मै जैसे जड़ता से बाहर निकला! तभी एक औरत का धड़ खड़ा हुआ, जैसे नींद से जागा हो! सभी कटे सर चुप हो गए, केवल एक के अलावा, वो सर उसी धड़ का था!
"कौन है तू?" उस सर ने कहा,
मैंने अपना नाम बता दिया!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
मै चुप रहा!
''जल्दी बता!" उसने धमका के पूछा,
मैंने कारण बता दिया!
तभी सभी कटे सर अट्टहास कर उठे! और एक एक करके खड़े हो गए! चौकड़ी मार के बैठ गए, अपने हाथों से आंते हटायीं उन्होंने अपने अपने सर पर उलझी हुई! मेड की पिचकारियाँ छूट पड़ीं आँतों से, कुछ मेरे जूते से भी टकराई, मक्खियों का झुण्ड भाग उठा एक पल को!
"चल! भाग जा यहाँ से!' एक पुरुष के सर ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
"नहीं मानेगा?" उसने धमकाया मुझे!
"नहीं!" मैंने कहा,
"सोच ले, दुबारा नहीं कहूँगा!" उसने चुटकी मार के कहा,
नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"ठीक है, तो अब देख!" उसने कहा,
तभी धूल का गुबार उठा और मेरे चेहरे से टकराया! धूल से सन गया मै! मैंने आँखें खोलीं, सब गायब! सब गायब! वहाँ केवल बड़े बड़े विषधर! फुफकारते विषधर! तभी वे आगे बढे और मुझे घेरे में डाल लिया, ले लिए! मेरी पिंडलियों पर उनकी फुफकार पड़ने लगी! गर्म और विष भरी!
अब मैंने ताम-मंत्र का जाप किया! और नीचे झुक कर मिटटी उठायी और अभिमंत्रित कर उन सर्पों पर बिखेर दी! वे एक क्षण में श्वेत हुए और धुंध के सामान लोप! मायापाश था वो! वहाँ अब कोई कीड़ा नहीं, ना ही कोई मक्खी! सब लोप हो गया!
मैंने सामने देखा, सामने वही दोनों औरतें खड़ी थीं! मै दौड़ पड़ा उनकी तरफ! मै आ गया उनके पास! अब पहली बार उनके चेहरे पर शांत भाव आये और होठों पर मुस्कराहट!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"भामा!" एक ने कहा,
"शामा" दूसरी ने कहा,
भामा और शामा!
"बहनें हो?" मैंने पूछा,
मैंने ऐसा इसलिए पूछा क्योंकि दोनों की शक्लें हू-ब-हू एक जैसी ही थीं!
"हाँ!" दोनों ने कहा,
अब कुछ बात बनी थी! वे बातचात करने को तैयार लगीं!
"तुम क्यों आती हो यहाँ?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा आने वाला है" भामा बोली,
"आने वाला है?" मैंने आश्चर्य से कहा,
"हाँ, आने वाला है" वो बोली,
"कौन है ये भेरू बाबा?" मैंने पूछा,
"हमारा मरद" उसने कहा,
"मरद( मर्द)?" मैंने विस्मित हो कर कहा,
"हाँ" वो बोली,
'तो तुम्हे किसने बलि चढ़ाया?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा ने" वो बोली,
"भेरू बाबा ने बलि चढ़ाया? किसलिए?" मैंने पूछा,
"अपने गुरु के लिए" वो बोली,
"कौन गुरु?" मैंने पूछा,
"नौमना बाबा" उसने बताया,
नौमना बाबा! नौ मन वाला बाबा! भार की एक देसी इकाई है मन, अर्थात चालीस किलो, नौ से गुणा करो तो तीन सौ साठ किलो! इतना भारी-भरकम बाबा! नौमना बाबा! कैसा होगा वो बाबा! विकराल स्वरुप! साक्षात यमपाल! बड़ी हैरत हुई मुझे!
"किसलिए चढ़ाया बलि?" मैंने पूछा,
"बाबा को प्रसन्न करने के लिए" अब शामा बोली,
"और तुम राजी थीं?" मैंने पूछा,
"प्रसन्नता से" वे बोलीं,
"अच्छा! तो नौमना बाबा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" वो बोली,
"और कहाँ है वास?" मैंने पूछा,
"नदी के पार" वे बोलीं, इशारा करके!
"वो मंदिर?" मैंने पूछा,
"नहीं, मंदिर के पास हमारा वास है, भेरू बाबा का वास" वे बोलीं,
उलझी हुई पहेली! मै भेरू को अंतिम लक्ष्य मान रहा था, लेकिन असल किरदार तो नदी के पार था! नौमना बाबा!
"भेरू कहाँ है, तुमने बताया कि आने वाला है?" मैंने पूछा,
"नौमना बाबा के पास!" वो बोली,
"क्या करने?" मैंने पूछा,
"पूजा, पंचम-पूजा!" वो मुस्कुरा के बोली,
पंचम-पूजा! प्रबल तामसिक पूजा! महातामसिक कहना उचित होगा! इक्यावन बलियां! नौमना सच में ही सिद्ध होगा! अवश्य ही!
"कोठरा पूज लिया?(एक तामसिक पूजन एवं भाषा)" मैंने पूछा,
"तीज पर पूजा था" उसने कहा,
मैंने हिसाब लगाया, आश्विन की तीज गए नौ दिन बीते थे!
"अब क्या करेगा ये नौमना बाबा?'' मैंने पूछा,
"धाड़ प्रज्ज्वलित करेगा!" उसने बताया,
धाड़! अर्थात वर्ष भर के लिए शक्ति-संचार! कमाल की बात थी! आज धाड़ प्रज्ज्वलित नहीं की जाती, मैंने हिसाब पुनः लगाया, उनके हिसाब से वे चार सौ वर्ष पहले जीवित थे! भेरू, खेचर, शामा, भामा और वो नौमना!
"अच्छा! मुझे उस जगह बाग़ में किसने धक्का दिया था?" मैंने पूछा,
"किरली ने" वो बोली,
"कौन किरली?" मैंने पूछा,
"खेचर की औरत" उसने बताया,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"उसका मंदिर है वहाँ" उसने बताया,
ओह! ये थी वजह! मै समझ गया!
इस से पहले मै कुछ और पूछता, वो झप्प से लोप हो गयीं!
मै लौटा वहाँ से, अब एक और स्थान पर जाना था! नौमना बाबा के स्थान पर!
मै तैयार था!
मै वापिस आया, सीधे शर्मा जी और हरि साहब के पास, शर्मा जी वहाँ से उठ कर मुझे देख आगे आये, मैंने कहा, "इनसे बोलिए कि हमको आज फिर उसी स्थान पर जाना है जहां आज गए थे, पुराने मंदिर के पास, अब कि बार नदी पार करनी है" 
"अभी कह देता हूँ" वे बोले,
और फिर शर्मा जी ने सारी बात उनको बता दी, वे तैयार हो गए और हम सब गाड़ी में बैठ, चल पड़े वहां से, नौमना बाबा का स्थान देखने!
"कोई सुराग हाथ लगा है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ, ये सुराग ही है" मैंने कहा,
गाड़ी सर्राटे से भागी जा रही थी नदी की तरफ!
"क्या मसला है गुरु जी?" हरि साहब बे पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और खतरनाक मसला है हरी साहब, सही वक़्त पर मै आ गया, नहीं तो यहाँ कोई अनहोनी हो जाती" मैंने कहा,
"अरे बाप रे" उनके मुंह से निकला,
"सही वक़्त पर आ गया मै" मैंने कहा,
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी, ऐसे ही सर पर हाथ रखे रहें" वे बोले,
"अभी कहानी आरम्भ हुई है, अंत कहाँ है ये मुझे अब भी नहीं पता हरी साहब" मैंने कहा,
"अब आप है यहाँ, अब कोई चिंता नहीं" हरी साहब हाथ जोड़ कर बोले,
मै चुप रहा, कुछ नहीं बोला,
हमको नदी के पार जाना था, अतः एक नया ही रास्ता लिया गया था, और किसी तरह करके हम वहाँ पहुँच गए, पथरीले रास्ते पर गाड़ी भागने लगी, भागने क्या, हिचकोले खाती हुई अपनी मजबूती का इम्तिहान देने लगी थी!
और हम वहाँ पहुँच गए जहां जाना था, यहाँ खंडहर थे, काफी विशाल क्षेत्र था, निर्जन, किसी समय में जगमग रहने वाला आज निर्जन पड़ा था, शहर से दूर, परित्यक्त, अब वहाँ इंसानों का बसेरा नहीं, कीड़े-मकौडों और साँपों आदि का स्वर्ग था ये अब! मैंने वो खंडहर देखे अपने किसी समय में भव्य होने के प्रमाण शेष बचे भग्नावशेषों से पता चल रहा था! मै आगे बढ़ा और अपने साथ शर्मा जी को लिया, बाकी उन दोनों को गाड़ी में ही बैठने को कह दिया, वे गाड़ी में बैठ गए!
"आइये" मैंने शर्मा जी से कहा,
"जी चलिए" वे बोले,
हम दोनों आगे बढ़ चले,
"तो ये है नौमना बाबा का स्थान!" मैंने कहा,
मै आगे चला, 
आगे दो काले सर्प-युगल प्रणय में सलिंप्त थे, मैंने हाथ जोड़े और अपना मार्ग बदल लिया, वे प्रणय में ही व्यस्त रहे, मै अपने दूसरे मार्ग पर प्रशस्त हो गया, आगे चलता रहा, शर्मा जी को हाथ के इशारे से आगे बुलाया, वे आगे आ गए,
"यहाँ कुछ अजीब दिख रहा है?" मैंने पूछा,
"क्या अजीब?" उन्होंने आसपास देख कर कहा,
"यहाँ ये जो खंडहर हैं छोटे छोटे, ये आठ हैं, एक दूसरे से कराब पचास-पचास मीटर दूर, और हम अब मध्य भाग में हैं, सभी की दूरी यहाँ से लगभग समान है!" मैंने कहा,
"अरे हाँ!" वे बोले,
तभी मैंने शर्मा जी का कन्धा पकड़ते हुए एक तरफ खींच लिया, वहाँ से एक गोह गुजर रही थी, मुंह में एक पक्षी को लिए हुए!
"गोह" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"हाँ, तो देखा ये स्थान?" मैंने अपनी बात वहीँ से आरम्भ की जहां छोड़ी थी!
"हाँ, लेकिन अजीब नहीं है इसमें कुछ?" वे बोले,
"अब देखो, अज से चार सौ वर्ष पहले ये बरसाती नदी भी यही होगी, या कहीं आसपास बहती होगी, उसमे बढ़ भी आती होगी, तो बाढ़ आने के खतरे से बचने के लिए यहाँ ये भवन निर्माण कैसे किया होगा?" मैंने पूछा,
"हां" वे बोले,
"तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम किसी या तो उस समय की पहाड़ी या किसी ऊंचे टीले पर खड़े हैं आज वर्तमान में" मैंने बताया,
"हाँ, संभव है" वे बोले,
अभी मै बात आगे बढाता कि मुझे वहाँ किसी की पदचाप सुनाई दी, तेज तेज क़दमों से कोई चहलकदमी कर रहा था! लेकिन दिख नहीं रहा था, मैंने तभी कलुष मंत्र का संधान कर अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! आँखें खोलीं तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया! मैंने आगे पीछे देखा, कोई नहीं था, तभी शर्मा जी ने कुछ देखा और चुटकी मार कर मेरा ध्यान उस तरफ किया! मैंने वहीँ देखा, ये सीढियां थीं, और उस पर बीच में से चिरी एक औरत थी, वो कलेजे तक चिरी हुई थी, अङ्ग बाहर निकल कर झूल रहे थे, उसका आधा हिस्सा आगे और आधा हिस्सा पीछे ढुलक रहा था! उसके हाथ में एक थाल सा कोई बर्तन था, 
"भाग जाओ!" एक आवाज़ आई!
मैंने चारों तरफ से देखा, कोई नहीं था वहाँ, बस वही चिरी हुई औरत थी जो सीढ़ियों पर खड़ी थी! और वो बोल नहीं सकती थी!
"कौन है?" मैंने चिल्ला के पूछा,
"भाग जाओ यहाँ से" फिर आवाज़ आई,
"कौन है, सामने आओ?" मैंने भी चिल्ला के कहा,
तभी उस औरत ने थाल मेरी तरफ फेंका, थाल में सूखी हुई अस्थियाँ, और मछलियाँ पड़ी थीं!
"भाग जाओ!" फिर से आवाज़ आई!
लेकिन वहाँ कोई नहीं था, कोई नहीं आया!
वहाँ केवल हम तीन ही थे!
रहस्य के गुरुत्वाकर्षण से मेरे पाँव जैसे भूमि में समा गए थे!
"चले जाओ" फिर से आवाज़ आई,
"जो भी है, सामने आये" मैंने कहा,
कुछ पल शांति!
"चले जाओ" फिर से आवाज़ आई, इस बार आवाज़ पीछे से आई थी, हम दोनों ने फ़ौरन ही पीछे मुड़कर देखा, वहाँ कोई नहीं था, एक जंगली पेड़ था वहाँ और कुछ बड़े बड़े पत्थर, और कुछ भी नहीं, और कुछ था भी तो कलुष-मंत्र की जद में नहीं था वो!
अब मैंने सामने देखा, चिरे हुए सर वाली औरत भी गायब थी और वो थाल और सूखी हुई अस्थियाँ और मछलियाँ भी!
"यहाँ एक गंभीर खेल खेला जा रहा है शर्मा जी!" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी" उन्होंने कहा,
"कोई हमे यहाँ से भगा देना चाहता है, लेकिन मै नहीं हटने वाला!" मैंने कहा,
"कौन है यहाँ?" अब शर्मा जी ने आवाज़ लगाई,
मैंने आसपास एख, कोई नहीं था वहाँ!
सहसा, हवा में से एक पाँव गिरा, एक कटा हुआ पाँव, पाँव में पायजेब थी, अतः ये पाँव किसी स्त्री का था, घुटने से नीचे तक कटा हुआ! बिलकुल मेरे सामने! मै और शर्मा जी पीछे हट गए!
तभी एक और पाँव गिरा, ये दूसरा पाँव था, उसी स्त्री का, पायजेब पहले, दोनों पाँव एक दूसरे से साथ सट गए थे!
"भाग जाओ यहाँ से!" अबकी बार एक औरत का स्वर सुनाई दिया!
"मै नहीं जाऊँगा, मै नहीं डरता, सामने आओ मेरे, सम्मुख बात करो मुझसे!" मैंने अब ज़िद में आकर कहा,
दोनों कटे पाँव गायब हुए उसी क्षण और मेरे समाख एक नग्न स्त्री प्रकट हो गयी, उसके शरीर पैर न कोई आभूषण था, नो कोई रक्त के निशान बस उसकी छाती पर ऊपर गले से नीचे एक गोदना था, ये गोदना ऐसा था जैसे किसी का परिचय लिखा गया हो, वो स्त्री बहुत सुंदर और शांत थी, मुझे भी भय नहीं लगा उस से! ना जाने क्यों!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"भाभरा" उसने मंद स्वर में कहा,
"कौन भाभरा?" मैंने पूछा,
"खेचरी" उसने कहा,
अब मै समझ गया, खेचर की औरत! उसकी पत्नी!
मैंने उसको ऊपर से नीचे तक देखा!
लम्बा-चौड़ा बदन, बलिष्ठ एवं गौर-वर्ण, अत्यंत रूपवान! उसकी भुजाएं मेरी भुजाओं से भी अधिक मोटी और बलशाली थीं!
"जाओ, चले जाओ यहाँ से" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा आने वाला है" उसने बताया,
"तो?" मैंने पूछा,
"वो काट देगा तुमको" वो बोली,
"क्यों काटेगा?" मैंने पूछा,
"उसको अन्य कोई सहन नहीं यहाँ, उसके स्थान पर" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"मुझे जानती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कौन हूँ मै?" मैंने पूछा,
उसने मेरे सब आगा-पीछा बता दिया!
"मै कहीं नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"व्यर्थ में हलाक़ कर दिए जाओगे" वो बोली,
"देखते हैं" मैंने कहा,
"मान जाओ, चले जाओ" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने में आँखों में देखा, जैसे कोई दया का भाव हो उसकी आँखों में, मै जान रहा था परन्तु मै जानना नहीं चाहता था! मुझे भेरू से मिलना था!
मेरे देखते ही देखते भाभरा लोप हो गयी!
"भाभरा!" मैंने कहा,
अब मै आगे बढ़ा, उन्ही सीढ़ियों पर, सीढ़ी पर जैसे ही आया मुझे चावल उबलने की गंध आई, बेहद तेज, जैसे बड़ी मात्र में चावल उबाले जा रहे हों!
मै आगे बढ़ गया!
लगता था जैसे किसी विशेष आयोजन हेतु चावल उबाले जा रहे हों! किसी महाभोज की तैय्यारियाँ चल रही हों! ये गंध मुझे ही नहीं, शर्मा जी को भी आई थी, तीक्ष्ण गंध थी बहुत! नथुनों के पार होते हुए अन्तःग्रीवा पर अपना स्वाद छोड़ते हुए! मै उन सीढ़ियों से ऊपर की तरफ चला, ये एक बड़ा सा शिलाखंड था, जो अब टूटा हुआ पड़ा था, तभी मुझे वहाँ किसी के खिलखिलाने की आवाजें आयीं! जैसे कई बालक किसी के पीछे शोर मचाते हुए घूम रहे हों और वो उनको समझा रहा हो! जैसे बालकों ने उसको उपहास का पात्र मान लिया हो! फिर अचानक से आवाज़ बंद हो गयी! वहाँ फिर से सन्नाटे की जो काई फटी थी, फिर से एक हो गयी! मै उस शिलाखंड से नीचे उतरा, और मेरे सामने खड़ा था खेचर!
मै ठिठक के खड़ा हो गया!
"अब जा यहाँ से" खेचर ने कहा,
"क्यों खेचर?" मैंने पूछा,
"बस, बहुत हुआ" वो गुस्से में बोला,
"क्यों? तू ही तो लाया था मुझे यहाँ?" मैंने कहा,
"नहीं, अब जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं तो?" मैंने पूछा,
"जान से जाएगा" वो बोला,
"भेरू मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
"फूंक देगा तुझे" वो बोला,
"आने दो उसको फिर!" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा?" उसने अब धमकाया मुझे!
"नहीं" मैंने कहा,
"तेरे भले के लिए कह रहा हूँ" उसने कहा,
"कोई आवश्यकता ही नहीं" मैंने कहा,
खेचर लोप हुआ! और मै अब सन्न! सन्न इसलिए की न जाने अब क्या हो आगे? कौन आये? भेरू अथवा नौमना बाबा!
मैंने अब त्वरित निर्णय लिया, गुरु-वन्दना कर मैंने महा-वपुरूप मंत्र का जाप किया! और फिर उस से अपने को और शर्मा भी को सशक्त किया! शक्ति-संचार हुआ, रोम-रोम खड़ा हो गया! और हम अब एक अभेद्य-ढाल में सुरक्षित हो गए!
मै वहाँ से आगे आया, कुछ दूर गया, तभी मेरे कंधे पर जैसे किसी ने हाथ रखा, ये वही औरत थी, भाभरा! उसने हाथ नहीं रखा था, बल्कि अपने केशों का बंधा हुआ चुटीला टकराया था मुझसे! उसने अपना हाथ आगे उठाया और बढाते हुए मेरी ओर किया, मैंने अपना हाथ आगे बाधा दिया और उसने अपने हाथ से मेरे हाथ में कुछ दे दिया, मैंने खोल का देखा, ये एक गंडा था, सोने से बना हुआ, काले रंग के धागे से गुंथा हुआ, मैंने सामने देखा, भाभरा नहीं थी वहाँ! वो जा चुकी थी!
हाँ वो गंडा है आज तक मेरे पास, मै आपको उसकी तस्वीर दिखाता हूँ--




ये है वो तस्वीर, उस गंडे की, ये उसकी कलाई में बांधे जाने वाला गंडा है, जो अब मेरे गले में आता है, ऐसा था उसका डील-डौल! भाभरा सच में एक दयालु प्रेतात्मा थी, मै आज भी उसका सम्मान करता हूँ, उसने वो गंडा मेरी रक्षा हेतु दिया था, या यूँ कहिये कि उस गंडे ने मेरे मनोबल स्थिर रखा था! मुझे अभी भेरू बाबा और नौमना बाबा से भी मिलना था, अतः ये गंडा मेरे लिए किसी संजीवनी से कमतर नहीं था!
मैंने वो गंदा अपनी जेब में रखा और वहाँ से निकलने लगा, अब मुझे आवश्यक तैयारिया करनी थीं! समय आ पहुंचा था एक दूसरे को आंकने का! तोलने का! अतः मै और शर्मा जी वहाँ से फ़ौरन ही निकले, गाड़ी में बैठे और फिर हरि साहब के घर की ओर चल दिए!

हम घर पहुंचे, मई सीधे ही स्नान करने चला गया, और फिर शर्मा जी भी स्नान करने चे अगये, वे आये और मैंने फिर अपना बैग खोला, बैग में से अब सभी आवश्यक वस्तुएं बाहर निकालीं, और एक छोटे बैग में भर दीं, आज संध्या-समय इनमे शक्ति जागृत करनी थी, ये परम आवश्यक ही थी, ये ऐसे ही है किस जैसे किसी बन्दूक या राइफल को साफ़ करना!
अब हरि साहब से मैंने अधिक बातें नहीं कीं, उन्होंने भोजन के बारे में पूछा तो हमने हामी भरी और भोजन लगवा दिया गया, किसी प्रकार से भोजन हलक के नीचे उतारा और फिर हम विश्राम करने चले गये! दरवाज़ा भेड़ दिया था, और मै अब लेट गया, शर्मा जी कुर्सी पर बैठे आज का अखबार खंगालने लगे! अखबार अब एक ओर रख उन्होंने और मुझसे पूछा, "गुरु जी?"
"बोलो?" मैंने कहा,
"सोये तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं तो" मैंने कहा,
"मुझे कुछ समझाइये" वे बोले,
"पूछिए" मैंने कहा,
"भामा और शामा, ये पत्नियां हैं भेरू की" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो भेरू ने उनको बलि चढ़ाया बाबा नौमना के लिए" वे बोलते गए,
"हाँ" मैंने कहा,
"किस कारण से?" उन्होंने पूछा,
"स्पष्ट है, बाबा नौमना को प्रसन्न करने के लिए!" मैंने बताया,
"प्रसन्न किसलिए?" उन्होंने पूछा,
'शक्ति प्राप्त कने हेतु" मैंने कहा,
"अच्छा, तो भामा और शामा ही क्यूँ?" उन्होंने पूछा,
"अर्थात?" मै अब उठ खड़ा हुआ!
"कोई और भी हो सकता था उनके स्थान पर?" उन्होंने शंका का डंका बजा दिया!
"हाँ, हो सकता है ऐसा. परन्तु उन्होंने स्वयं बताया था कि नौमना बाबा को प्रसन्न करने के लिए" मैंने कहा,
"अच्छा, तो फिर ये खेचर? और उसकी पत्नी भाभरा?" उन्होंने पूछा,
"ह्म्म्म! ये तो बलि नहीं चढ़े!" मैंने कहा,
"इनका क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, ये तो नहीं पता चला अभी" मैंने कहा,
"जहां तक ये सवाल है,वहाँ तक उसका जवाब भी उलझा हुआ है गुरु जी" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"देखा जाए तो खेचर और भाभरा ने अभी तक हमारी मदद ही कि है, वो गंडा भी भाभरा ने आपको दे दिया, है या नहीं?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, निःसंदेह!" मैंने कहा,
"ये मदद किसलिए?" उन्होंने पूछा,
"शायद मुक्ति के लिए?" मैंने पूछा,
"हाँ, संभव है ये, लेकिन मैंने सोचा, किसी प्रतिकार के लिए" वे बोल गए,
मुझे जैसे विद्युत् का झटका लगा!
"प्रतिकार? कैसा प्रतिकार?" मैंने पूछा,
"मदद? कैसी मदद?" वे बोले,
धम्म! जैसे में मुंह के बल गिरा ज़मीन पर!
बात में दम था! अवश्य ही ये भी एक गूढ़ रहस्य ही था! मदद! कैसी मदद??
"आपको क्या लगता है?" मैंने पूछा,
"अभी कुछ और परतें शेष हैं" वे बोले,
"यक़ीनन!" मैंने कहा,
और सच में, अभी भी कई परतें थीं वहाँ खोलने के लिए!

सच कहा था शर्मा जी ने, परतें तो बहुत थीं इस मामले में! और न जाने कितने परतें बाकी थीं खुलने में!
"चलिए शर्मा जी, अब ये भी जानते हैं की भेरू बाबा कब आ रहा है!" मैंने कहा,
"ये कौन बताएगा?" उन्होंने पूछा,
"खेचर या भामा और शामा, कोई भी इन में से!" मैंने कहा,
"अर्थात आज रात फिर से खेत पर जाना होगा" वे बोले,
"हाँ, जाना तो होगा ही" मैंने कहा,
"ठीक है, अब इस कहानी का रहस्योद्घाटन कर दीजिये गुरु जी!" वे बोले,
"आज यही प्रयास करूँगा" मैंने कहा,
उसके बाद हम लेट गए, थकावट हो चली थी सो थोड़ी देर के विश्राम के लिए आँखें बंद कीं और फिर कुछ ही देर में सो गए हम!
जब नींद टूटी तो शाम के छह बजे थे, नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया था, वो चाय ले आया था, साथ में हरि साहब भी थे, नौकर ने चाय टेबल पर रखी और हमने एक एक कप उठा लिया, चुस्की लेते हुए, नींद की खुमारी तोड़ते रहे!
अब शर्मा जी ने हरि साहब से कह दिया की क़य्यूम भाई से कह दीजिये की रात में खेतों पर जाना है हमको, आज एक क्रिया भी करनी है वहाँ, सो सामान भी मंगवाना है कुछ, शर्मा जी ने सामान लिखवा दिया, इसमें मांस, शराब आदि सामग्रियां थीं, आज मुझे वहाँ क्रिया करनी पड़ सकती थीं, आज भेरू को जगाना था!
और इस तरह से रात दस बजे का वक़्त मुक़र्रर हो गया! हरि साहब वो परचा लेकर बाहर चले गए और मै और शर्मा जी टहलने के लिए अपने अपने जूते पहन, बाहर निकल गए!
हम करीब आधे-पौने घंटे टहले होंगे तभी फ़ोन आया हरि साहब का, शर्मा जी ने फ़ोन उठाया, शर्मा जी को हरि साहब ने बताया कि वे लोग घर आ चुके हैं और अब हम भी वहाँ पहुँच जाएँ, हम अब वापिस हो लिए थे, घर आये तो सामान का प्रबंध हो गया था!
अब मुझे अपनी सामग्री और सामान व्यवस्थित करना था, मैंने अपना त्रिशूल और कपाल-कटोरा उसी छोटे बैग में रख लिया, और कुछ और भी तांत्रिक-वस्तुएं थीं जो मैंने रख ली थीं!
धीरे धीरे घंटे गुजरे आयर बजे दस! सब वहीँ बैठे थे सो हम एक दम से उठे और सीधा गाड़ी में जा बैठे, गाड़ी दौड़ पड़ी खेतों की तरफ!
हम खेत पहुँच गए, मैंने सामान उठाया और शनकर के कोठरे पर सामान रख दिया, वहाँ से एक बड़ी टोर्च ली और मै वहाँ से उन सभी को बिठा कर शर्मा जी को साथ लेकर एक अलग ही स्थान पर चला गया, हाँ बुहारी ले ली थी मैंने शंकर से, मैंने एक पेड़ के नीचे एक जगह बुहारी लगाई, जगह साफ़ की, और फिर अपना बैग रख दिया, एक एक करके मैंने सारा सामान वहाँ रख दिया तरतीब से! अपने शरीर पर भस्म मली, शर्मा जी के माथे और छाती पर भस्म-लेप लगा दिया! ये प्रश्न-क्रिया थी, अतः मैंने शर्मा जी को अपने साथ बिठा लिया था!
अब मैंने अलखदान निकाला, और उसको अपने सामने रख दिया, उसमे सामग्री डाली और फिर अग्नि उसके मुख पर विराजमान कर दी! अलख-घोष किया और अलख चटाख-पटाख की आवाज़ के साथ जोर पकडती चली गयी! एक थाल में मांस और मदिरा रख ली, कुछ गैंदे के फूल भी रख दिए वहाँ और अब दो कपाल-कटोरे निकाले! एक शर्मा जी को दिया और एक मैंने स्वयं लिया, उनमे मदिरा परोसी और सबसे पहले अलखभोग दिया! एक अट्टहास किया! त्रिशूल बाएं भूमि में गाड़ दिया और औघड़-कलाप आरम्भ हो गया वहाँ! कपाल-कटोरे से मै और शर्मा जी मदिरा के घूँट हलक से नीचे उतारते चले गए! साथ ही साथ कलेजी के कच्चे टुकड़े चबाते चले गए!



मैंने अब कलुष-मंत्र का संधान किया और अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! दृश्य स्पष्ट हुआ सामने का! मैंने कलेजी का एक टुकड़ा निकाला और कछ खाया, और फिर हाथ में निकाल लिया, एक मंत्र पढ़ते हुए पुनः लील गया उसको! इस से वो मंत्र मेरे अन्दर समाहित हो गया! मेरे शरीर और मस्तिष्क में एकाग्रचित होने का भाव उत्पन्न हो गया! अन मात्र लक्ष्य और केवल लक्ष्य!
मै औघड़ी मुद्रा में खड़ा हुआ! त्रिशूल लिया और भेरू बाबा का आह्वान किया!
"आओ भेरू!" मैंने कहा,
नृत्य-मुद्रा में आया!
"आओ भेरू!" मैंने फिर से कहा,
कोई नहीं आया!
"आ भेरू?" मैं गर्राया!
कोई नही आया!
अभी मै उसको पुकारता कि वहाँ एक औघड़ सा प्रकट हुआ, गले में नेत्र-बिम्बों की माला पहने! बिम्ब-माल! बंगाल का अभेद्य तंत्र! कामरूप का सुदर्शन!
"कौन है तू?" वो दहाड़ा!
"जा! भेरू को बुला!" मैंने कहा,
"उत्तर दे, कौन है तू?" उसने कहा,
"जा, भेज उसे!" मै भी गरजा!
"क्यों मरने चला आया है यहाँ?" उसने हाथ के इशारे से कहा, उसके हाथ से कुछ रक्त की बूँदें छिटक कर मेरी ओर आई, मेरे मुख पर पड़ीं!
"सुन! जा, भेज भेरू को!" मैंने कहा,
उसने मुझे अपशब्द कहे! मै यही चाहता था, उसको भड़काना! वो भड़क गया था!
"तू जानता है मै कौन हूँ?" उसने छाती पर हाथ मारते हुए कहा,
"मै नहीं जानना चाहता, जा भेज अपने बाप भेरू को!" मैंने कहा,
"खामोश!" वो चिल्लाया!
"जा, अब निकल यहाँ से, बुला भेरू को!" मैंने कहा, धिक्कारा उसे!
"बस! बहुत हुआ! तूने शाकुण्ड को ललकारा है! टुकड़े कर दूंगा तेरे!" उसने कहा,
शाकुण्ड! तो ये शाकुण्ड औघड़ है!
तभी मेरे चारों ओर अग्नि-चक्रिका प्रकट हुई, उसका बंध धीरे धीरे कम होता जा रहा था, मैंने फ़ौरन ही ताम-मंत्र का जाप कर उसको जागृत किया, अग्नि-चक्रिका मुझे छोटे ही लोप हो गयी! ये देख शाकुण्ड की भृकुटियाँ तन गयीं! जैसे किसी दुर्दांत क्रोधित सर्प ने किसी पर वार किया हो और वार खाली चला जाए!
अब मैंने अट्टहास लगाया!
शाकुण्ड ने मायाधारी, सर्प, कीड़े-मकौड़े और न जाने क्या क्या बनैले जीव-जंतु प्रकट किये, लेकिन ताम-मंत्र ने सबका नाश कर दिया!
शाकुण्ड आगे आया!
"कौन है तू?" उसने अब धीमे स्वर में पूछा,
मैंने उसको अपना और अपने दादा श्री का परिचय दे दिया!
"क्या करने आया है यहाँ?" उसने पूछा,
"मुक्त! कुक्त करने आया हूँ!" मैंने कह ही दिया!
"किसे?" उसने पूछा,
"सभी को, जो यहाँ इस भूमि-खंड में फंसे रह गए हैं!" मैंने कहा,
"ये इतना सहज नहीं!" उसने कहा,
"मै जानता हूँ, आगे न जाने कितने शाकुण्ड मिलने हैं मुझे!" मैंने कहा,
"सुन! लौट जा यहाँ से!" उसने फिर से मंद स्वर में कहा,
"नहीं शाकुण्ड बाबा!" मैंने कहा,
"समझ जा!" उसने कहा,
"नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"क्या चाहिए तुझे? मांग क्या मांगता है?" उसने कहा,
"आपका धन्यवाद शाकुण्ड बाबा! मै धन्य हुआ!" मैंने कहा,
शाकुण्ड हंसा!
"भेरू बाबा को भेजो बाबा!" मैंने कहा,
'वो यहाँ नहीं है!" उसने बताया,
"तो फिर?" मैंने कहा,
"बाबा नौमना के पास है!" शाकुण्ड ने कहा,
"मै वहीँ जाऊँगा!" मैंने कहा,
"जाना! अवश्य ही जाना! परन्तु चौदस को!" वो बोल,
फ़ौरन मै समझ गया कि क्यों चौदस!
"जी बाबा!" मैंने कहा,
और फिर मेरे देखते ही देखते शाकुण्ड बाबा भूमि में समा गए!
मै बैठ गया आसन पर!
चौदस कल थी! पंचांग के हिसाब से दिन में ५ बज कर १३ मिनट से आरम्भ था उसका, पहला करण तीक्ष्ण था और दूसरा मृदु, अतः दूसरे करण में ही जाना उचित था! ये प्रेतमाया थी! एक से एक बड़े शक्तिशाली प्रेत थे यहाँ! और न जाने कितने अभी आये भी नहीं थे!
मै बैठा और कपाल-कटोरे में मदिरा परोसी! और कच्चे मांस का आनंद लिया! तभी वहाँ एक अट्टहास गूंजा! ये खेचर था! सामने उकडू बैठा हुआ!
"बहुत ज़िद्दी है तू!" उसने कहा,
"ये तो कल देखना खेचर!" मैंने कहा!
खेचर अट्टहास लगाते ही लोप हो गया! और मैंने कपाल-कटोरा रिक्त कर दिया!
अब मैंने वहाँ से अपना सामान-सट्टा उठाया और अलख को वहीँ छोड़ दिया, अलखदान मै सुबह उठा सकता था, अतः अलख वहीँ छोड़ दी मैंने भड़कती ही, बाकी सारा सामान इकट्टा कर मै और शर्मा जी वहाँ से वापिस हो लिए!
वहां वे सभी हमारी चिंता में लगे थे, हमे कुशल से देख प्रसन्न हुए और फिर हम अब चल पड़े वहाँ से, हरि साहब के घर! आज रात विश्राम करना था और कल फिर रात्रिकाल में एक गंभीर टकराव होना था, देखना था ऊँट किस करवट बैठता है!
हम घर पहुँच गए, नहाए धोये और फिर विश्राम करने के लिए कमरे में आ गए, भोजन कर ही लिया था सो भोजन की मनाही की और सीधा बिस्तर में कूद गए! नशा छाया हुआ था! शाकुण्ड के बातें रह रह के याद आने लगी थीं! मेरे मस्तिष्क पटल पर एक एक का रेखाचित्र गढ़ता चला गया! अब दो शेष थे, एक भेरू बाबा और एक बाबा नौमना!
नींद से खूब ज़द्दोज़हद हुई और आखिर नींद को लालच देकर पटा ही लिया! अंकशायिनी बनने को सहर्ष तैयार हो गयी और मै उसके आलिंगन में ढेर हो गया!
सुबह नींद खुली तो सात बज चुके थे, शर्मा जी उठ चुके थे और कमरे में नहीं थे, गौर किया तो उनकी और हरि साहब की बातें चल रही थीं, बाहर बैठे थे दोनों ही! मै उठा, अंगड़ाइयां लीं और फिर नहाने का मन बनाया, नहाने गया, वहाँ से फारिग हुआ और फिर कपडे पहन कर वापिस आ गया, और कमरे से बाहर निकला, हरि साहब और शर्मा जी से नमस्कार हुई और फिर वहाँ बिछी एक कुर्सी पर मै बैठ गया, सामने पड़ा अखबार उठाया, चित्र आदि का अवलोकन किया और फिर रख दिया अखबार वहीँ, अब तक चाहि आ गयी, चाय पी, नाश्ता भी किया और फिर यहाँ वहाँ की बातें चलती रहीं!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"आप हरि साहब को आज का सामान लिखवा दीजिये" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब मै उठा वहाँ से और कमरे में आ गया, फिर से लेट गया, तभी थोड़ी देर बाद वहाँ शर्म जी आ गए,
"लिखवा दिया सामान?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"दोपहर तक मिल जाना चाहिए" मैंने कहा,
"कह दिया मैंने" वे बोले,
"ठीक" मैंने कहा,
"आज खेतों में तो कोई काम नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, आज वहाँ कोई काम नहीं" मैंने कहा,
"तो सीधे वहीँ जाना है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"आज बहुत मुश्किल रात है" मैंने कहा,
"मै जानता हूँ" वे बोले,
मैंने करवट बदली और दूसरी ओर मुंह कर लिया,
शर्मा जी भी लेट गए अपने बिस्तर पर,
"आज मै आपको अपने साथ नहीं बिठाऊंगा, हाँ मुझे नज़र में ही रखना" मैंने कहा,
"अवश्य गुरु जी" वे बोले,
हम बातें करते रहे निरंतर, एक दो फ़ोन भी आये दिल्ली से, बात हुई और फिर से यहीं का घटनाक्रम आगे आकर खड़ा हो गया सामने!
घंटे पर घंटे बीते, कभी उठ जाते कभी एक आद झपकी ले लेते! और आखिर ७ बज गए! तिथि का प्रथम करण आरम्भ हो गया था, दूसरा आने में अभी समय बाकी था, मैंने पुनः सामान की जांच की, सब कुछ सही पाया, कुछ मंत्र भी जागृत कर लिए और अब मै मुस्तैद हो गया!
रात्रि समय ठीक साढ़े ग्यारह बजे हम निकल पड़े वहीँ उसी भेरू बाबा के स्थान की ओर! आज की रात भयानक थी, अत्यंत भारी, पता नहीं कल सूर्या को सिंहासनरूढ़ कौन देखने वाला था!
हिचकोले खाती गाड़ी ले चली हम को वहीँ के लिए, इंच, मीटर और फिर किलोमीटर तय करते करते हम पहुँच गए वहाँ!
मैंने टोर्च ली, शर्मा जी को भी साथ लिया, बैग उठाया और उसमे से सभी वस्तुएं निकाल लीं, हवा एकदम शांत थी, न कोई स्पर्श ही था और न कोई झोंका ही! अब मुझे एक उपयुक्त स्थान चुनना था, मैंने नज़र दौड़ाई तो एक जगह के एक शिला के पास वो जगह मिल गयी, साफ़ जगह था वो, वहां रेत था कुछ मिट्टी सी, ये स्थान ठीक था, हाँ मै किसी और के स्थान में अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर गया था, अब मैंने यहाँ अपना बैग रखा, एक जगह हाथ से गड्ढा खोदा दो गुणा डेढ़ फीट का, यहाँ अलख उठानी थी मुझे! मैंने सबसे पहले अपना आसन बिछाया, मंत्र पढ़ते हुए, फिर त्रिशूल गाड़ा मंत्र पढ़ते हुए, कपाल रखे वहाँ और कपाल कटोरा मुंड के सर पर रख दिया! फिर एक एक करके संभी सामग्री और सामान वहां व्यवस्थित किया, अलख के लिए मैंने सार आवश्यक सामान अलख में रखा और फिर मैंने शर्मा जी से कहा,"अब आप जाइये शर्मा जी" 
"जाता हूँ गुरु जी, एक बार जांच कर लीजिये, किसी वस्तु की कोई कमी तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, कोई कमी नहीं, सब ठीक है" मैंने कहा,
वे उठे,
"सफलता प्राप्त करें गुरु जी" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"मै चलता हूँ" वे चलने लगे वहाँ से,
"ठीक है, मुझे दूर से नज़र में ही रखना, किसी को यहाँ नहीं आने देना, चाहे कुछ भी हो जाए" मैंने कहा,
"जी गुरु जी" वे बोले और अब वापिस हुए,
अब मैंने अपना चिमटा उठाया और फिर अपनी अलख और उस क्रिया-स्थान को उस चिमटे की सहायता से एक घेरे में ले लिया, ये औंधी-खोपड़ी मसान का रक्षा-घेरा था, उसको आन लगाते हुए मैंने वो प्राण-रक्षा वृत्त पूर्ण कर लिया और अब अलख उठा दी! अलख चटख कर उठी, मैंने अलख को प्रणाम किया और फिर गुरु-वंदना कर मैंने अलख-भोग दिया! तीन थालियाँ निकाली और उनमे सभी मांस, मदिरा आदि रख दिए, ये शक्ति-भोग था! 
अब मैंने सबसे महत्वपूर्ण मंत्र जागृत किये, कलुष, महाताम, भंजन, एवाम, अभय एवं सिंहिका आदि मंत्र! मै एक एक करके उनको नमन करते हुए शिरोधार्य करता चला गया! अंत में देह-रक्षण अघोर-पुरुष को सौंपा और अब मै तत्पर था!
अब मैंने भस्म-स्नान किया और फिर कपाल-कटोरे में मदिरा परोसी और फिर गटक गया! कुरुंड-मंत्र से देह स्फूर्तिमान हो गयी, नेत्र चपल और जिव्हा केन्द्रित हो गयी!
मै खड़ा हुआ और एक अट्टहास किया! महानाद! और फिर बैठ गया, क्रिया आरम्भ हो गयी थी!
और तभी मेरे सामने से खेचर, भाभरा, भामा, शामा और मुंड-रहित किरली निकल गए! एक झांकी के समान! और फिर वही शाकुण्ड बाबा! वही गुजरे वहाँ से! 
दूसरा करण आरम्भ हुआ और यहाँ मैंने अब अलख से वार्तालाप आरम्भ किया, नाद और घोर होता गया, मुझे औघड़-मद चढ़ने लगा!
अब मैंने भेरू को बुलाने के लिए, मांस के टुकड़े अभिमंत्रित किये और उनको चारों दिशाओं में फेंक दिया! फिर से मंत्र पढ़े, एक बार को हतप्रभ से वे सभी वहाँ फिर प्रकट हुए और फिर लोप हुए! समय थम गया! वहाँ क दृश्य चित्र में परिवर्तित हो गया, सुनसान बियाबान में लपलपाती अलख, उसके साथ बैठा एक औघड़ और वहाँ मौजूद कुछ प्रेतात्माएं! खौफनाक दृश्य! और हौलनाक वो चित्र! अलख की उठी लपटों ने भूमि को चित्रित कर दिया!
और तभी, तभी एक महाप्रेत सा प्रकट हुआ! मैंने उसको ध्यान से देखा, कद करीब सात फीट! गले में सर्प धारण किये हुए, मुझे एकदम से हरि साहब की पत्नी क ध्यान आया, उन्होंने ही बताया था, एक महाप्रेत भेरू गले में सर्प धारण किये हुए, तो ये भेरू था! आन पहुंचा था वहाँ! बेहद कस हुआ शरीर था उसका, चौड़े कंधे और दीर्घ जांघें! साक्षात भयानक जल्लाद! साक्षात यमपाल! नीचे उसे लंगोट धारण कर रखी थी, हाथ में त्रिशूल और त्रिशूल में बंधा एक बड़ा सा डमरू! वो हवा में खड़ा था, भूमि से चंद इंच ऊपर! गले में मालाएं धारण किये, अस्थियों से निर्मित मालाएं! गले में एक घंटाल सा धारण किये हुए! हाथों में असंख्य तंत्राभूषण! बलिष्ठ भुजाएं और चौड़ी गर्दन! एक बार को तो मुझे भी सिहरन सी दौड़ गयी! काले रुक्ष केश, जैसे विषधर आदि लिपटें हों उसके सर पर! मस्तक पर चिता-भस्म और पीले रंग से खिंचा एक त्रिपुंड!
"कौन है तू?" उसने भयानक गर्जना में मुझसे पूछा,
मैंने उसको परिचय दिया अपना!
"क्या करने आया है यहाँ?" उसने फिर से पूछा,
मैंने अपना मंतव्य बता दिया!
उनसे एक विकराल अट्टहास किया! जैसे किसी बालक( यहाँ मै इंगित हूँ) ने ठिठोली की हो!
"ये जानते हुए कि मै कौन हूँ?" उसने कहा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब चला जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
"जाना पड़ेगा" उसने कहा,
"नहीं, कदापि नहीं" मैंने कहा,
"प्राण गंवाएगा?" उसने कहा,
"देखा जाएगा" मैंने कहा,
"तूने मुझे आँका नहीं?" उसने फिर से डराया मुझे!
"नहीं आंकता तो यहाँ नहीं आता!" मैंने कहा,
उसने फिर से अट्टहास किया!
"जा, अभी भी समय शेष है" उसने समझाया,
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
एक पल को अभेद्य शान्ति!
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
"हठ मत कर" उसने कहा,
"कोई हठ नहीं कर रहा मै" मैंने कहा,
"क्यों मौत को बुलावा देने पर तुला है?" उसने कहा,
"मौत आएगी तो देखा जाएगा" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा इसका मतलब?" उसने अब अपना त्रिशूल भूमि में मारे हुए कहा,
"आपके अनुसार नहीं" मैंने कहा,
"अंतिम बार चेतावनी देता हूँ मै!" उसने त्रिशूल मेरी ओर करके कहा, उसने त्रिशूल मेरी ओर किया और मेरी अलख की लपटें झूल कर मेरी ओर झुक गयीं! ऐसा प्रताप उसका!
मुझे घबराना चाहिए था, परन्तु मै नहीं घबराया, औघड़ तो मौत और जिंदगी की दुधारी तलवार पर निरंतर चलता है, हाँ मौत का फाल अवश्य ही बड़ा होता है!
"हट जा मेरे रास्ते से!" कहा भेरू ने!
और मेरी तरफ त्रिशूल किया, मेरी अलख की लपटें जैसे भयातुर होकर मुझसे पनाह मांगने लगीं! और दूसरे ही क्षण एक भयानक लापत से उठी वहाँ और मेरी ग्रीवा से टकराई! मुझे लगा जैसे किसी के बलिष्ठ हाथों ने मेरा कंठ जकड़ लिया हो! मैंने मन ही मन एवाम-मानता क जाप किया और मै तभी उस जकड़ से मुक्त हो गया, हाँ, साँसें तेज ह गयीं थीं अवरोध के कारण!
"हा!हा!हा!हा!" उसने भयानक अट्टहास लगाया!
"जा, तुझे छोड़ देता हूँ!" उसने हंस कर कहा,
मैंने अपनी जीव को काबू में किया और कहा, "मै यहीं डटा रहूँगा भेरू!"
उसने फिर से अट्टहास किया!
"जा चला जा लड़के!" उसने कहा,
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
"नहीं मानता?" उसने फिर से धमकाया!
"नहीं!" मैंने कहा,
"ठहर जा फिर!" उसने कहा,
उसने एक चुटकी मारी, चुटकी की आवाज़ ऐसी कि जैसे किसी की हड्डी टूटी हो! मैंने अपना उल्टा पाँव देखा, वो टेढ़ा हो गया था! बस टूटने की क़सर थी! मै पीछे गिर पड़ा, असहनीय दर्द हुआ, छटपटा गया मै!
वहाँ भेरू ने एक चुटकी और मारी होती तो मेरा पाँव जड़ से ही अलग हो जाता, मैंने तभी दारुष-मंत्र क बीज पढ़ा और उस क्षण मेरा पाँव ठीक हो गया! मंत्र से मंत्र टकरा रहे थे! मै खड़ा हो गया, अपने चेहरे पर आये पसीने का स्वाद मेरी जिव्हा ने ले लिया था अब तक!
"अब जाता है कि नहीं लड़के?" भेरू ने कहा, गुस्से में!
"नहीं भेरू" मैंने कहा,
"तो प्राण यहीं छोड़ने पड़ेंगे!" उसने चिल्ला कर कहा,
"मै तैयार हूँ!" मैंने कहा,
तभी झक्क से लोप हुआ वो!
मैंने चारों ओर ढूँढा उसको! वो कहीं नहीं था!
तभी मुझे अट्टहास सुनाई दिया अपनी बायीं तरफ! वो वहाँ एक शिला से सहारा लिए खड़ा था, मतलब एक पाँव उसने शिला पर रखा हुआ था! कैसी विप्लव प्रेत-माया थी!
"तुझे दिखाता हूँ कौन हूँ मै!" उसने कहा और फिर उसने अपने सर्प को कंधे से उतारा और नीचे छोड़ दिया!
सांप नीचे भूमि पर कुंडली मार कर बैठ गया! और तभी! तभी वहाँ न जाने कहाँ कहाँ से अनगिनत सांप आते चले गए, मेरे चारों ओर! ढेर के ढेर! रंग-बिरंगे!
"बस भेरू?" मैंने चिढाया उसे!
"देखता जा!" उसने कहा 
उसने ऐसा कहा और मैंने विमोचिनी माया का जाप किया! सर्प मोम समान हो गए! विमोचिनी यक्षिणी-प्रदत्त महाविद्या है! कोई भी महाप्रेत उसको खंडित नहीं कर सकता!
अब अट्टहास करने की मेरी बारी थी! सो मैंने किया और अपना त्रिशूल भूमि में से निकाला और पुनः मंत्र पढ़ते हुए भूमि में गाड़ दिया! सर्प लोप हो गए! शून्य में बस धूमिल होती उनकी फुफकार रह गयी!
ये देख भेरू ने अपना पाँव हटा लिया शिला से! उसने होंठ हिलाकर मुझे संभवतः अपशब्द निकाले थे!
"क्या हुआ भेरू, भेरू बाबा?" मैंने उपहास सा किया उसका!
मैंने कहा और मुझे किसी आक्रामक भैंसे की जी आवास आई, नथुने फड़काते हुए! मैंने पीछे देखा, वहाँ एक शक्तिशाली भैंसा खड़ा था! मैंने तभी रिक्ताल-मंत्र का जाप किया, और अपने को फूंक लिया उस से! वो भिनसा आगे बढ़ा और पर्चायीं की तरह मेरे ऊपर से गुजर गया!
मै सुरक्षित था!
"क्या हुआ भेरू?" मैंने कहा,
क्रोध में नहाया हुआ भेरू! फटने को तैयार भेरू!
"क्या हुआ?" मैंने फिर से उपहास उड़ाया!
भेरू ने आँखें बंद कीं और फिर! फिर ध्यान लगाया!
कुछ ही क्षण में मेरी आसपास की मिट्टी धसकने लगी, जैसे मेरा ग्रास कर जायेगी और मै ज़मींदोज़ हो जाऊँगा! मैंने अपना त्रिशूल पकड़ लिया और अलख को देखते हुए, द्वित्ठार-माया का प्रयोग कर दिया! भूमि यथावत हो गयी!
और भेरू!
भेरू को जैसे काटो तो खून नहीं!
भुनभुना गया था भेरू!
"लड़के??" भेरू गरज के बोला
मैंने उसको देखा!
"क्या समझता है तू?" उसने कहा,
"कुछ भी नहीं!" मैंने कहा,
"चला जा! अभी भी समय है" उसने हाथ के इशारे से कहा,
"मै नहीं जाने वाला भेरू बाबा!" मैंने कहा,
"अपान-वायु से तेरे प्राण खींच लूँगा मै!" उसने कहा,
"वो भी कर के देख लो भेरू!" मैंने कहा,
भेरू गुस्से में उबल रहा था! उसके अन्दर क्रोध का लौह धधक धधक कर बुलबुले छोड़ रहा था!
उसने झुक कर मिट्टी उठायी, मै समझ गया कि फिर से भेरू कोई प्रपंच लड़ाने वाला है!
भेरू ने उस मिट्टी को अभिमंत्रित किया और मेरी ओर उछाल दिया! ये देह-घातिनी शक्ति थी! मैंने फ़ौरन ही दिक्पात शक्ति का संधान कर उसको भी एक प्रकार से निरस्त कर दिया!
अब तो भेरू की सब्र-सीमा लंघ गयी! वो कभी वहाँ प्रकट होता, लोप होता और फिर कहीं दूसरे स्थान पर प्रकट हो लोप होता! मुझे उसके लिए पूर्णाक्ष घूमना पड़ता!
"क्या हुआ भेरू?" अब मैंने कहा,
भेरू चुप्प!
"क्या हुआ? बस? बल सीमा समाप्त?" मैंने पूछा,
उसने फिर से ज़मीन धसकाने वाला प्रयोग किया! मुझे बार बार उछलना पड़ता! तो मैंने अपने त्रिशूल को उखाड़ कर फिर से स्तम्भन-मंत्र पढ़ कर गाड़ दिया, धसकना समाप्त हुआ!
इस सोते हुए संसार में दो औघड़ एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे! एक देहधारी था और एक मात्र छाया!
"अकेले पड़ गए भेरू तुम!" मैंने कहकहा लगाया!
उसने चिल्ला के मुझे चुप रहने को कहा!
"भेरू! जाओ, जाकर बुलाओ अपने नौमना बाबा को!" मैंने चुनौती दी उसको!
नौमना बाबा का नाम सुनकर भड़क गया वो! अनाप-शनाप बोलने लगा, जिग्साल-साधना के अंश पढने लगा! फिर आकाश में उड़ते हुए लोप हो गया! मैंने उसको लोप होते हुए देखा और फिर कुछ पल की असीम शान्ति! वो चला गया था शायद! मै अपने आसन पर जैसे ही बैठने लगा तभी मैंने अपने समक्ष दो सुंदरियों को देखा! हाथ में लोटे लिए हुए, लोटों में दूध भरा था, सच कहता हूँ, कोई अतिश्योक्ति नहीं, वे अद्वितीय सुंदरियां थीं! सुडौल देह, उन्नत वक्ष-स्थल, संकीर्ण कमर, दीर्घ नितम्ब-क्षेत्र! केश कमर तक झूलते हुए, चमकदार, आभूषण धारण किये हुए! कामातुर आवेश! त्वचा ऐसी, कि हाथ लगाओ मैली!
अब मै खड़ा हो गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"हम रम्भूक कन्याएं हैं ओ साधक!" उन्होंने एक साथ कहा!
रम्भूक कन्याएं! मेरा अहोभाग्य! स्वयं महासिद्धि मेरे समक्ष खड़ी थीं! तोरम-रुपी कन्याएं! 
"क्या चाहती हो?" मैंने पूछा,
"आप दुग्धपान करें!" वे बोलीं, खनकती आवाज़ उनकी!
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"सिद्देश्वर-चरण पूर्ण करने हेतु!" वे बोलीं,
ओह! कितना असीम लालच! मेरे मस्तिष्क में तार झनझना गए! भाड़ में जाएँ हरि साहब! इनको स्वीकार करो और जय जयकार!
नहीं! कदापि नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! दंड का भागी हो जाऊँगा मै, मुख नहीं दिखा सकता अपने गुरु को! श्रापग्रस्त हो किसी बरगद के वृक्ष पर ब्रह्मराक्षस का दास हो जाऊँगा! नहीं ऐसा संभव नहीं! 
क्या प्रपंच लड़ाया था भेरू बाबा ने!
दिव्या रम्भूक कन्याएं! मेरे समक्ष!
"नहीं!" मैंने कहा,
"लीजिये!" वे बोलीं, मेरी तरफ लोटा करते हुए! पात्र में केसर के रंग से मिला दूध था! मै उसको दिव्य दूध ही कहूँगा!
"लीजिये?" वे बोलीं!
"नहीं!" मैंने कहा,
मैंने आकाश में देखा! चाँद-तारे सभी देख रहे थे इस खेल को! और मै ढूंढ रहा था उस भेरू बाबा को!
वो वहाँ कहीं नहीं था!
"वाह भेरू वाह!" मैंने हंस कर कहा,
"लीजिये?" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"पछतायेंगे!" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"ले लीजिये" वे फिर से बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"ले लीजिये, हठ कैसा?" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने फिर से मना किया,
अब वे पीछे हटीं,
दुग्ध-पात्र अपनी कमर में लगाए, पीछे मुड़ीं और लोप हो गयीं!
ओह! कितना सुकून! जैसे सुलगता, दहकता शरीर झम्म से गोता लगा गया हो हिम-जल में! ऐसा परमानन्द का एहसास! जैसे अवरुद्ध नथुने एक झटके से खुल गए हों! ओह! वर्णन नहीं कर सकता मै और अधिक!
फिर से कुछ समय बीता, जैसे युद्ध-विश्राम का समय हो गया हो!
और तभी जैसे ध्वनि-रहित दामिनी कड़की और मै उसके तमरूपी प्रकाश से सराबोर हो गया!
एक अनुपम, दिव्यसुन्दरी प्रकट हुई! मेरे माथे पर शिकन उभरीं अब! ये कैसी माया? अब कौन! हलक में थूक अटक के रह गया, यही होती है अवाक रह जाने की स्थिति!
वो अनुपम सुन्दरी मेरे समक्ष आई, सहस्त्र आभूषणों से सुशोभित उसकी गौर देह! उसकी आभूषणों से न ढकी त्वचा चकाचौंध कर रही थी! बलिष्ठ कद-काठी, उन्नत देह! लाल रंग का चमकीला दिव्य-वस्त्र!
वो मुस्कुराई! स्पष्ट रूप से कहता हूँ, एक पल को मै द्वन्द भूल गया और काम हिलोरें मारने लगा मुझ में! मस्तिष्क की दीवारें फटने को तैयार हो गयीं! जननेद्रिय में जैसे स्पंदन सा होने लगा! ये क्या था? कोई माया? कोई तीक्ष्ण माया? या इस सुन्दरी का दिव्य प्रभाव?
वो मुस्कुराते हुए और लरजती हुई चाल से मेरे समीप आई, केवड़े की खुशबु नथुनों में वास कर गयी! आँखें बंद होने लगीं, होश खोने को आमादा से हो गए!
"साधक!" उसने बेहद कामुकता से भरे स्वर में पुकारा!
मुझ पर मद सवार होने लगा, काम-ज्वर और तीव्र होने लगा! अब बस छटपटाने की नौबत शेष थी!
मैंने धीरे से आँखें खोलने की कोशिश की, आँखें खोल लीं! वे मेरे इतना समीप थी की उसके वक्ष के ऊपरी सिरे मुझे मेरे सीने में छू रहे थे! ये छुअन बेहद अजीब और वर्णन-रहित है, आज भी! 
'साधक?" उसने पुकारा,
"हाँ" मैंने धीमे से कहा,
"जानते हो मै कौन हूँ?" उसने पूछा, उसकी साँसें मेरी ग्रीवा पर काम के गहरे चिन्ह छोड़े जा रही थीं!
"मै मृणाली हूँ!" उसने कहा,
मृणाली! ओह! ये मै कहाँ फंस गया!
मृणाली, दिव्य-स्वरुप में एक काम-कन्या है! एक दिव्य काम-सखी! इस से साधक यदि काम-क्रीडा करे तो यौवनामृत की प्राप्ति होती है! देह पुष्ट, बलशाली और निरोग हो जाती है, आयुवर्द्धक होता है इसका मात्र एक ही स्पर्श!
उसने तभी मेरे माथे को अपनी जिव्हा से छुआ! मै नीचे झूल गया पीछे की तरफ और तभी उसने मुझे संभाल लिया, मेरे नेत्र बंद हो गए!
"उठो?" उसने कहा,
मै शांत!
"साधक?" उसने पुकारा,
मै शांत!
"उठो?" उसने कहा,
मै अब संयत हुआ और खड़ा हुआ, त्रिशूल का सहारा लिया!
"क्या चाहती हो?" मैंने उन्मत्त से स्वर में पूछा,
"यही तो मै आपसे पूछ रही हूँ" उसने मुस्कुराते हुए कहा,
"चले जाओ मृणाली" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
"जाओ" मैंने कहा,
वो पीछे हटी और अपने हाथों से मेरे केश पकड़ लिए और सीधे मुझे अपनी ओर खींच लिया, मुझे चक्कर सा आ गया!
"छोडो?" मैंने कहा,
अब वो हंसी!
'छोडो?" मै चिल्लाया!
"नहीं" उसने कहा,
"मृणाली? छोडो?" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
अब उसने मुझे और करीब खींचा! मै झुंझला सा गया, छूटने की कोशिश की लेकिन लगा किसी गज-शक्ति ने मुझे थाम रखा हो!
मैंने तभी उर्वार-मंत्र पढ़ा! उसने फ़ौरन ही छोड़ा मुझे और हंसने लगी!
"कच्चे हो अभी!" उसने कहा,
"अब जाओ यहाँ से" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
वो अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर थी! अडिग!
"मृणाली?" मैंने कहा,
"हाँ?" उसने उत्तर दिया?"
"अब जाओ यहाँ से" मैंने कहा,
"नहीं" उसने फिर से व्यंग्य से कहा,
"मुझे विवश न करो कि मै तुमको यहाँ से नदारद करूँ" मैंने कहा,
"आप कर ही नहीं सकते, मै अन्तःमर्म जानती हूँ" उसने कहा,
"नहीं जानती तुम" मैंने कह दिया,
"मै जानती हूँ" उसने कहा,
"कुछ नहीं जानती, नहीं जानती मै यहाँ किसलिए आया हूँ, तुम केवल उस भेरू बाबा को और अपने लक्ष्य को ही जानती हो मृणाली!" मैंने कहा,
"मै जानती हूँ" उसने कामुक मुद्रा बना कर ऐसा कहा,
अब मै विवश था! मैंने त्रिशूल लिया और उसको ओर कर दिया! वो हटने की बजाय ठहाके मारने लगी!
"अरे ओ साधक!" उसने कहा,
मै चुप हो गया,
"तेरे जैसे न जाने कितने आये और कितने गए! मृणाली यहीं है आज तक!" उसने कहा,
हम्म! काम-दंभ! वाह! क्या उदाहरण दिया था!
"मेरा जैसा न कोई आया और अब न कोई आएगा!" मैंने भी प्रतिवार किया!
उसने तभी अपना अंशुक उठाया और अपना योनि-प्रदेश दिखाया, मैंने देखकर मुंह फेर लिया, जैसे तिरस्कृत कर दिया हो!
ये उस से बर्दाश्त नहीं हुआ! वो लपक के मेरे ऊपर झपटी! मेरे ऊपर आ कर चिपक गयी! उसने मेरी कमर में अपनी दोनों टांगों से मुझे जकड़ लिया, बाजुओं से मेरे केश खींचे लगी पीछे की तरह और मेरे मुख और माथे को चाटने लगी! केवड़े की सुगंध से मै भी जैसे सकते में आ गया था!
उसने काम-क्रीडा की मुद्रा में क्रीडा आरम्भ की, योनि-स्राव से मै कमर के नीचे भीगने लगा! मेरे पाँव उस स्राव में भीग गए, मिट्टी गीली हो गयी और मै नीचे गिर गया फिसल कर!
वो मेरे ऊपर क्रीडा में मग्न थी, मुझे चाटती जाती थी, मेरी जिव्हा उसकी जिव्हा से टकराती तो मेरा दम घुटने लग जाता! मै परोक्ष रूप से कुछ नहीं कर पा रहा था, अतः मैंने मनोश्चः त्रिपुर-मलयमंजिनी का जाप कर दिया! जाप के तीसरे बीज स्वरुप में मृणाली को उठा के फेंका किसी ने मेरे ऊपर से और वो गिरते ही हुई लोप!
प्राण छूटे!
अब मै खड़ा हुआ! संयत हुआ!
तभी प्रकट हुआ वहाँ भेरू बाबा!
"आ गया भेरू!" मैंने उपहास सा उड़ाया उसका!
भेरू जैसे फफक रहा था!
"चला जा! जो चाहता है वो संभव नहीं!" भेरू ने कहा,
"नहीं जाऊँगा भेरू!" मैंने कहा,
"क्या चाहिए तुझे, इसके अलावा?" उसने पूछा,
"कुछ नहीं, और कुछ नहीं!" मैंने कहा,
"सुन?" उसने झिड़का मुझे!
"सुनाओ भेरू बाबा!" मैंने कहा,
"प्राण की बाजी हार जाएगा, इसीलिए जो चाहिए मांग ले" उसने कहा,
"नहीं, सबकुछ है मेरे पास!" मैंने कहा,
और तभी भेरू लोप हुआ!
चाल चल गया अपनी!
यही लगा मुझे उस समय!
और तभी वहाँ एक और रूपसी प्रकट हुई!
मुझसे भी लम्बी! सहस्त्र-श्रृंगार धारण किये हुए! सुन्दर अत्यंत सुंदर! उसका बदन बेहद सुंदर! अप्रतिम! जैसे साक्षात यक्षिणी! हाथों में दो घड़े लिए हुए! कच्ची मिट्टी के घड़े!
मेरे चेहरे पर आया हुआ विस्मय और घोर चिंता में परिवर्तित होने लगा!
"ओ साधक!" उसने धीमे स्वर में कहा,
मैंने उसको देखा!
तभी उसे अपने हाथों में रखे घड़े नीचे ज़मीन पर दे मारे! अकूत धन-सम्पदा बिखर गयी! स्वर्ण! स्वर्ण से निर्मित जेवर! और सफेद, काले, नीले रंग के बड़े बड़े हीरे, माणिक्य और पन्ने जैसे अनमोल रत्न!
"ले, उठा ले जितना उठाना हो!" वो बोली,
मैंने रत्न देखे! स्वर्ण देखा! अकूत दौलत! आज के भौतिक-युग का सर्वश्रेष्ठ ईंधन! काया माता-पिता, क्या भाई-बहन, क्या अन्य रिश्ता! कुछ नहीं इसके सामने! मनुष्य जिसके लिए कमरतोड़ मेहनत करता है, लाख जतन करता है समेटने को, वो यहाँ मिट्टी में पड़े थे मेरे सामने! 
"बोल साधक?" वो बोली,
"नहीं" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"सब माया है" मैंने धीरे से कहा,
"कैसी माया?" उसने कहा,
"तू भी मायावी रूपसी है!" मैंने कहा,
वो खिलखिलाकर हंसी!
वो हंसती रही! उसने और धन प्रकट किया वहाँ! इतना तो मैंने कभी न सुना और न देखा!
"ये सब ले जा!" वो बोली,
"नहीं!" मैंने कहा,
"मूर्ख तो नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अपने हाथ से कुछ स्वर्ण उठाया और मुझ पर फेंका!
"ले! लेजा!" उसने फिर से कहा,
"नहीं चाहिए मुझे!" मैंने कहा,
"धनसुली का धन माया नहीं होता साधक!" उसने कहा,
"मानता हूँ" मैंने कहा,
"ले जा फिर! सारा! जितना चाहिए वो भी लेजा!" उसने कहा,
धनसुली! धन-यक्षिणी की सहोदरी!
"मुझे नहीं चाहिए" मैंने फिर से मना कर दिया!
अब वो क्रोध में आई!
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने गुस्से से पूछा,
"आप जाइये और भ्रू को लाइए सामने" मैंने कहा,
झम्म!
वो झम्म से लोप, साथ ही सारा धन भी लोप! टूटे घड़े भी लोप, रह गये तो बस उनके चिन्ह! मिट्टी में अंकित चिन्ह!
"भेरू?" मैंने चिल्लाया!
कोई नहीं आया!
"कुछ और भी बाकी है तो ले आ!" मैंने डंका बजाते हुए कहा!
भेरू प्रकट हुआ! हाथों में हाथ बांधे!
भेरू जैसे भीरु बन गया था!
"क्या बात है भेरू?" मैंने पूछा,
भेरू चुप!
अब मैंने अट्टहास लगा!
"पंचमहाभूत! हाँ! पंचमहाभूत! ये जस की तस रहती है भेरू!" मैंने कहा,
अब भेरू को चढ़ा ताप!
"सुन लड़के!" उसने कहा,
"सुनाओ?" मैंने कहा,
"तूने अपने काल को स्वयं आम्नात्री किया है, मै तुझे जीवित नहीं छोड़ने वाला!" उसने कहा,
"तो करके देख ले ये भी!" मैंने कहा,
उसने गुस्से में मेरी ओर अपना त्रिशूल दे मार फेंक कर! मुझ तक आने से पहले ही ताम-मंत्र ने त्रिशूल को भूमि पर ही गिरा दिया!
अब मै हंसा!
भेरू क्रोधित!
वो भयानक रूप से चिल्लाया! हड़कम्प सा मच गया उस स्थान पर! मेरी अलख जैसे अनाथ होने के भय से कांपने लगी!
भेरू स्वयं आगे बढ़ा!
ये मुझे पता था!
"ठहर जा!" मैंने कहा,
वो नहीं माना!
मैंने तभी यम्त्रास-मंत्रिका का जाप किया! मुझ तक आते आते कलाबाजी सी खायी भेरू ने और नीचे गिर गया! फ़ौरन उठ भी गया! अचंभित! हैरत में!
मेरी हंसी छूट गयी!
"भेरू!" मैंने कहा और अब मै उसकी तरफ बढ़ा!
भेरू पीछे हटा!
"भेरू! मै तुझे नहीं क़ैद करूँगा! घबरा नहीं!" मैंने कहा,
वो पीछे हटा फिर भी! डरा हुआ सा!
"भेरू! बहुत समय बीत गया भटकते भटकते! अब समय पूर्ण हुआ!" मैंने कहा,
"नहीं!" वो बोला,
"मान जा!" मैंने समझाया उसे!
"नहीं!" वो घबराया!
"ठीक है!" मैंने कहा और मै पीछे अपनी अलख तक गया!
"भेरू!" मैंने पुकारा,
"बोल?" वो चिल्ला के बोला,
"जा!" मैंने कहा,
"कहाँ?" वो निहत्था सा खड़ा हुआ मुझसे पूछ रहा था!
"तेरे पालनहार बाबा नौमना के पास!" मैंने कहा,
ये सुनते ही बिफर गया वो!
"क्यों?" उसने पूछा,
"जा बुला उसको अब!" मैंने कहा,
"नहीं!" वो चिल्लाया!
"भेरू! क्या नही किया तूने उसके लिए! तुझे बचाने नहीं आएगा वो?" मैंने उपहास किया!
वो चुप्प!
"जा!" मैंने कहा,
और तभी वो झप्प से लोप हुआ!
और अब! अब मुझे स्वागत करना था बाबा नौमना का!
मै तैयार था!
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भेरू बाबा चला गया था! मै नहीं कहूँगा कि मुंह की खाकर! ये ऐसा कोई अस्तित्व का द्वन्द नहीं था, ये तो शक्ति-सामर्थ्य का द्वन्द था, दादा श्री की असीम कृपा से मै अभी तक अपने उचित मार्ग पर प्रशस्त था! लोभ-लालच आदि को पछाड़ दिया था मैंने! मैंने अपनी गुरु को नमन किया, उनके आशीर्वाद से मै अभी तक डटा हुआ था!
वहाँ भयानक सन्नाटा छाया हुआ था! अलख की रौशनी चटक-चटक कर उठ रही थी! मै औघड़-मद में डूबा था, मदिरापान करता हुआ आगे देखे जा रहा था! दीन-दुनिया से कटा हुआ भिड़ा हुआ था वहाँ के 'शासक औघड़' की प्रतीक्षा में! चन्द्रमा सर पर टंगे हुए थे! उन्हें सब मालूम था, हाँ सब मालूम! मै रह रह कर उस एकांकी रात्रि भ्रमणकारी को देखता! जो न जाने कितनी सदियों से अनवरत हराता आया है ऐसे समय समय के तमसपूर्ण नाभिय-औघड़ों को! चन्द्रमा को देखता और आंसू निकालता जाता! सलाम बजाता जाता! गर्दन थक जाती तो झटका खाके नीचे हो जाती! मै फिर से गर्दन उठा लेता!
तभी!
तभी जैसे कोई भारी-भरकम आकाशीय पिंड गिरा भूमि पर, दूर अँधेरे में! अनपढ़ और गंवार कीड़े मकौड़े जो बेसुरा तान छेड़े हुए थे, सब शांत हो गए!
मै खड़ा हुआ!
त्रिशूल सीधे हाथ में थामा!
सामने देखा!
वहाँ था! कोई न कोई अवश्य ही था! पर स्पष्ट नहीं था! मेरी अलख की रौशनी की हद में नहीं था! और तभी भूमि पर जैसे थाप सी हुई, कोई बढ़ा मेरी तरफ! और जो मैंने देखा, वो आजतक नहीं देखा!
उसको इंसान कहूँ, या बिजार! सांड या भैंसा! महाप्रेत कहूँ या फिर कोई राक्षस! यक्ष कहूँ कि कोई आततायी गान्धर्व! दैत्य या कोई दानव? क्या कहूँ????
भयानक शरीर उसका! केश रुक्ष और जटाओं में परिवर्तित! कुछ सर पर बंधे हुए और कुछ घुटनों तक आये हुए, हाथों में अस्थियों के भुजबंध और चांदी के भारी भारी कड़े! पांव में घुटनों तक चांदी के कड़े! छाती पर भयानक बाल! अस्थिमाल धारण किये हुए! स्फटिक की मालाएं, महारुद्र की घंटियाँ! मानव अस्थियों से बना दंड! भुजाओं में बंधे अस्थिमाल! कोहनी से नीचे भास्मिकृत अस्थियाँ! बंधी हुईं, लटकी हुईं मनकों की तरह! तीन फाल वाला बड़ा सा त्रिशूल, उस पर चार-पांच इंसानी मुंडों से बने डमरू बंधे थे!
और अब शरीर!
लम्बाई करीब आठ या साढ़े आठ फीट कम से कम! दानव! मेरी एक जांघ और उसकी कलाइयां, बराबर! मेरी छाती और उसका एक पाँव! लात मार दे तो सीधा उसी से मिलन. जिसने भेजा यहाँ पृथ्वी पर! चेहरा इतना चौड़ा कि अश्व भी शर्मा के भाग जाए! जबड़ा इतना बड़ा कि एक-दो मुगे तो बिना हड्डी निकाले ही चबा जाए! भयानक इतना कि कोई देख ले तो विस्मृति का रोग तत्क्षण मार जाए!
सच में ही नौमना! नाम साक्षात्कार कर दिया था उसने! किसी जिन्न से संकर प्राणी था वो, लगता है!
"कौन है तू?" उनसे सिंह की जैसी दहाड़ में पूछा,
ऐसी दहाड़ कि एक बार को मै भी सिहर गया!
"कौन है तू?" उसने कहा,
मैंने गर्दन उठा के उसको देखा, वो अकेला ही था!
मैंने अपना परिचय दे दिया!
"बस! बहुत हुआ, अब यहाँ से जा!" वो दहाड़ा!
"मै नहीं जाऊँगा!
"जाना होगा!" वो भर्रा के बोला,
"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
"तेरी इतनी हिम्मत?" वो चिल्ला के बोला,
मैंने कुछ नहीं कहा,
और तभी मैंने उसके पीछे एक एक किरदार को देखा! खेचर! भाभरा, किरली, भामा, शामा और शाकुण्ड!
"जा अब यहाँ से?" उसने धमकाया!
"क्यों?" मैंने कहा,
वो भयानक अट्टहास लगाते हुए हंसा!
"ये मेरा स्थान है" उसने कहा,
"स्थान था, अब नहीं!" मैंने कहा,
वो चुप हुआ!
"प्राणों से मोह नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो फिर से हंसा!
वो हंसता था तो उसका बड़ा सा घड़ेनुमा पेट नृत्य सा करता था!
"जा, बहुत हुआ" उसने पलटते हुए कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो फिर पलटा!
और अब उसने थूका मुझ पर! थूक मुझ तक आया! मेरी अलख काँप गयी, मेरी गोद में बैठने के लिए 'लालायित' हो गयी! वो सरंक्षण चाहती थी!
मैंने भी थूका उधर!
ये देख वो अब बौराया! गुस्से में चिल्लाया! उसकी चिल्लाहट से सभी किरदार लोप हो गए! रह गया केवल मै!
केवल मै!
अकेला!
यमदूत! साक्षात यमदूत! मृत्यु का परकाला! सच में ही था वो नौमना! मैंने ऐसा विशाल देहधारी नहीं देखा था कभी!
हाँ, मै अकेला था वहाँ! नितांत अकेला! जैसे कोई बिल्ली जंगली श्वानों के बीच फंस जाए, पेड़ पर चढ़ जाए और अब न नीचे उतरे बन और न ऊपर ही चढ़े!
"सुन ओ लड़के!" उसने अपनी साँस को विराम देते हुए कहा,
"कहो बाबा नौमना" मैंने कहा,
"चला जा यहाँ से" वो बोला,
"मै नहीं जाऊँगा!" मैंने भी स्पष्ट मंशा ज़ाहिर कर दी,
वो फिर से बिसबिसा के हंसा!
"ठीक है, मरना चाहता है तो यही सही" उसने कहा,
अब वो आगे बढ़ा, मै थोडा सा घबराया!
उसने अपने दोनों हाथ आगे किये और एक मंत्र पढ़ते हुए मेरी ओर करके हाथ खोल दिए! मै उसी काशन अपने स्थान से करीब २ फीट उड़ा और धम्म से पीछे गई गया! कमर में चोट लगी, पीठ के बल गिरने से पत्थर पीठ में चुभ गए, हाँ खून आदि नहीं निकला, ऐसा ताप उस! मै हैरान था, मेरे रक्षा-मंत्र को भेद डाला था बाबा नौमना ने! कमाल था, हैरतअंगेज़ और अविश्वश्नीय! खैर मै फिर से खड़ा हुस और अपनी कंपकंपाती अलख के पास आया!
"अब जा लड़के!" उसने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
अब मै ज्वैपाल-विद्या का जाप किया, उसे जागृत किया, विद्या जागृत हुई और मेरी रक्षा हेतु मुस्तैद हो गयी! नही करता तो बार बार ऐसा करते वो मेरी कमर ही तोड़ देता!
"नही समझा?'' उसने कहा,
मै कुछ नहीं बोला,
उसने फिर से वही मुद्रा अपनायी! दोनों हाथ आगे किये, मंत्र बुदबुदाये और मेरी और करके हाथ खोल दिए! मुझे झटका तो लगा लेकिन मै संभल गया! विद्या ने सम्भाल लिया, हाँ मेरी अलख की लौ मेरी गोद में शरण अवश्य लेने को आतुर हो गयी!
ये देख बाबा नौमना थोडा सा अचंभित हुआ! और फिर उसने अटटहास लगाया!
"ज्वैपाल!" उसने जैसे मजाक सा उड़ाया मेरा! 
मै चुप!
कहने के लिए कुछ था ही नहीं मेरे पास!
"जा, छोड़ दिया तुझे!" उसने धिक्कार के कहा मुझे!
मै चुप!
"जा! अब नहीं आना यहाँ कभी, दो टुकड़े कर दूंगा तेरे!" उसने कहा,
"नहीं जाऊँगा मै!" मैंने कहा,
"ज़िद न कर!" उसने ऐसा कहा जैसे मुझे समझाया हो!
"कोई ज़िद नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"मान जा! वापिस चला जा!" उसने फिर से कहा,
"असम्भव है बाबा!" मैंने कहा,
कयों?" उसने पूछा,
"मै सत्य के मार्ग पर हूँ, मुझे कैसा डर?" केह ही दिया मैंने,
वो अब फट कर हंसा! खौफनाक हंसी उसकी!
"सत्य!" उसने हँसते हँसते कहा,
"हाँ बाबा सत्य" मैंने भी मोदन किया!
"दिखाता हूँ!" उसने कहा,
अब उसने अपना त्रिशूल उठाया और भूमि पर एक वृत्त बना दिया! और फिर उसमे थूक दिया!
तभी उसकी क्रिया स्पष्ट हुई!
चौरासी डंक-शाकिनियां प्रकट हुईं! अपने शत्रु का भंजन करने हेतु!
अर्राया बाबा नौमना! बढ़ चलीं वे सभी मेरी तरफ!
मैंने तभी रिपुभान-चक्र का जाप किया और मै उसके सुरक्षा आवरण में खच गया! अब वे मेरा कुछ नहीं कर सकती थीं! जैसे एक गोश्त के टुकड़े पर सैंकड़ों चींटियाँ आ लिपटती हैं, वैसे ही वे सभी डंक-शाकिनियां मुझसे आ लिपटीं! रिपुभान-चक्र से जैसे उनके दांत भोथरे हो गए! वो एक एक करके लोप होती गयीं!
"वाह!" बोला बाबा नौमना!
ये व्यंग्य था या सराहना?
"वाह!" उसने कहा,
अब आप मेरी मनोस्थिति समझिये! मै नहीं जान पा रहा था कि ये प्रशंसा है या कोई व्यंग्य बाण!
"कौन है इस तेरा खेवक?" उसने पूछा,
खेवक! एक प्राचीन तांत्रिक-शब्द! अब प्रचलन में नहीं है!
मैंने अपने दादा श्री का नाम बता दिया उसका!
"बढ़िया खे गया तुझे! उसने कहा,
अब मुझे धन्यवाद कहना ही पड़ा! 
"अब मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"जाने को मत कहना" मैंने कहा,
वो फिर से हंसा!
"नहीं कह रहा!" उसने कहा,
"बोलिये" मैंने कहा,
"तेरे पास अभी वर्ष शेष हैं, सदुपयोग कर उनका!" वो बोला,
"वही कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"तू नहीं कर रहा!" उसने कहा,
"मै कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"तू नहीं कर रहा" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"मेरा कहना नहीं मान रहा तू!" उसने कहा,
वाद-प्रतिवाद में निपुण था बाबा नौमना!
"मैं कैसे मान लूँ? जाऊँगा नहीं मैं" मैंने कहा!
"पछतायेगा!" वो बोला,
"मेरा भाग!" मैंने कहा,
"मै अब खेल नहीं खेलूंगा लड़के!" उसने कहा,
"मुझे पता है!" मैंने कहा,
अब कुछ अल्पविराम!
वो आगे बढ़ा!
मैं वहीँ अलख पर डटा था, ईंधन डालकर और भड़का लिया था मैंने उसको! 
विकराल बाबा नौमना भयानक लग रहा था! मेरी इहलीला का कभी भी भक्षण कर सकता था वो!
"अब देख लड़के!" वो चिल्ला के बोला,
मैं तो तैयार था!
उसने त्रिशूल आगे किया और उसपर से डमरू उतारा एक! उसने एक ख़ास मुद्रा में डमरू बजाया!
और ये क्या???
भूमि में से जगह जगह सर्प निकलने लगे! विषैले भुजंग! ये माया नहीं थी! सर्प कुंडली मार कर बैठ गए थे, मुझे घेर के!
मैंने तब सर्प-मोहिनी विद्या जागृत की, महामोचिनी विद्या का जाप भी किया लेकिन सर्प लोप नहीं हुए! अब प्राण संकट में थे! ये तो वज्रपात सा था!
नौमना बाबा ने फिर से डमरू बजाया, और डमरू बजाते हुए जिसे वे सर्प उसके हाथ की कठपुतलियां हों, ऐसे व्यवहार करते हुए आने लगे मेरी तरफ! उनकी फुफकार ऐसी कि जैसे कोई रस्सी खींची जा रही हो कुँए से, जिसके सहारे कोई बड़ी सी बाल्टी लटकी हो!
महामोचिनी विद्या प्रभावहीन हो गयी थी! अब मैंने गुरु-आज्ञा ली और सर्पकुंडा नामक कन्या का आह्वान किया! सर्पकुंडा प्रकट हुई, मैंने नमन किया और वे सर्प भाग के पीछे हटे! जैसे कोई दिव्य-नौल(नेवला) देख लिया हो!
सर्पकुंड आने नृत्य की भावभंगिमा में अपने दोनों पाँव थिरकाए और वे सर्प जहां से आये थे वहीँ घुस गए! मैंने मस्तक झुकाया सर्पकुंडा के समख और वो भन्न से लोप हुई!
ये देख सूजन सी आ गयी चेहरे पर नौमना बाबा के! उसका वो प्रपंच भेद डाला था मैंने!
वो बेहद गुस्सा हुआ! अपने गले की मालाएं तोड़ के फेंक दीं!
"नौमना बाबा!" मैंने हंसा अब!
हालांकि मेरी ये हंसी मेरी जीत की तो क़तई नहीं थी, बस पारिस्थितिक हंसी थी! हाँ बस यही!
"सुन लड़के?" उसने कहा,
"जी?" अब मैंने सम्मान सूचक शब्द कहा!
"क्या चाहिए तुझे?" उसने पूछा,
"आप जानते हैं" मैंने कहा,
"हम्म!" उसने कहा,
और फिर से डमरू उठा लिया, मैं आसान से खड़ा हो गया, कोई नयी विपदा आने वाली थी, निश्चित ही!
तभी आकाश से कुछ महाभीषण प्रेत प्रकट हुए, गले में त्रिकोण धारण किये हुए! मैं जान गया, ये वज्राल महाप्रेत हैं! किसी भी शक्ति से टकराने वाली वज्राल महाप्रेत, कुल सोलह!
"अब नहीं बचेगा तू लड़के!" खिलखिला के हंसते हुए कहा नौमना बाबा ने!
सोलह आने सच थी उसकी बात!
मेरे पास वज्राल से बचने का कोई सटीक उपाय नहीं था! हाँ, कोई घाड़ पास में होता आसान के स्थान पर होता तो मैं निपट लेता!
तभी एक युक्ति काम आयी! मैंने फ़ौरन अपने चाक़ू से अपना जिव्हा-भेदन किया और रक्त की कुछ बूँदें लीं, बूँदें अलख में डालीं, अलख भड़की, मेरे मंत्र ज़ारी थे! और वहाँ वज्राल बढ़ चले थे मेरी ओर!
तभी मैंने आमुंडनी का आह्वान किया! वज्राल थम गए वहीँ के वहीँ! और थम गया आंकेहन चौड़ी कर बाबा नौमना!
भड़भड़ाती हुई आमुंडनी प्रकट हुई! मेरी रुकी हुई साँसें फिर चलने लगीं!
मैंने नमन किया उसको! उसने प्रयोजन भांपा और वो चल पड़ी वज्राल महा प्रेत के समूह की ओर! वे भाग खड़े हुए! जहां थे वहीँ से ऊपर उड़ चले! मैंने एक एक को देखा! सभी के सभी नदारद हो गए! मेरे सम्मुख आयी आमुंडनी तो मैंने मस्तक झुका दिया, वो भन्न से लोप हो गयी! अब मैंने बाबा नौमना को देखा! वो धम्म से नीचे बैठ गया!
"बस बाबा?" मैंने कहा,
वो कुछ नहीं बोला!
"बाबा?" मैंने फिर से पुकारा! 
अबकी बाबा ने एक माला मेरी ओर फेंक दी गले से उतार के!
मैं उठा और जाकर वो माला उठायी, ये माला इंसान के हाथ के पोरों की हड्डिओं की बनी थीं, उसमे बीच में मानव केश गुंथे हुए थे, डोर भी मानव-आंत से बनी थी!
"ये किसलिए बाबा?" मैंने पूछा,
"ये मेरा गुरु-माल है" उसने कहा,
हाथ काँप गए मेरे! जड़ हो गया शरीर! परखच्चे से उड़ने को तैयार मैं!
"किसलिए बाबा?" मैंने घुटनों पर बैठते हुए बोला,
"समय पूर्ण हुआ" उसने कहा,
"कैसा समय बाबा?" मैंने विस्मय से पूछा,
"तू जानता है" वो बोला,
"नहीं बाबा, मैं नहीं जानता" मैंने गर्दन हिलायी और माला अपनी छाती से लगायी!
"धारण कर ले इसे!" उसने कहा,
ओह! नौमना बाबा के गुरु की माला! मेरा अहोभाग्य! मैंने कांपते हाथों से माला धारण कर ली!
"बाबा डोम! वे हैं मेरे गुरु!" वो बोला,
कुछ आहट हुई!
मैंने आसपास देखा!
सभी मौजूद थे वहाँ!
सभी!
कुछ देखे और कुछ अनदेखे!
वे सभी वहीँ खड़े थे, समूह में! शांत! जैसे बरसों से किसी की राह ताक़ रहे हों! जैसे कोई लेने आएगा उन्हें! जैसे भटकाव समाप्त!
शाकुण्ड सबसे पहले आये मेरे पास!
"उठ बेटा!" वे बोले,
मै मंत्र-मोहित सा उठ गया!
बरसों बीत गए हम प्रतीक्षा में!" वे बोले,
"प्रतीक्षा?" मैंने मन ही मन सोचा!
"हाँ, बरसों गुजर गए!" भाभर ने कहा,
मैंने भाभर को देखा!
संकुचाते हुए खड़ी थी वो!
"मै इसीलिए लिवा कर आया था तुम्हे!" खेचर ने कहा,
अब मै समझा!
भामा और शामा आगे आयीं अब! अपनी कटारें गिरा दीं ज़मीन पर, उनकी दुर्गन्ध, सुगंध में परिवर्तित हो गयी!
अब मेरी हिम्मत बढ़ चली! मै आगे बढ़ा! बाबा नौमना के पास! वो बैठा हुआ था, और बैठे हुए भी वो मेरे क़द के बराबर ही आ रहा था!
मैंने उसके समक्ष हाथ जोड़े! बहुत ऊंचा दर्ज़ा था बाबा नौमना का! बाबा नौमना मुस्कुराए!
"बादल छंट गए! अन्धकार मिट गया! आज!" वे बोले,
मुझे इतना सुकून! इतना सुकून कि जैसे मै उसका मद बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा, अपना भार भी सहन नहीं कर पाऊंगा, गिर जाऊँगा भूमि पर! तभी मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने, मैंने पीछे मुडकर देखा, ये बाबा भेरू था! मैंने प्रणाम किया, उसने प्रणाम स्वीकार किया! और मुस्कुराया!
"धन्य है तू और तेरा खेवक!" वो बोला!
मैंने गर्दन झुक कर स्वीकार किया!
"सुनो?" शाकुण्ड ने कहा,
"आदेश?" मैंने कहा,
"पिंजरा टूट गया, अब उड़ना है!" वे बोले,
मै मर्म समझ गया!
"अवश्य!" मैंने कहा,
मै पाँव छूने झुका बाबा शाकुण्ड के!
"नहीं" वे बोले,
मुझे समझ नहीं आया!
"अभी नहीं" वे बोले,
अब मै समझ गया!
"सुनो" ये नौमना बाबा की आवाज़ थी!
मै वहाँ गया!
"किरली का मंदिर निकालो" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"वहाँ हमारा स्थान बनाना" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"सभी का" वे बोले,
"अवश्य" मैंने गर्दन भी हिलाई ये कह के!
शान्ति! एक अजीब सी शान्ति!
"कुछ चाहिए?" बाबा भेरू ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
मुस्कुरा गया बाबा भेरू!
"मै कल मंदिर निकलवाता हूँ बाबा नौमना!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"अब हम वहीँ मिलेंगे!" वे बोले,
"जैसी आज्ञा!" मैंने कहा और आँखें बंद कीं!
और जब आँखें खोलीं तो वहाँ कोई नहीं था!
मै अत्यंत भारी मन से लौट पड़ा अपनी अलख के पास! और बुक्का फाड़ के रोया! आंसू न थमे! मै रो रो के सिसकियाँ भरने लगा! और लेट गया! मै बाबा नौमना के प्रबाव में था! एक असीम सा सुख! एक अलग ही सुख!
मै होश खो बैठा!
बेहोश हो गया!
जब मेरी आँख खुली तो मै बिस्तर पर लेटा था, कमरा जाना पहचाना लगा, ये हरि साहब का घर था! चक्र घूमा स्मृति का! सब याद आने लगा! मै चौंक के उठ गया! कमरे में मालती जी, हरि साहब, क़य्यूम भाई और शर्मा जी मेरे बिस्तर पर आ बैठे थे!
"अब कैसे हैं गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"मै ठीक हूँ, कब आया मै यहाँ?'' मैंने पूछा,
"सुबह ५ बजे" वे बोले,
मैंने घडी देखी, दस बज चुके थे!
"उठिए आप सभी" मैंने कहा और मै भी उठ गया, मै जस का तस था, न नहाया था न कुछ और, बस हाथ-मुंह धोया और कपडे बदल कर आया उनके पास!
"कहीं जाना है?" हरि साहब ने पूछा,
"हाँ, खेतों पे" मैंने कहा,
"वहाँ?" वे बोले,
"हाँ, कुछ खुदाई करनी है वहाँ, करवानी है, शंकर और दुसरे मजदूरों को तैयार करवाइए आप अभी" मैंने कहा,
"मै अभी फ़ोन करता हूँ" वे बोले,
और फिर कोई दस मिनट के बाद हम चल पड़े वहाँ से खेतों की और,
वहाँ शंकर और, और ५ आदमी तैयार थे, फावड़े और गैंती लेकर! मै फ़ौरन ही उनको अपने पीछे पीछे ले आया, वहीँ पपीते और केले के पेड़ों के पास, और एक जगह मैंने इशारा किया, मुझे दूर भाभरा खड़ी दिखाई दी, उसने बता दिया इशारा करके, ये वही जगह थी यहाँ से मुझे धक्का देकर भगाया गया था! मैंने वहीँ से खुदाई करवानी आरम्भ की, भाभरा लोप हो गयी!
चारपाइयां आ गयीं, हम वहीँ बैठ गए! खुदाई आरम्भ हो गयी! मै लेट गया, और आँखें बंद कर लीं, गत-रात्रि की सभी घटनाएं मेरे सामने से गुजर गयीं, तभी मेरा हाथ उस गुरु-माल पर गया, आनंद! असीम आनंद!
दोपहर हुई और फिर शाम!
तभी शंकर आया वहाँ, कम से कम दस फीट खुदाई हो चुकी थी और तब एक दीवार दिखाई दी, पत्थर की! अब वहाँ से घड़े, सिल और पत्थर निकलने लगे! और खुदाई की! रात भर खुदाई हुई, बार बार रुक कर और तब एक छोटा गोल मंदिर झाँकने लगा वहाँ! तभी वहाँ एक घडा गिर दीवार में से निकल कर, मैंने वो उठाया, हिलाया, उसमे कुछ था! घड़े का मुंह मिट्ठी की ठेकरी से ही बंद किया गया था! मैंने वो हटाया, अन्दर सोना था! सिक्के, भारी भारी सिक्के! ये मेहनताना था! मंदिर बनवाने का! मै सब जानता था! एक सिक्के का फोटो ये है--



और मित्रगण! तीन दिवस पश्चात वहाँ से एक मंदिर निकल आया! एक छोटा मंदिर, उसका प्रांगण! ये खेड़ा-पलट था! वस्तुतः ये वही था! इसी में मृत्यु हुई होगी वहाँ उनमे से कईयों की!
अब हरि साहब आये मेरे पास!
"कमाल हो गया गुरु जी" वे बोले,
"अभी काम बाकी है" मैंने कहा,
"नया बनवाना है, यही न?" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वे बोले,
"सिक्कों का कुल वजन कितना निकला?" मैंने पूछा,
"एक किलो और साढ़े सात सौ ग्राम" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
"सब यहीं लगा दूंगा गुरु जी" वे बोले,
"अत्युत्तम!" मैंने कहा,
अब मैंने उनको समझाया कि वहाँ कब, क्या और कैसा करना होगा, उन्होंने इत्मीनान से सुना और अमल करने का फैंसला लिया!
अब शर्मा जी आ गए!
"आइये" मैंने कहा,
"कितना भव्य मंदिर है, मै अभी देख कर आया हूँ, लाल रंग का!" वे बोले,
"हाँ, अब साफ़ सफाई करवा दीजिये वहाँ" मैंने कहा,
"कह दिया मैंने" वे बोले,
"बहुत बढ़िया" वे बोले,
"हरी साहब, आप इन मजदूरों के परिवार को भोजन और नए वस्त्र और कुछ धन दीजिये आज ही!" मैंने कहा,
"जी ज़रूर" वे बोले,
अब मै एक चारपाई पर बैठ गया!
उसके अगले दिन, हरि साहब ने अपने मजदूरों को पैसा दे दिया, उनके बालक-बालिकाओं के नाम पैसा जमा भी करा दिया, कुछ पैसा उन्होंने दान भी कर दिया, सभी खुश थे!
और फि वो तिथि या दिवस या रात्रि आ गयी जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार था! उस रात करीब १ बजे मै मंदिर पर पहुंचा, मैए किसी को भी साथ ना लिया, शर्मा जी को भी नहीं, ये मुक्ति-क्रिया था, मुझे अकेले को ही करनी थी, मै साजोसामान लेकर आया था, मै उसी मंदिर की भूमि में पहुंचा और आसान लगा लिया, आँखें बंद कीं और बाबा नौमना का आह्वान करने लगा, कुछ देर में ही मेरे सर पर किसी ने हाथ रखा, ये बाबा शाकुण्ड थे!
"उठो!" वे बोले,
मै उठ गया,
"हम सब आ गए हैं!" वे बोले,
मैंने नज़रें घुमा कर देखा, सभी वहाँ खड़े थे! मुस्कुराते हुए!
मै सीधा बाबा नौमना के पास गया! उन्होंने मुझे देखा, मेरे सर पर हाथ रखा! मेरे आंसू छलक गए! मैंने अपने गले से वो गुरु-माल उतार और फिर बाबा के चरणों में रख दिया!
इस से पहले वो कुछ कहते मैंने ही कहा, "मै मनुष्य हूँ, लोभ, लालच, मोह, काम, क्रोध लालसा कूट कूट के भरी है, अब ना सही, कभी बाद में कोई भी एक मेरे हृदय में सत्ता क़ायम कर सकता है, फिर मेरा वजूद नहीं रह जाएगा कुछ भी!कोई भी सत्तारूढ़ हुआ तो मै, मै नहीं रहूँगा और ये गुरु-माल मेरे लिए फंदा बन जाएगा, बाबा!" मैंने कहा,
वो मुस्कुराये और गुरु-माल उठाया! अपने हाथ में रखा!
"इसको धारण कर लो!" उन्होंने खा,
"नहीं कर सकता!" ऩीने कहा,
"ये आदेश है" वे हंस के बोले,
अब मै आदेश कैसे टालता! ले लिया मैंने! मित्रगण! आज भी मेरी हिम्मत नहीं होती उसको धारण करने की! मैंने सम्भाल के रखा है उसको अपने दादा श्री की वस्तुओं के साथ!
"हमे जाना है अब" भेरू ने कहा,
"उफ़! अब सब ख़तम!" मेरे दिल में आया ये विचार!
मित्रगण, मैंने उसी समय मुक्ति-क्रिया आरम्भ की और सबसे पहले रेखा को पार किया बाबा शाकुण्ड ने! आशीर्वाद देते हुए, फिर भामा-शामा, फिर भाभरा, फिर किरली! फिर भेरू और फिर खेचर! जाने से पहले खेचर मुझसे गले मिला!
और अंत में बाबा नौमना उठे! मुझे कुछ बताते हुए, कुछ सिखाते हुए विदा लेते हुए आशीर्वाद देते हुए हाले गए! पार हो गए! रह गया मै अकेला! अकेला ये घटना सुनाने के लिए! लेकिन मै कही भूल नहीं सका आज तक उनको!
मित्रगण! वहाँ एक मंदिर बनवा दिया गया, आज वहाँ भक्तगण आते हैं, वहाँ सभी के स्थान बने हैं! पूजन हो रहा है उनका! सच्चाई मै जानता हूँ, या वो सब जो इस घटना के गवाह हैं!
वक़्त बीत गया है! लेकिन मुझे आज भी लगता है मै आवाज़ दूंगा तो आ जायेंगे बाबा नौमना! लेकिन आवाज़ दे नहीं पाया हूँ आज तक! पता नहीं क्यों!
मै दो महीने पहले गया था वहाँ, जाना पड़ा था, आज वो स्थान रौनकपूर्ण है! फल-फूल सब है वहाँ! वो मंदिर! उस पर लहराता ध्वज! मै देख कर आया वही सब स्थान जो मैंने देखे थे भेरू के साथ, बाबा नौमना के साथ!
मैंने ये घटना इसीलिए यहाँ लिखी कि आप लोगों तक वो गुमनाम साधक प्रकाश में आ जाएँ! आशा करता हूँ इस घटना का एक एक किरदार आपको याद रहेगा, आपकी कल्पना में! साकार हो उठेंगे वे सभी!
आज हरि साहब का काम-काज चौगुना और तीन पोते हैं! छोटे लड़के की भी शादी हो गयी, लड़की भी खुश है! सभी पर नूर बरसा है बाबा नौमना का!
और,
आप सभी का धन्यवाद इस घटना को पढ़ने के लिए!

गुना मध्य प्रदेश की एक घटना


संध्या का समय हो चुका था लगभग, सूर्य अपने अस्तांचल में प्रवेश करने की तैयारी करने ही वाले थे, पक्षी आदि अपने अपने घरौंदों की ओर उड़ रहे थे, कुछ एकांकी और कुछ गुटों में! लोग-बाग़ कुछ पैदल और अपनी अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे आगे खाली खाने के डब्बे बांधे और कुछ भाजी-तरकारी लिए, सवारी गाड़ियों में जिसे यहाँ के निवासी आपे कहते हैं, भरे पड़े थे खचाखच! कुल मिलकर लग रहा था की दिवस का अवसान हो चुका है और और अब रात्रि के आगमन की बेला आरम्भ हो चुकी है! सड़क किनारे खड़े खोमचे अब प्रकाश से जगमगा उठे थे, सड़क किनारे एक सरकारी शराब के ठेके पर खड़े वाहन गवाही दे रहे थे कि मदिरा-समय हो चुका है! उधर ही आसपास कुछ ठेलियां भजी खड़ी थीं जिन पर ठेके से सम्बंधित वस्तुएं ही बेचीं जा रही थीं, गिलास, नमकीन, उबले चने इत्यादि! तभी हामरी गाड़ी चला रहे क़य्यूम भाई ने भी गाड़ी उधर ही पास में उसी ठेके के पास लगा दी, थोड़ी सी आगे-पीछे करने के बाद गाड़ी खड़ी करने की एक सही जगह मिल ही गयी, सो गाड़ी वहीँ लगा दी गयी, गाड़ी का इंजन बंद हुआ और हम दरवाजे खोल कर बाहर आये, ये गाड़ी जीप थी, क़य्यूम भाई ने नई ही खरीदी थी और शायद पहली बार ही वो शहर से इतनी दूर यहाँ आई थी!
हम बाहर उतरे तो अपनी अपनी कमर सीधी की, आसपास काफी रौनक थी, ये संभवतः किसी कस्बे का ही आरम्भ था, मदिरा-प्रेमी वहीँ भटक रहे थे, कुछ आनंद ले चुके थे और अब वापसी पर थे और कुछ अभी अभी आये थे जोशोखरोश के साथ!
"क्या चलेगा?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
मै कुछ नहीं बोला तो क़य्यूम भाई की निगाह शर्मा जी की निगाह से टकराई, तो शर्मा जी ने मुझसे पूछा, "क्या लेंगे गुरु जी?"
"कुछ भी ले लीजिये" मैंने कहा,
"बियर ले आऊं?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"नहीं, बियर नहीं, आप मदिरा ही ले आइये" मैंने कहा,
क़य्यूम भाई मुड़े और चल दिए ठेके की तरफ!
"अन्दर बैठेंगे या फिर यहीं गाड़ी में?" शर्मा जी ने मुझ से पूछा,
"अन्दर तो भीड़-भाड़ होगी, यहीं गाड़ी में ही बैठ लेंगे" मैंने कहा,
थोड़ी देर बाद ही क़य्यूम भाई आये वहाँ, हाथ में मदिरा की दो बोतल लिए और साथ में ज़रूरी सामान भी, शर्मा जी ने गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोला और क़य्यूम भाई ने सारा सामान वहीँ रख दिया, फिर हमारी तरफ मुड़े,
"आ रहा है लड़का, मैंने मुर्गा कह दिया है, लाता ही होगा, आइये, आप शुरू कीजिये" क़य्यूम भाई ने कहा,
मै और शर्मा जी अन्दर बैठे, एक पन्नी में से कुछ कुटी हुई बरफ़ निकाली और शर्मा जी ने दो गिलास बना लिए, क़य्यूम भाई नहीं पीते थे, ये बात उन्होंने रास्ते में ही बता दी थी, वो बियर के शौक़ीन थे सो अपने लिए बियर ले आये थे, थोड़ी देर में ही दौर-ए-जाम शुरू हो गया, एक मंझोले कद का लड़का मुर्गा ले आया और एक बड़ी सी तश्तरी में डाल वहीँ रख दिया, आखिरी चीज़ भी पूरी हो गयी!
ये स्थान था ग्वालियर से गुना के बीच का एक, हमको ग्वालियर से लिया था क़य्यूम भाई ने, हम उन दिनों ललितपुर से आये थे ग्वालियर, ललितपुर में एक विवाह था, उसी कारण से आना हुआ था, और क़य्यूम भाई गुना के पास के ही रहने वाले थे, उनका अच्छा-ख़ासा कारोबार था, सेना आदि के मांस सप्लाई करने का काम है उनका, तीन भाई हैं, तीनों इसी काम में लगे हुए हैं, क़य्यूम भी पढ़े लिखे और रसूखदार हैं और बेहद सज्जन भी!
"और कुछ चाहिए तो बता दीजिये, अभी बहुत वक़्त है" क़य्यूम भाई ने कहा,
"अरे इतना ही बहुत है!" शर्मा जी ने कहा,
"इतने से क्या होगा, दिन से चले हैं, अब ट्रेन में क्या मिलता है खाने को! खा-पी लीजिये रज के!" क़य्यूम भाई ने कहा,
इतना कह, अपनी बियर का गिलास ख़तम कर फिर से चल दिए वहीँ उसी दूकान की तरफ!
बात तो सही थी, जहां हमको जाना था, वहाँ जाते जाते कम से कम हमको अभी ३ घंटे और लग सकते थे, अब वहाँ जाकर फिर किसी को खाने के लिए परेशान करना वो भी गाँव-देहात में, अच्छा नहीं था, सो निर्णय हो गया कि यहीं से खा के चलेंगे खाना!
गाड़ी के आसपास कुछ कुत्ते आ बैठे थे, कुछ बोटियाँ हमने उनको भी सौंप दीं, देनी पड़ीं, आखिर ये इलाका तो उन्ही का था! उनको उनका कर चुकाना तो बनता ही था! वे पूंछ हिला हिला कर अपना कर वसूल कर रहे थे! जब को बेजुबान आपका दिया हुआ खाना खाता है और उसको निगलता है तो बेहद सुकून मिलता है! और फिर ये कुत्ता तो प्रहरी है! मनुष्य समाज के बेहद करीब! खैर,
क़य्यूम भाई आये और साथ में फिर से पन्नी में बरफ़ ले आये, बरफ़ कुटवा के ही लाये थे, ताकि उसके डेले बन जाएँ और आराम से गिलास में समां सकें! अन्दर आ कर बैठे और जेब से सिगरेट का एक पैकेट निकाल कर दे दिया शर्मा जी को, शर्मा जी ने एक सिगरेट निकाली और सुलगा ली, फिर दो गिलासों में मदिरा परोस तैयार कर दिए! थोड़ी ही देर में वो लड़का आया और फिर से खाने का वो सामान वहीँ रख गया! हम आराम आराम से थकावट मिटाते रहे!
मित्रगण, हम यहाँ एक विशेष कारण से आये थे, क़य्यूम भाई के एक मित्र हैं, हरि, हरि साहब ने गुना में कुछ भूमि खरीदी थी, भूमि कुछ तो खेती-बाड़ी आदि के लिए और कुछ बाग़ आदि लगाने के लिए ली गयी थी, दो वर्ष का समय हो चुका था, भूमि तैयार कर ली गयी थी, परन्तु उस भूमि पर काम कर रहे कुछ मजदूरों ने वहां कुछ संदेहास्पद घटनाएं देखीं थीं जिनका कोई स्पष्टीकरण नहीं हुआ था, स्वयं अब हरि ने भी ऐसा कुछ देखा था, जिसकी वजह से उसका ज़िक्र उन्होंने क़य्यूम भाई से और क़य्यूम भाई ने मेरे जानकार से किया, सुनकर ही ये तो भान हो गया था कि वहाँ उस स्थान पर कुछ तो विचित्र है, कुछ विचित्र, जिसके विषय में जानने की उत्सुकता ने अब सर उठा लिया था, कुछ चिंतन-मनन करने के बाद मैंने यहाँ आने का निर्णय लिया और अब हम उस स्थान से महज़ थोड़ी ही दूरी पर थे!
हमको गुना में नाना खेड़ी जाना था, हरि की रिहाइश वहीँ थी, गुना शहर का भी अपना ही एक अलग इतिहास है, इसका इतिहास काफी समृद्ध और रोमांचक है, पुराने अवंति साम्राज्य का ही एक हिस्सा रहा है गुना, बाद में कई और सत्ताधारी हुए और बाद में जा कर गुना मध्य प्रदेश में शामिल हुआ!
"और कुछ ले आऊं गुरु जी?" क़य्यूम भाई के सवाल ने मेरी तन्द्रा भंग की!
"अरे नहीं! यही बहुत है!" मैंने कहा,
"रुकिए, अभी आया" क़य्यूम भाई उठे और चल दिए फिर से ठेके की तरफ,
यहाँ मैंने एक और बड़ा सा पैग बनाया और खींच गया, फिर शर्मा जी से सुलगती हुई सिगरेट ले ली, कश मारा और सिगरेट वापिस उनको पकड़ा दी, उन्होंने भी एक जम कर कश मारा! धुंए को आज़ाद कर दिया उस सिगरेट से!
"गुरु जी, हरि ने जो भी बताया है वो है तो वैसे हौलनाक ही!" वे बोले,
"हाँ, अब तक तो हौलनाक ही है!" मैंने कहा,
"क्या लगता है आपको वहाँ?" उन्होंने पूछा,
"जाकर देखते हैं!" मैंने कहा,
"हाँ! कारण अभी स्पष्ट नहीं है, कभी-कभार प्रेत भी ऐसी माया रच दिया करते हैं!" उन्होंने सुझाया!
"हाँ, ये बात सच है शर्मा जी!" मैंने कहा,
तभी क़य्यूम भाई आये, साथ में वही मंझोले कद का लड़का भी था, उसके हाथ में इस बार कुछ नया ही व्यंजन था, उसने वो हमको थमाया, हमने थामा और वहीँ उस तश्तरी में रख लिया! लड़का चला गया वहाँ से! क़य्यूम भी पानी और बरफ ले आये थे और!
"ज्यादा हो जाएगा ये सब क़य्यूम भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"कैसे ज्यादा! आप लीजिये बस!" उन्होंने हंस के कहा!
हमने एक एक टुकड़ा उठाया और फिर शर्मा जी ने मदिरा परोसना आरम्भ किया!
अब क़य्यूम भाई आ बैठे अपनी सीट पर!
"क़य्यूम भाई?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी, पूछिए?" उन्होंने ध्यान देते हुए कहा,
"आपने हरि जी के बार में कुछ बातें बतायीं" मैंने कहा,
क़य्यूम भाई अपनी बियर खोलने के लिए अपना अंगूठा चलाया और सफलता मिल गयी! झक्क की आवाज़ करते हुए बियर खुल गयी!
"हाँ, गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हरि साहब ने ये ज़मीन २ साल पहले ली थी?" मैंने पूछा,
''हाँ गुरु जी" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
"मैंने ही दिलवाई थी, दरअसल मेरे एक जानकार थे उन्ही से" उन्होंने बताया,
"अच्छा, तो उन्होंने क्यों बेचीं?" मैंने पूछा,
"ये तो पता नहीं, उन्होंने जिक्र किया था की वे अपनी ज़मीन बेचना चाहते हैं" वे बोले,
अब तक शर्मा जी ने एक गिलास और बना दिया था, सो मैंने आधा ख़तम किया और बात फिर से ज़ारी रखी,
"मेरा पूछने का आशय था कि क्या ऐसी घटनाएं उनके साथ भी हुई थीं?" मैंने पूछा,
"उन्होंने तो कभी नहीं बताया ऐसा कुछ?'' वे बोले,
"हम्म!" मैंने कहा और बाहर देखा, बाहर दम हिलाते हुए कुत्ते खड़े थे, अबकी बार दो और बढ़ गए थे, मैंने एक एक बोटी उनकी तरफ उछाल दी, बड़ी सहजता से अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए सभी का मुंह चलने लगा!
एक बोतल ख़तम हो गयी थी, बड़े सम्मान के साथ मैंने वो बोतल पास में ही लगे एक पेड़ के नीचे फेंक दी!
दूसरी बोतल खोल ली गयी!
"क्या नाम है आपके जानकार का?" मैंने पूछा,
"जी अनिल" वे बोले,
"अच्छा, तो अनिल ने ही ये ज़मीन हरि को बेचीं!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
"तो क्या अनिल जी से मिला जा सकता है अगर ज़रुरत पड़ी तो?" मैंने पूछा,
"हाँ हाँ! क्यों नहीं!" वे बोले,
अब तक एक गिलास और बना दिया शर्मा जी ने, एक ही बनाया था, शर्मा जी ने अब ना कर दी थी, उनका कोटा पूरा हो गया था! मै अभी डटा हुआ था! मुठभेड़ ज़ारी थी मेरी अभी मदिरा से! वो मुझे पस्त करना चाहती थी और मै उसको!
मैंने एक टुकड़ा उठाया, फाड़ा और चबाने लगा! साढ़े ८ का समय हो चला था तब तक! शर्मा जी उठे और गाड़ी से बाहर निकले, कमर सीधी की और एक सिगरेट और पजार ली! वो लघु-शंका से निवृत होने चले गए!
"क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"बस अब निकलते हैं यहाँ से" मैंने कहा,
"हाँ, निबट लीजिये, और कुछ चाहिए हो तो बताइये" वे बोले,
"नहीं, और नहीं, बस!" मैंने कहा,
फिर मैंने दो पैग और लिए, निबट गया मै और शर्मा जी भी आ बैठे और हम अब चल पड़े अपनी मंजिल की ओर! गाड़ी दौड़ पड़ी सरपट!
जिस समय हम वहाँ पहुंचे, रात के पौने दस का समय था, हरि साहब के भी फ़ोन आ गए थे, उनसे बात भी हो गयी थी, तो हम सीधे हरि साहब के पास ही गए, उनके घर पर ही, हरि साहब ने शालीनता से स्वागत किया हमारा, खूब बातचीत हुई और फिर रात्रि में निंद्रा हेतु हमने उनसे विदा ली, एक बड़े से कमरे में इंतजाम किया गया था हमारे सोने का! ये घर कोई पुरानी हवेली सा लगता था! खाना खा ही चुके थे, नशा सर पर हावी था ही, थकावट सो अलग, सो बिस्तर में गिरते ही निंद्रा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया!
जैसे लेटे थे उसी मुद्रा में सो गए!
सुबह जब आँख खुली तो सुबह के आठ बज चुके थे! हाँ, नींद खुल कर आई थी सो थकावट जा चुकी थी! दो चार ज़बरदस्त अंगडाइयां लेकर बदन के हिस्से आपस में जोड़े और खड़े हो गए!
फिर नित्य-कर्मों से फारिग होने के पश्चात नहाने के लिए मै सबसे पहले गया, स्नान किया, ताजगी आ गयी! फिर शर्मा जी गए और कुछ देर में वो भी वापिस आ गए नहा कर!
"यहाँ मौसम बढ़िया है" वे बोले,
"हाँ, इन दिनों में अक्सर ऐसा ही होता है यहाँ मौसम, दिन चढ़े गर्मी होती है और दिन ढले ठण्ड!" मैंने कहा,
"हाँ, रात को भी मौसम बढ़िया था, सफ़र आराम से कट गया इसीलिए!" वे बोले,
तभी कमरे में हरि साहब ने प्रवेश किया, उनके साथ एक छोटी सी लड़की भी थी, ये उनकी पोती थी शायद, नमस्कार हुई और हम तीनों ही वहाँ बैठ गए, लड़की भी नमस्ते करके बाहर के लिए दौड़ पड़ी! हँसते हुए!
"पोती है मेरी!" वे बोले,
"अच्छा!" शर्मा जी ने कहा,
तभी चाय आ गयी, ये उनका नौकर था शायद जो चाय लाया था, उसने ट्रे हमारी तरफ बढ़ाई, उसमे कुछ मीठा, नमकीन आदि रखा था, मैंने थोडा नमकीन उठाया और हमने अपने अपने कप उठा लिए और चाय पीनी शुरू की, नौकर चला गया तभी,
"और कोई परेशानी तो नहीं हुई आपको?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं नहीं! क़य्यूम भाई के साथ आराम से आये हम यहाँ!" मैंने कहा,
"कुछ बताया क़य्यूम भाई ने आपको?" उन्होंने चुस्की लेते हुए पूछा,
"हाँ बताया था" मैंने कहा,
"गुरु जी, बात उस से भी आगे है, मैंने क़य्यूम भाई को पूरी बात नहीं बतायी, मैंने सोचा की जब आप यहाँ आयेंगे तो आपको स्वयं ही बताऊंगा" वे बोले,
"बताइये?" मैंने उत्सुकता से पूछा,
"गुरु जी, जिस दिन से मैंने वो ज़मीन खरीदी है, उसी दिन से आप लगा लीजिये कि दिन खराब हो चले हैं" वे अपना कप ट्रे में रखते हुए बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"जी मेरे तीन लड़के हैं और एक लड़की, दो लड़के ब्याह दिए हैं और लड़की भी, अब केवल सबसे छोटा लड़का ही रहता है, नाम है उसका नकुल, पढाई ख़त्म कर चुका है और अब वकालत की प्रैक्टिस कर रहा है ग्वालियर में, दोनों बेटे भी अपने अपने काम में मशगूल हैं, एक मुंबई रहता है अपने परिवार के साथ, दूसरा आगरे में है अपने परिवार के साथ, उसकी भी नौकरी है वहाँ, अध्यापक है, आजकल यहीं आया हुआ है अपने परिवार के साथ, लड़की जो मैंने ब्याही है वो अहमदाबाद में है, २ वर्ष हुए हैं ब्याह हुए" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
उन्होंने अपना चश्मा उतारा और रुमाल से साफ़ करते हुए बोले, " लड़की ससुराल में खुश नहीं है, बड़े लड़के का बड़ा लड़का, मेरा पोता बीमार हो कर ३ वर्ष का गुजर गया, अब कोई संतान नहीं है उसके, जो लड़का यहाँ आया हुआ है.." वे बोले,
मैंने तभी बात काटी और पूछा, "नाम क्या है जो आया हुआ है?"
"दिलीप" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"मै कह रहा था कि जो लड़का यहाँ आया हुआ है, उसके २ लडकियां ही हैं, लड़का कोई नहीं, उसकी पत्नी के गर्भ में कोई बीमारी बताई है डॉक्टर्स ने और अब संतान के लिए एक तरह से मना ही कर दिया है" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"एक बात और, मेरा अपना व्यवसाय है यहाँ, व्यवसाय लोहे का है, वो भी एक तरह से बंद ही पड़ा है दो साल से, कोई उछाल नहीं है" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"अब वही बात मै कह रहा था, कि जब से मैंने यहाँ वो ज़मीन ली है तबसे सबकुछ जैसे गड्ढे में चला गया है" वे बोले,
"अच्छा, और उस से पहले?" मैंने पूछा,
"सब ठीक ठाक था! कभी मायूसी नहीं थी घर-परिवार में!" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"हाँ जी, इस ज़मीन में ऐसा कुछ न कुछ ज़रूर है जिसकी वजह से ऐसा हुआ है हमारे साथ" वे बोले,
"क़य्यूम भाई ने बताया था कि वहाँ कुछ गड़बड़ तो है, अनेक मजदूरों ने भी देखा है वहाँ ऐसा कुछ, मुझे बताएं कि क्या देखा है ऐसा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, देखा है, वहाँ ४ मजदूर अपने परिवारों के साथ रहते हैं, उन्होंने वहाँ देखा है और महसूस भी किया है" वे बोले,
"क्या देखा है उन्होंने?'' मैंने पूछा और मेरी भी उत्सुकता बढ़ी अब!
"वहां एक मजदूर है, शंकर, उसने बताया था मुझे एक बार कि उसने और उसकी पत्नी ने खेत में दो औरतों को देखा है घूमते हुए, हालांकि उन औरतों ने कभी कुछ कहा नहीं उनको" वे बोले,
"दो औरतें?'' मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"जहां पानी लगाया जाता है, उसके दो घंटे के बाद वो जगह सूख जाती है अपने आप! जैसे वहाँ कभी पानी लगाया ही नहीं गया हो!" वे बोले,
बड़ी अजीब सी बात बताई थी उन्होंने!
"ये एक ख़ास स्थान पर है या हर जगह?" मैंने पूछा,
"खेतों में ऐसे कई स्थान हैं गुरु जी, जहां ऐसा हो रहा है" वे बोले,
सचमुच में बात हैरत की थी!
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, शुरू शुरू में हमने एक पनिया-ओझा बुलवाया था, उसने पानी का पता तो बता दिया लेकिन ये भी कहा कि यहाँ बहुत कुछ गड़बड़ है और ये ज़मीन फलेगी नहीं हमको, उसका कहना सच हुआ, ऐसा ही हुआ है अभी तक, वहाँ से घाटे के आलावा कुछ नहीं मिला आज तक!" वे बोले,
"तो आपने किसी को बुलवाया नहीं?" मैंने पूछा, मेरे पूछने का मंतव्य वे समझ गए,
"बुलाया था, तीन लोग बुलाये थे, दो ने कहा कि उनके बस की बात नहीं है, हाँ एक ने यहाँ पर पोरे ग्यारह दिन पूजा की थी, लेकिन उसके बाद भी जस का तस! कोई फर्क नहीं पड़ा!" वे बोले,
स्थिति बड़ी ही गंभीर थी!
"आपने अनिल जी से इस बाबत पूछा?" मैंने सवाल किया,
"हाँ, उन्होंने कहा कि ऐसा तो उनके यहाँ न जाने कब से हो रहा है, किसी को चोट नहीं पहुंची तो कभी ध्यान नहीं दिया" वे बोले,
"मतलब उन्होंने अपने घाटे से बचने के लिए और आपने कच्चे लालच में आ कर ये ज़मीन खरीद ली!" मैंने कहा,
"हाँ जी, इसमें कोई शक नहीं, कच्चा लालच ही था मुझमे!" वे हलके से हँसते हुए ये वाक्य कह गए!
"कोई बात नहीं, मई भी एक बार देख लूँ कि आखिर क्या चल रहा है वहाँ?" मैंने कहा,
"इसीलिए मैंने आपको यहाँ बुलवाया है गुरु जी, ललितपुर वाले हरेन्द्र जी से भी मैंने इसी पर बात की थी" वे बोले,
"अच्छा, हाँ, मुझे बताया था उन्होंने" मैंने कहा,
तभी क़य्यूम भाई अन्दर आये, नमस्कार आदि हुई और वो बैठ गए,
"कुछ पता चला गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"अभी तो मैंने वहाँ की कुछ बातें सुनी हैं, आज चलेंगे वहाँ और मै स्वयं देखूंगा कि वहाँ आखिर में चल क्या रहा है?" मैंने कहा,
"ये सही रहेगा गुरु जी!" क़य्यूम भाई ने कहा,
"वैसे क्या हो सकता है? कोई कह रहा था कि यहाँ कोई शाप वगैरह है!" वे बोले,
"शाप! देखते हैं!" मैंने कहा,
"आप खाना आदि खा लीजिये, फिर चलते हैं वहाँ" हरि साहब ने कहा,
"हाँ, ठीक है" मैंने कहा,
"और क़य्यूम भाई आपका घर कहाँ है यहाँ?" शर्मा जी ने पूछा,
"इनके साथ वाला ही है शर्मा जी! आइये गरीबखाने पर!" वे बोले,
"ज़रूर, आज शाम को आते हैं आपके पास!" वे बोले,
"ज़रूर!" क़य्यूम भाई ने मुस्कुरा के कहा!
तभी हरि साहब उठे और बाहर चले गए!
"मौसम बढ़िया है यहाँ क़य्यूम भाई!" शर्मा जी ने कहा,
"खुला इलाका है, पथरीला भी है सुबह शाम ठंडक बनी रहती है, हाँ दिन में पारा चढ़ने लगता है!" वे बोले,
"और सुनाइये क़य्यूम भाई, घर में और कौन कौन है?" शर्मा जी ने पूछा,
"दो लड़के हैं जी, और माता-पिता जी" वे बोले,
"अच्छा! और दूसरे भाई?" उन्होंने पूछा,
"जी एक ग्वालियर में है और एक टेकनपुर में" वे बोले,
'अच्छा!" वे बोले,
"और काम-धाम बढ़िया है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ जी, ठीक है, निकल जाती है दाल-रोटी!" हंस के बोले क़य्यूम भाई!
थोड़ी देर शान्ति छाई, इतने में ही हरि साहब अन्दर आ गए, बैठ गए!
"नाश्ता तैयार है, लगवा दूँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, लगवा लीजिये" मैंने कहा,
वे उठ कर बाहर गए और थोड़ी देर बाद उनका नौकर नाश्ता लेकर आ गया, हम नाश्ता करने लगे!
"नाश्ते के बाद चलते हैं खेतों पर" मैंने कहा,
"जी, चलते हैं" हरि साहब बोले,
"मै आता हूँ फिर, गाड़ी ले आऊं" क़य्यूम भाई ने कहा,
"ठीक है, आ जाओ" हरि साहब बोले,
हम नाश्ता करते रहे, लज़ीज़ था नाश्ते का स्वाद! नाश्ता ख़तम किया और इतने में ही क़य्यूम भाई भी आ गए गाड़ी लेकर, तब हम चारों वहाँ से निकल पड़े खेतों की तरफ! हम चारों खेत पहुंचे! बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था वहाँ का! जंगली पीले रंग के फूलों ने ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लिया था, उनमे से कहीं कहीं नीले रंग के फूल भी झाँक रहे थे, जैसे प्रकृति ने मीनाकारी का काम किया हो! कुछ सफ़ेद फूल भी निकले थे वहाँ, वो अलग ही खूबसूरती ज़ाहिर कर रहे थे! पेड-पौधों ने माहौल को और खुशगवार बना दिया था! अमरुद, बेर और आंवले के पेड़ों के समरूप रूप ने जैसे प्रकृति का सलोनापन ओढ़ लिया था! बेलों ने क्या खूब यौवन धारण किया था, काबिल-ए-तारीफ़! उनके चटख हरे रंग ने मन मोह लिया था, पीले रंग के फूल जैसे स्वर्ग का सा रूप देने में लगे थे! सच में प्राकृतिक सौंदर्य वहाँ उमड़ के पड़ा था! शुष्क नाम की कोई जगह वहाँ नहीं दिखाई दे रही थी! हर तरफ हरियाली और हरियाली!
"आइये, इस तरफ" हरि साहब ने कहा और जैसे मै किसी सम्मोहन से जागा!
जी, चलिए" मैंने कहा,
ये एक संकरा सा रास्ता था! दोनों तरफ नागफनी ने विकराल रूप धारण कर रखा था, लेकिन उसके खिलते हुए लाल और पीले फूलों ने उसकी कर्कशता को भी हर लिया था! बहुत सुन्दर फूल थे, बड़े बड़े! अमरबेल आदि ने पेड़ों पर अपनी सत्ता कायम कर रखी थी! मकड़ियों ने भी अपने स्वर्ग को क्या खूब सजाया था अपने जालों से! ऊंचाई पर लगे बड़े बड़े जाले!
"यहाँ से आइये" हरि साहब ने कहा, और हम उनके पीछे पीछे हो लिए, हम अब एक बाग़ जैसी ज़मीन में प्रवेश कर गए, खेतों में लगे बैंगन और गोभी आदि बड़े लुभावने लग रहे थे!
तभी सामने तीन पक्के कमरे बने दिखाई दिए, उसके पीछे भी शायद कमरे बने थे, वहाँ मजदूरों की भैंस और बकरियां बंधी थीं, चारपाई भी पड़ी थीं, उनके बालक वहीँ खेल रहे थे, हमे देख ठिठक गए!
कय्यूम भाई ने एक चारपाई बिछायी और एक पेड़ के नीचे बिछा दी, हम बैठ गए उस पर, अपने लिए उन्होंने एक और चारपाई बिछा ली, वे भी बैठ गए, तभी हरि साहब ने आवाज़ दी और अपने मजदूर शंकर को बुलाया, पहले उसकी पत्नी बाहर आई और फिर वो समझ कर चली गयी शंकर को बुलाने, शंकर कहीं खेत में काम कर रहा था उस समय,
"ये है जी ज़मीन" हरि साहब बोले,
"देख ली है, अभी जांच करूँगा यहाँ की" मैंने कहा,
कय्यूम भाई उठे और अन्दर से घड़े में से पानी ले आये, मैंने पानी के दो गिलास पिए और शर्मा जी ने एक, पानी भी बढ़िया और ठंडा था! उसी पनिया-ओझा के बताये हुए स्थान पर खोदे हुए कुँए का ही था!
तभी शंकर आ पहुंचा वहाँ, उसने नमस्ते की और अपने अंगोछे से अपना मुंह पोंछते हुए अपने हाथ धोये और फिर वहीँ एक खटोला बिछा कर बैठ गया!
हरि साहब ने दो चार बातें कीं उस से और फिर सीधे ही बिना वक़्त गँवाए काम की बात पर आ गए! अब शंकर मेरे सवालों का उत्तर देने को तैयार था!
"शंकर, जैसा मुझे हरि साहब ने बताया है वैसा कुछ देखा है आपने?" मैंने पूछा,
'हाँ जी, देखा है, मै क्या सभी ने देखा है यहाँ" वो बोला,
"अच्छा" मैंने कहा,
अब तक शंकर की पत्नी भी वहाँ आ बैठी, घूंघट किये हुए,
"क्या देखा है शंकर आपने?" मैंने पूछा,
"यहाँ अक्सर दो औरतें दिखाई देती हैं घूमते हुए" वो बोला,
"तुमने देखी हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, तीन बार" वो बोला,
"क्या उम्र होगी उनकी?" मैंने पूछा,
"जी पक्का पता नहीं, होगी ३०-३५ बरस" वो बोला,
"क्या पहन रखा है उन्होंने?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" वो बोला,
"कुछ नहीं? मतलब नग्न?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
धमाका हुआ! मेरे दिमाग में हुआ धमाका! प्रेत यदि नग्न हो तो बलि कारण होता है उसका! और यहाँ बलि?
"पास में से देखी थीं?" मैंने पूछा,
"नहीं जी, कोई पचास फीट की दूरी से देखा था" वो बोला,
"किस जगह?" मैंने पूछा,
"जी पीछे है वो जगह, वहाँ केले, पपीते के पेड़ हैं" वो बोला,
"अक्सर वहीँ दिखाई देती हैं?'' मैंने पूछा,
"जी दो बार वहीँ दिखाई दी थीं, और एक बार कुँए के पास, चक्कर लगा रही थीं कुँए के" वो बोला,
"अच्छा, बाल कैसे हैं उनके?" मैंने पूछा,
"काले" उसने कहा,
"नहीं, खुले हैं या बंधे हुए?" मैंने पूछा,
"खुले हुए, छाती तक" वो बोला,
खुले हुए! फिर से बलि का द्योतक!
"किसी को पुकारती हैं? कुछ कहती हैं?" मैंने पूछा 
"नहीं जी, चुप ही रहती हैं" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और गुरु जी, मेरी पत्नी ने भी कुछ देखा है यहाँ" वो बोला,
"क्या?" मैंने उत्सुकता से पूछा,
अब उसकी पत्नी की तरफ हमारी नज़रें गढ़ गयीं,
"क्या देखा आपने?" मैंने पूछा,
"जी मैंने यहाँ एक आदमी को देखा था, पेड़ के नीचे बैठे हुए" उसने बताया,
"आदमी? कैसा था वो?" मैंने कुरेदा!
"होगा कोई पचास-साठ बरस का, सर पर साफ़ सा बाँधा था उसने" वो बोली,
"और?" मैंने पूछा,
"वो बैठा हुआ था, जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो, बीच बीच में उठकर सामने कमर झुक कर देखता था, फिर बैठ जाता था" उसने बताया,
"फिर?" मैंने पूछा,
"मैंने सोचा यहीं आसपास का होगा, मै वहाँ तक गयी और जैसे ही मेरी नज़र उस से मिली वो गायब हो गया, मै डर के मारे चाखते हुए वापिस आ गयी यहाँ और सभी को बताया!" वो बोली,
"अच्छा! ये कब की बात होगी?" मैंने पूछा,
"करीब छह महीने हो गए" वो बोली,
"फिर कभी नज़र आया वो?" मैंने पूछा,
"नहीं, कभी नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने मुंह बंद रखते हुए ही कहा,
तभी वो उठी और चली गयी वहाँ से!
"कुछ और? कोई विशेष बात?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"क्या?" मैंने पूछा,
"यहाँ ऐसी चार पांच जगह हैं जहां पानी नहीं ठहरता, कितना ही पानी दे दो, लेकिन वहाँ दो घंटे के बाद ही पानी सूख जाता है, जैसे सारा पानी कोई सोख रहा है नीचे ही नीचे" उसने बताया,
"कहाँ है ऐसी जगह?" मैंने पूछा,
"आइये, दिखाता हूँ" वो कहते हुए उठा,
हम सभी उठ गए उसके साथ और उसके पीछे हो लिए, वो हमको थोड़ी दूर ले गया और हाथ के इशारे से बताया कि ये है वो जगह, उनमे से एक" उसने कहा,
उसका कहना सही था! वहाँ मिट्टी ऐसी थी जैसे कि रेत, एक दम सूखी रेत! बड़ी हैरत की बात थी! मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था! आज पहली बात देख रहा था! मेरे सामने ही उसने एक बाल्टी पानी वहाँ डाला, और कहा, "ये देखिये, यहाँ पानी नहीं रुकेगा, गीला भी नहीं होगा यहाँ कुछ देर के बाद"
मैंने आगे बढ़कर देखा, जहां पानी डाला गया था! जूते से खंगाला तो पानी मिट्टी पर था ही नहीं, हाँ गीलेपन के निशान ज़रूर थे वहाँ!
"और वो जगह कहाँ है जहां वो औरतें दिखाई दीं थीं?" मैंने पूछा,
"आइये, उस तरफ है" वो बोला, और हम उसके पीछे चले,
वो हमको एक जगह ले आया, यहाँ केले और पपीते के पेड़ लगे थे, जगह बहुत पावन सी लग रही थी! एक दम शांत! जैसे किसी मंदिर का प्रांगण!
"यहाँ! यहाँ देखा था जी" शंकर ने वहाँ खड़े हो कर कहा,
मैंने गौर से देखा, सबकुछ सामान्य था वहाँ, कुछ भी अजीब नहीं! पेड़ों पर पपीते लदे थे पीछे अमरुद के पेड़ों से खुशबू आ रही थी उसके फूलों की! बेहद सुकून वाली जगह थी वो!
"दोनों बार यहीं दिखाई दीं थीं वो दोनों?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" शंकर ने कहा,
तभी शंकर का लड़का आया वहाँ भाग भाग और शंकर से कुछ कहा, शंकर हमको लेकर फिर से अपनी कमरे पर आ गया, वहाँ दूध का प्रबन्ध कर दिया गया था, हमने दूध लिया, बहुत बढ़िया ताजा दूध था वो! हमने दो दो गिलास पी लिया, तबीयत प्रसन्न हो गयी!
फिर शंकर ने खाने की पूछी, तो खाने की हमने मना कर दी, पेट दूध पीकर भर गया था, रत्ती भर भी जगह शेष नहीं थी!
"आइये मै आपको वो पानी वाली जगह दिखा दूँ" शंकर ने कहा,
"चलिए" मैंने कहा, 
हम चल पड़े उसके पीछे, वहाँ पहुंचे और सच में, सच में वहाँ पानी का कोई नामोनिशान नहीं था! मैंने नीचे बैठकर, छू कर देखा, मिट्टी सूखे रेत के समान थी! कमाल की बात थी ये! अद्भुत! न कभी देखा था ऐसा और न सुना था! आज देख भी रहा था और अचंभित भी था! पानी जैसे भाप बनकर उड़ गया था! जैसे ज़मीन ने एक एक बूँद पानी की लील ली हो! हैरत-अंगेज़!
"कमाल है!" मेरे मुंह से निकला!
"मैंने बताया था ना गुरु जी, ऐसी चार पांच जगह हैं यहाँ!" अब हरि साहब ने कहा! 
"हाँ, कमाल की बात है!" मैंने फिर से कहा,
"यहाँ ना जाने क्या चल रहा है, हम बड़े दुखी हैं गुरु जी" हरि साहब बोले,
"मै समझ सकता हूँ हरि साहब!" मैंने कहा,
"अब आप जांच कीजिये कि यहाँ ऐसा क्या है?" वे बोले, याचना के स्वर में,
"मै आज रात जांच आरम्भ करूँगा हरि साहब!" मैंने कहा,
"जी बहुत अच्छा" हरि साहब ने कहा,
"शंकर?" मैंने कहा,
"जी?" उसने चौंक कर कहा,
"वो पेड़ कहाँ है जहां आपकी पत्नी ने वो आदमी देखा था?" मैंने पूछा,
"आइये जी, उस तरफ!" मैंने कहा,
हम उसके पीछे चल पड़े!
"ये है जी वो पेड़" शंकर ने इशारा करके बताया,
ये पेड़ अमलतास का था, काफी बड़ा पेड़ था वो! 
मै वहीँ उसके नीचे खड़ा हो गया! कुछ महसूस करने की कोशिश की लेकिन सब सामान्य!
अब तो सिर्फ रात को ही जांच की जा सकती थी!
अतः, मै वहाँ से वापिस आ गया, हम वहाँ से वापिस चल दिए और हरि साहब के पास आ गए, उनके घर,
खाना लगा दिया गया, खाना खा लिया हमने और फिर कुछ देर आराम करने के लिए हम अपने कमरे में आ गए, लेट गए!
"क्या लगा आपको गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"अभी तक तो कुछ नहीं लगा अजीब, सब सामान्य ही है" मैंने कहा,
"तो अब रात को करेंगे जांच?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, आज रात को" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी" वे बोले,
और फिर हम दोनों ही सो गए, नींद की ख़ुमारी थी काफी, आँख लग गयी जल्दी ही!
४ बज चले थे, जब हमारी आँख खुली, शर्मा जी और मै एक साथ ही उठ गए थे, बदन में ताजगी आ गयी थी! और अब मुझे इंतज़ार था तो रात घिरने का, मै आज रात जांचना चाहता था कि वहाँ दरअसल चल क्या रहा है? कौन है वो दो औरतें? कौन है वो इंतज़ार करता आदमी और क्या रहस्य है वहाँ कुछ जगह पानी के न ठहरने का! एक तो उत्सुकता और दूसरी रहस्य की गहराई, जैसे मै बंधता जा रहा था उनमे, जैसे मेरे ऊपर पड़ा कोई फंदा धीरे धीरे कसता चला जा रहा हो!
"शर्मा जी?'' मैंने कहा,
"जी हाँ?" वे बोले,
"आप बैग में से वही सामान निकाल लीजिये, जांच वाला" मैंने कहा,
"जी, अभी निकालता हूँ" वे बोले,
उन्होंने पास में रखा बैग खिसकाया और उसको खोला, फिर कुछ सामान निकाल लिया, इसमें कुछ तंत्राभूषण और विभिन्न प्रकार की सामग्रियां रखी थीं, मैंने शर्मा जी से मुख्य मुख्य सामग्री निकलवा ली और फिर बाकी का सामान बैग के अन्दर ही रखवा दिया,
"आज रात को हम जांच करेंगे वहाँ, हरि साहब से एक नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ज़रूर ले लेना, आवश्यकता पड़ेगी इसकी" मैंने कहा,
"जी मै कह के ले लूँगा उनसे" वे बोले,
"ठीक है शर्मा जी, देखते हैं कि क्या रहस्य है यहाँ" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी, आज पता चल जाएगा" वे बोले,
"हाँ, पता चल जाए तो इस समस्या का भी निवारण हो जाए, हरि साहब बेहद उदास हैं, कुंठाग्रस्त हो चले हैं अब इस ज़मीन की वजह से" मैंने कहा,
"सही कहा आपने, बेचारे पस्त हो गए हैं" वे बोले,
तभी हरि साहब आ गए अन्दर!
"उठ गए गुरु जी?" उन्होंने कुर्सी पर रखे अखबार को हटाते हुए और बैठते हुए कहा,
"हाँ हरि साहब" शर्मा जी ने जवाब दे दिया,
"चाय मंगवा लूँ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, मंगवा लीजिये" मैंने कहा,
"जी, अभी कहता हूँ" वे बोले, उठे और दरवाज़े पर जाकर आवाज़ दे दी अपने रसोईघर की तरफ, और फिर अन्दर आ बैठे, कुर्सी पर,
अब शर्मा जी ने उनसे सामान के बारे में कह दिया, उन्होंने सामान के लिए तुरंत ही हाँ कर दी, अब हमारा काम एक तरह से फ़ारिग हो चला था, अब केवल जांच शेष थी, और उसके लिए हम तैयार थे, बस रात घिरने का इंतज़ार ही था!
थोड़ी देर में चाय आ गयी, हम चाय पीने लगे, हरि साहब गुना शहर के बारे में बातें करने लगे, कुछ इतिहास और कुछ राजनीति की बातें आदि, चाय समाप्त हुई तो मैंने और शर्मा जी ने बाहर घूमने की बात कही, उन्होंने भी साथ चलना ठीक समझा, आखिर ये निर्णय हुआ कि वापसी में हम क़य्यूम भाई के घर से होते हुए वापिस आ जायेंगे, हम बाहर निकल आये!
पुराने मकान, बड़े बड़े! इतिहास समेटे हुए! इतिहास के मूक गवाह! शहर जैसे अभी भी डेढ़ सौ वर्ष पीछे चल रहा था! पुराने खरंजे, ऐसे जैसे किसी विशेष प्रयोजन हेतु बिछाए गए हों! उनसे टकराते हुए जूते और जूतों की आवाज़, ऐसी कि जैसे घोडा बिदक गया हो कोई! पाँव पटक रहा हो अपने! एक पान की दुकान पर रुके हम और मैंने एक पान लिया, सादी पत्ती और गीली सुपारी का! ऊपर से थोडा सा और तम्बाकू डलवा लिया, पान खाया तो ज़र्दे की खुशबू उड़ चली! जैसे क़ैद से आज़ाद हो गयी हो! पान बेहद बढ़िया था! बनारसी पत्ता तो मिला नहीं, देसी पत्ते में ही बनवाया था! मजा ही मजा!
खैर, बाज़ार से गुजरे, वही पुराना देहाती बाज़ार! वही दिल्ली के किनारी बाज़ार और आगरा के बाज़ार जैसा! शानदार!
हम चलते गए, चलते गए क्या घूमते गए, और फिर वापसी की राह पकड़ी! वापसी में क़य्यूम भाई के घर पहुंचे हम! क़य्यूम भाई घर पर ही मिले, हमे देख बड़े खुश हुए और बेहद सम्मान के साथ हमे अन्दर ले गए घर में! घर में चाय बनवाई गयी, हालांकि दूध के लिए पूछा था लेकिन दूध संभालने की जगह नहीं थी पेट में! मिठाई आदि खायी हमने! कुल मिलकर क़य्यूम भाई ने मजे से बाँध दिए! क़य्यूम भाई को भी रात के विषय में बता दिया हमने कि जांच करने जायेंगे और दस बजे का वक़्त सही रहेगा, उनको तैयार रहने को कहा तो उन्होंने हामी भर दी, अब रात में हम चारों फिर से उन्ही खेतों पर जाने वाले थे, जांच करने!
रात घिरी, दौर-ए-जाम शुरू हुआ, साथ में क़य्यूम भाई के घर से आया हुआ भोजन भी किया! लज़ीज़ भोजन था, देसी मुर्गा और पूरा देसी घी में बना हुआ! ज़ायका ऐसा कि इंसान अपनी ऊँगली ही चबा जाए! और फिर बजे दस!
'चलिए क़य्यूम भाई" मैंने कहा,
"जी चलिए" वे बोले,
वो उठे और गाड़ी लेने चले गए, यहाँ हरि साहब ने नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ले ली! मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये और शर्मा जी को भी धारण करवाए! कुछ एक मंत्र जागृत किये और फिर हम चल पड़े, गाड़ी आ गयी थी बाहर, हम गाड़ी में बैठे और चल दिए उसी ज़मीन के लिए जहां कुछ राज दफ़न थे! कुछ अनजाने राज!
सवा दस बजे हम उसी ज़मीन के पास खड़े थे, वातावरण में भयावह शान्ति पसरी थी! कोने कोने में सन्नाटे के गुबार छाये थे! दूर कहीं कहीं सरकारी खम्भों पर लटके बल्ब जल रहे थे, अपने पूरे सामर्थ्य के पास, लेकिन कीट-पतंगों की मित्रतावश अपनी रौशनी खोने लगे थे, कोई तेज और कोई बिलकुल ही धूमिल!
टोर्च जलाई हरि साहब ने, सहसा एक जंगली बिल्ली हमारे सामने गुर्रा के चली गयी! शायद दो थीं या किसी शिकार के पीछे लगी थी वो! हम आगे बढ़ चले, रास्ता बनाते हुए हम उस ज़मीन के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे, कोई लोहे की कंटीली तारों वाली या ईंट की पक्की चारदीवारी नहीं थी वहाँ, बस जंगली पेड़-पौधों और नागफनी से ही एक दीवार सी बना दी गयी थी, यही थी वो चारदीवारी! ये बहुत दूर तलक चली गयी थी! हम अन्दर चले टोर्च की रौशनी के सहारे और फिर अन्दर आ गए, अन्दर अभी चूल्हा जल रहा था, शायद दूध उबल रहा था, हरि साहब ने शंकर को आवाज़ लगाई, शंकर अन्दर से आया भागा भागा, उसने आते ही चारपाई बिछाई और हम उस पर बैठ गए, मैंने तीन जगह निश्चित कर के रखी थीं, जहां मुझे जांच करनी थी, एक अमलतास के पेड़ के पास, एक केले-पपीते के पेड़ों के बीच और एक कुँए के पास, यहीं से कुछ सुराग मिलना था किसी दफ़न राज का!
"शर्मा जी, वो नमक की थैली ले लीजिये, और टोर्च भी" मैंने कहा,
उन्होंने टोर्च और वो नमक की थैली ले ली अपने हाथों में और हम वहाँ से हरि साहब और क़य्यूम भाई को बिठाकर चल दिए उन स्थानों के लिए!
सबसे पहले मै उस अमलतास के पेड़ के पास पहुंचा, वहाँ उसका एक चक्कर लगाया और महा-भान मंत्र चलाया और कुछ चुटकी नमक वहाँ बिखेर दिया फिर पेड़ के इर्द गिर्द एक घेरा बना दिया, यहाँ का काम समाप्त होते ही मै कुँए की तरफ निकल पड़ा, कुँए के पास भी यही क्रिया दोहराई और फिर वहाँ से निकल कर केले-पपीते के पेड़ों के बीच आ गया, तभी कुछ चमगादड़ जैसे आपस में भिड़े और नीचे गिर गए, शर्मा जी ने उन पर प्रकाश डाला तो वे नीचे ही पड़े थे और अब रेंग कर एक दूसरे से विपरीत दिशा में जा रहे थे!
मैंने यहाँ भी वही क्रिया दोहराई और फिर महा-भान मंत्र चलाया! महा-भान मंत्र चलाते ही एक धुल का गुबार मेरे चेहरे से टकराया, जैसे किसी ने ज़मीन में लेटे हुए मेरी आँखों में धूल फेंक दी हो! शर्मा जी चौंक गए! उन्होंने मुझे फ़ौरन ही रुमाल दिया, मैंने रुमाल से अपना चेहरा और आँखें साफ़ कीं, लेकिन मिट्टी मेरी आँखों में पद चुकी थी और अब जलन हो रही थी, छोटे छोटे कंकड़ आँखों में किरकिरी बन चुभ रहे थे! मै हटा वहाँ से और फिर किसी तरह शंकर के पास आया, पानी मंगवाया और आँखें साफ़ कीं, साफ़ होते ही राहत हुई! नथुनों में भी मिट्टी भर गयी थी, वो भी साफ़ की!
मिट्टी किसने फेंकी?
यही प्रश्न अब मेरे दिमाग में कौंध रहा था! जैसे कोई पका हुआ फोड़ा फूटने को लालायित हो पूरी जलन के साथ!
शर्मा जी ने ये बात वहाँ सब को बता दी, वे भी चौंक पड़े! दिल धड़क उठे दोगुनी रफ़्तार से सभी के! कुछ न कुछ तो है वहाँ! पेड़ों के बीच!
अब मैंने कलुष-मंत्र का ध्यान किया, और फिर संधान कर अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! और अब हम दोनों चल पड़े उन्ही पेड़ों के पास! हम वहाँ पहुंचे, अन्दर आये और उस स्थान को देखा! वहाँ एक गड्ढा हुआ पड़ा था, कोई चार फीट की परिमाप का! मै और शर्मा जी वहाँ बैठ गए उस गड्ढे के पास! उसमे रौशनी डाली, वहाँ केश पड़े थे! स्त्रियों के केश! मैंने शर्मा जी को और शर्मा जी ने मुझको देखा! ये कलुष मंत्र के प्रभाव से हुआ था, लेकिन कोई भान नहीं हो सका! कुछ समझ नहीं आ सका कि ये गड्ढा किसलिए और ये केश? क्या रहस्य?
तभी पीछे से आवाज़ आई! कर्कश आवाज़, किसी वृद्ध स्त्री की! जैसे कराह रही हो! हमने पलट के देखा! रौशनी मारी तो पीछे एक पेड़ के सहारे कोई छिपा हुआ दिखाई दिया! करीब दस बारह फीट दूर!
"कौन है वहाँ?" मैंने पुकारा,
कोई उत्तर नहीं!
"कौन है? सामने आओ?" मैंने फिर से कहा,
वो जस की तस!
मै उठा और उसकी तरफ चला, कोई चार फीट तक ही गया होऊंगा कि फिर से कराहने की आवाज़ आई, ये आवाज़ वहाँ से नहीं आई थी, ये मेरी बायीं तरफ से आई थी, मैंने रौशनी मारी, वहाँ कोई नहीं था!
मै फिर आगे बढ़ चला! शर्मा जी मेरे साथ ही थे!
मै आगे बढ़ा, उस पेड़ से करीब दो फीट दूर रुक गया, वहाँ जो कोई भी था उसका कद मुझसे ऊंचा था! मै उसके कंधे तक ही आ पा रहा था!
"कौन है?" मैंने कहा,
"कोई उत्तर नहीं!
मै भाग के उसके पास गया और उसका हाथ जैसे ही पकड़ा उसने मुझे उसी हाथ से धक्का दिया और मै पीछे गिर पड़ा! मेरी कमर पपीते के एक पेड़ से टकराई, शर्मा जी फ़ौरन मेरे पास आये और मुझे खड़ा किया, मै संयत हुआ और फिर सामने देखा, सामने कोई नहीं था! वहाँ जो कोई भी था वो जा चुका था!
ये क्या था? कोई चेतावनी? कोई बड़ा संकट? फिर क्या? अब दिमाग में बुलबुले फूटने लगे! प्रश्नों की रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी पतंगें उड़ने लगी मेरे मस्तिष्क के पटल में! मस्तिष्क के आकाश में!
ये सब क्या है???
मै फिर से उसी पेड़ की तरफ बढ़ चला, उसके पीछे गया, लेकिन वहां कोई नहीं था! मैंने चारों ओर देखा, कोई भी नहीं! मैंने अब एक मुट्ठी नमक लिया और वहीँ ज़मीन पर एक मंत्र पढ़ते हुए फेंका! जैसे ज़मीन हिली! जूते में कसे मेरे पाँव और अधिक पकड़ के साथ स्थिर हो गए! वहाँ जो कुछ भी था, बेहद ताक़तवर और पुराना था!
"कौन है यहाँ?" मै चिल्लाया,
कोई हरक़त नहीं हुई!
"कौन है?" मैंने फिर से आवाज़ मारी!
लेकिन कोई उत्तर नहीं!
"सामने क्यों नहीं आते?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
"क्या चाहते हो?" मैंने जोर से कहा,
और तभी एक कपडे की बनी काली गुड़िया आकाश में से ज़मीन पर गिरी, मेरे सम्मुख! मैंने गुड़िया उठाई, उसका पेट फूला था, अर्थात, उसका पेट उसके शरीर के अनुमाप में अत्यंत दीर्घ था, मैंने दोनों हाथों से उसका पेट दबाया, तभी मुझे लगा की मेरे हाथों में कुछ द्रव्य आ गया है, हाथ गीले हो गए थे, मैंने टोर्च की रौशनी में अपने हाथ दखे, ये रक्त था! मानव रक्त!
खेल अब खूनी हो चला था!
"सामने आओ मेरे?" मैंने कहा,
कुछ पल गहन शान्ति! केवल झींगुरों की ही आवाज़, मंझीरे जैसे डर गए थे!
"सामने क्यों नहीं आते?" मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
"तो ऐसे नहीं मानोगे तुम?" मैंने अब क्रोध से कहा,
तभी गुड़िया में आग लग उठी! मैंने उसे नीचे फेंक दिया! वो धू धू कर जल उठी! और धीरे धीरे राख हो गयी!
अब बताता हूँ मित्रगण! ये पल मेरे लिए अत्यंत भयानक था! जो अशरीरी आग पर नियंत्रण कर लेता है उसको हराना इतना आसान नहीं! और यही हुआ था यहाँ, यही देखा था मैंने!
यहाँ न भूत था और न कोई प्रेत अथवा चुडैल! यहाँ कोई और था! उसने अपनी सत्ता दिखा दी थी मुझे!
"मेरे समक्ष आओ" मैंने चिल्ला के कहा,
कोई नहीं आया!
अब मै वहीँ बैठ गया, आसन लगाया, और अपना एक नथुना कनिष्ठा ऊँगली से बंद कर मैंने महापाश-मंत्र पढ़ा! अभी आधा ही पढ़ा था कि मुझे सामने दो औरतें दिखाई दीं! वो वहीँ दूर खड़ी थीं करीब पंद्रह फीट दूर! नग्न, चेहरे पर क्रोध का भाव्लिये, हाथों में कटार लिए, केश उनके घुटनों तक थे, साक्षात मृत्युदेवी जैसी थीं वो! मैंने एक बात और गौर की, उनकी ग्रीवा से रक्त बह रहा था, वो रक्त उनके स्तनों से बहता हुआ भूमि पर गिरता जा रहा था और भूमि पर कोई निशान नहीं थे! भूमि पर गिरते ही लोप हो जाता था! मेरा महापाश-मंत्र पूर्ण हुआ, मै खड़ा हो गया!
"कौन हो तुम दोनों?" मैंने पूछा,
कोई कुछ नहीं बोला उनमे से!
मैंने इशारे से शर्मा जी को अपने पास बुला लिया! वे दौड़ कर मेरे पास आ गए! उनको वहाँ देख उन औरतों ने अपनी कटार ऊपर उठा लीं!
"शर्मा जी, हिलना नहीं!" मैंने कहा,
वे समझ गए!
"कौन हो तुम दोनों?" मैंने पूछा,
और तब एक औरत ने कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहा उसने, बस एक दो शब्द ही सुनाई दिए, 'त्वच' और 'कंठ', दोनों ही शब्द निरर्थक थे! कोई सामंजस्य नहीं था उनमे!
"कौन हो तुम?" मैंने अब धीरे से कहा,
कोई उत्तर नहीं!
बड़ी अजीब सी स्थिति थी!
मैंने कुछ निर्णय लिया और उनकी ओर बढ़ा, जैसे ही मै उनके सामने आया कोई दो फीट दूर, तो मैंने देखा कि, उनका सर और धड़ अलग अलग थे! धड़ गोरा और सर एकदम भक्क काला! दुर्गन्ध फूट रही थी उनमे से! बहते हुए रक्त की दुर्गन्ध ने मेरा मुंह कड़वा कर दिया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
और तभी दोनों एक दूसरे को देखती हुई हंसीं और झप्प से लोप हो गयीं! मै अवाक सा खड़ा वहाँ रह गया! जैसे मेरे कांटे में फंसी मछली मेरे पास तक आते आते आज़ाद हो गयी हो!
दुर्गन्ध भी समाप्त हो गयी! परन्तु एक बात निश्चित हो गयी! यहाँ जो भी कुछ था वो इतना सामान्य नहीं था जिसका मैंने अंदाज़ा लगाया था! यहाँ तो खौफनाक शक्तियां थीं! लेकिन कौन था जो इनको नियंत्रित कर रहा था? यही दो? नहीं ये नहीं हो सकतीं! ये तो बलि-प्रयोग की महिलायें हैं! फिर एक और बात, शंकर ने इनको कैसे देखा था? मैंने तो रक्त-रंजित देखा! ये पूछना था मुझे शंकर से ही!
मै शर्मा जी को समझाते हुए, वापिस चल पड़ा शंकर की तरफ!
हम सीधा शंकर के पास आये, वे सभी बड़ी बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे, चेहरे पर हवाइयां उडी हुईं थीं उनके!
"सब खैरियत तो है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ सब खैरियत से है" मैंने कहा,
अब उन्हें चैन पड़ा!
"शंकर?" शर्मा जी ने कहा,
"जी?" वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया,
"तुमने जो दो औरतें देखीं थीं, वो रक्त-रंजित थीं क्या?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं जी, बिलकुल नहीं" उसने कहा,
अब मुझे जैसे झटके से लगने लगे!
"एक दम साफ़ थीं वो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, हाँ उन्होंने पेट पर शायद कोई भस्म या चन्दन सा मला हुआ था, पक्का नहीं कह सकता" शंकर ने कहा,
"कोई हथियार था उनके हाथ में?" शर्मा जी ने पूछा,
"जी नहीं, कोई हथियार नहीं, केवल खाली हाथ थीं वो" उसने कहा,
यहाँ हरि साहब और क़य्यूम भी की साँसें रुक रुक कर आगे बढ़ रही थीं! आँखें ऐसे फटी थीं जैसे दम निकलने वाला ही हो! एक एक सवाल पर आँखें और चौड़ी हो जाती थीं उनकी!
"क्या हुआ गुरु जी?" हरि साहब ने पूछा,
"कुछ नहीं" मैंने उलझे हुए भी सुलझा सा उत्तर दिया!
"आपको दिखाई दीं वो?" अब क़य्यूम ने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
अब तो जैसे दोनों को भय का भाला घुस गया छाती के आरपार!
"क्क्क्क्क.......क्या?" हरि साहब के मुंह से निकला!
"हाँ, उनका बसेरा यहीं है!" मैंने कहा,
"मैंने कहा था न गुरु जी? यहाँ बहुत बड़ी गड़बड़ है, आप बचाइये हमे" अब ये कहते ही घबराए वो, हाथ कांपने लगे उनके!
"आप न घबराइये हरि साहब, मै इसीलिए तो आया हूँ यहाँ" मैंने कहा,
"हम तो मर गए गुरु जी" वे गर्दन हिला के बोले,
"आप चिंता न कीजिये हरि साहब" मैंने कहा,
"गुरु जी, वहाँ उस पेड़ को देखें?" शर्मा जी ने याद दिलाया मुझे,
"हाँ! हाँ! अवश्य!" मैंने कहा,
हम भागे वहाँ से, उस अमलतास पेड़ की तरफ! वहाँ पहुंचे, टोर्च की रौशनी डाली वहाँ, कोई नहीं था वहाँ! हम आगे गए! मैंने रुका, शर्मा जी को रोका, कुछ पल ठहरा और फिर मै अकेला ही आगे बढ़ा, पेड़ के नीचे कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं! मैंने आसपास गौर से देखा, और देखने पर अचानक ही मुझे पेड़ से दूर, चारदीवारी के पास एक आदमी खड़ा दिखा, साफ़ा बांधे! मै वहीँ चल पड़ा! वो अचानक से नीचे बैठ गया, जैसे कोई कुत्ता छलांग मारने के लिए बैठता है, मै रुक गया तभी कि तभी, जस का तस! वो नीचे ही बैठा रहा, मै अब धीरे धीरे आगे बढ़ा! और फिर रुक गया!
"कौन है वहाँ?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
अब मै आगे बढ़ा तो वो उठकर खड़ा हो गया! लम्बा! कद्दावर और बेहद मजबूत! पहलवानी जिस्म! उसने बाजूओं पर गंडे-ताबीज़ बाँध रखे थे! गले में माल धारण कर राखी थी, कौन सी? ये नहीं पता चल रहा था! कद उसका सात या सवा सात फीट रहा होगा! उम्र कोई चालीस के आसपास!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
मै आगे बढ़ा!
"जहां है, वहीँ ठहर जा!" वो गर्रा के बोला!
भयानक स्वर उसका और लहजा कड़वा! रुक्ष! धमकाने वाला!
मै ठहर गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"क्या करेगा जानकार?" उसने जैसे ऐसा कह कर चुटकी सी ली!
"मै जानना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
अब इसका उत्तर मेरे पास नहीं था!
"यहाँ प्रेतों का वास है" मैंने कहा,
वो हंसा! बहुत तेज! सच में बहुत तेज!
"मै चाहता हूँ कि तुम सब यहाँ से चले जाओ, अज ही!" मैंने कहा,
"अब वो गुस्सा हो गया! कूद के मेरे सामने आ खड़ा हुआ! मरे सर पर अपना भारी भरकम हाथ रखा! और मुझे हैरत! मेरे तंत्राभूषण भी नहीं रोक पाए उसे मुझे छूने से! ये कैसा भ्रम??
"ये भूमि हमारी है! पार्वती नदी तक, सारी भूमि हमारी है!" उसने मुझे दूर इशारा करके बताया!
"कैसी भूमि?" मैंने उसका हाथ अपने सर से नीचे किया और पूछा,
"ये भूमि" उसने अपने पैर से भूमि पर थाप मारते हुए कहा!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"मेरा नाम खेचर है! ये मेरा ही स्थान है!" उसने कहा,
स्थान? यही सुना न मैंने??
''स्थान? कैसा स्थान?" मैंने पूछा,
"ये स्थान!" उसने फिर से इशारा करके मुझे वही भूमि दिखा दी!

मै हतप्रभ था!
मै हतप्रभ था! हतप्रभ इसलिए कि मेरे सभी मंत्र और तंत्राभूषण, सभी शिथिल हो गए थे! खेचर के सामने शिथिल! दो ही कारण थे इसके, या तो खेचर स्वयंभू एवं स्वयं सिद्ध है अथवा उसको किसी महासिद्ध का सरंक्षण प्राप्त है! ये स्थान या तो परम सात्विक है या फिर प्रबल तामसिक! जो भी तत्व है यहाँ, वो अपने शीर्ष पर है! एक बार को तो मुझे भी आखेट होने का भय मार गया था, उसी खेचर के सामने जिसके सामने मै खड़ा था!
"सुना तूने?" अचानक से खेचर ने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ये मेरा स्थान है, अब तुम यहाँ से चले जाओ" उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी!
"मै नहीं जाऊँगा खेचर!" मैंने भी डटकर कहा!
"मारा जाएगा! हा हा हा हा!" उसने ठहाका मार कर कहा!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
उसका ठहाका बंद हुआ उसी क्षण!
वो चुप!
मै चुप!
और फिर से मैंने अपना प्रश्न दोहराया!
"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
वो चुप!
और फिर मेरे देखते ही देखते वो झप्प से लोप हो गया!
मेरा प्रश्न अब बेमायनी हो गया था!
"खेचर?" मैंने पुकारा!
कोई उत्तर नहीं!
"खेचर?" मैंने फिर से पुकारा!
अबकी बार भी कोई उत्तर नहीं!
वो चला गया था!
अब मै पलटा वहां से और शर्मा जी के पास आया, वे भी हतप्रभ खड़े थे! बड़ी ही अजीब स्थिति थी! अभी तक कोई ओर-छोर नहीं मिला था! धूल में लाठी भांज रहे थे हम!
"चला गया?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
और फिर मैंने उसी पेड़ को देखा जहां कुछ देर पहले खेचर आया था! वहाँ का माहौल इस वर्तमान में भूतकाल की गिरफ्त से आज़ाद हो चुका था! उसके पत्ते बयार से खड़खडाने लगे थे! वर्तमान-संधि हो चुकी थी!
"चलो, अब कुँए पर चलो" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम कुँए पर पहुंचे! कुँए में से भयानक शोर आ रहा था! जैसे बालक-बालिकाओं की पिटाई हो रही हो! उनका क्रंदन कानफोड़ू था! मैंने और शर्मा जी ने कुँए में झाँक कर देखा! वहाँ जो देखा उसको देखकर आँखें चौड़ी हो गयीं! साँसें बेलगाम हो गयीं! अन्दर लबालब सर कटे पड़े थे, बालक-बालिकाओं के! और सभी अपनी जिव्हा निकाल तड़प के स्वर में चिल्ला रहे थे! रक्त की धाराएं एक दूसरे पर टकरा रही थीं! हमसे कोई छह फीट दूर! अत्यन्त भयावह दृश्य था! मैंने गौर किया, कुछ सर दो टुकड़े थे बस हलके से एक झिल्ली से चिपके थे, वो चिल्ला तो नहीं रहे थे, हाँ, सर्प की भांति फुफकार रहे थे, अपने नथुनों से!
मैंने तभी ताम-मंत्र का संधान किया, और नीचे से मिट्टी उठाकर वो मिट्टी अभिमंत्रित की और कुँए में डाल दी, विस्फोट सा हुआ! और वहाँ की माया का नाश हुआ! अब कोई सर नहीं बचा था वहाँ, पानी में नीचे हलचल थी, मैंने टोर्च की रौशनी मारी पानी के ऊपर तो वहाँ पानी के ऊपर कुछ तैरता हुआ दिखाई दिया! मैंने ध्यान से देखा, ये वही दो औरतें थीं! कमर तक पानी में डूबी हुईं और अपना अपना सर अपने हाथों में लिए! एक बार को तो मै पीछे हट गया! बड़ा ही खौफनाक दृश्य था! उनके कटे सर एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे थे! अजीब सी भाषा में! न डामरी, न कोई अन्य भाषा, ऐसे जैसे कोई अटके हुए से शब्द, कुछ कराह के शब्द जिसका केवल स्वर होता है और कोई व्यंजन नहीं!
"चलो यहाँ से" मैंने कहा,
शर्मा जी पीछे हट गए!
हम वापिस चल पड़े, शंकर के कमरे की तरफ, और तभी पीछे से मुझे किसी ने आवाज़ दी, मेरा नाम लेकर! मै चौंक पड़ा! ठहर गया! पीछे देखा, वो खेचर था!
खेचर वहीँ खड़ा था! मै दौड़ के गया वहाँ! उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, कोई क्रोध नहीं अबकी बार!
"मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"बोलो खेचर!" मैंने कहा!
"चला जा यहाँ से!" मैंने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मुझे मालूम हो गया है तू क्यों आया है यहाँ!" उसने मुस्कुरा के कहा,
"मै नहीं जाऊँगा फिर भी!" मैंने कहा,
"सुन, हम ग्यारह हैं यहाँ, तू एक, क्या करेगा?" उसने मुझे कहा,
"मै जानता हूँ! लेकिन मै नहीं जाने वाला खेचर!" मैंने कहा,
"तुझे काट डालेगा!" वो गंभीर हो कर बोला,
"कौन?" मैंने पूछा,
"भेरू" उसने कहा,
"कौन भेरू?" मैंने कहा,
"मेरा बड़ा भाई" उसने कहा,
"अच्छा! कहाँ है भेरू?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" उसने कहा,
'कहाँ है उसका वास?" मैंने पूछा,
"वहाँ, नदी से पहले" उसने इशारा करके कहा, 
मै अपना मुख पूरब में करके खड़ा था, उसने अपना सीधा हाथ उठाया, यानि मेरा बाएं हाथ, मै घूम कर देखा, मात्र अन्धकार के अलावा कुछ नहीं! अन्धकार! हाँ, मै था उस समय भौतिक अन्धकार में! वो नहीं! वो तो अन्धकार को लांघ चुका था! अन्धकार था मात्र मेरे लिए, शर्मा जी के लिए, रात थी मात्र मेरे और शर्मा जी के लिए, खेचर के लिए क्या दिन और क्या रात! सब बराबर! क्या उजाला और क्या अन्धकार! सब बराबर!
"खेचर, मै कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"पूछ" उसने कहा,
"वो औरत कौन है?" मैंने पूछा,
मैंने पूछा और वो झप्प से लोप!
वो बताना नहीं चाहता था, या उसका 'समय' हो चुका था! किसी भी अशरीरी का समय होता है! वो अपने समय में लौट जाते हैं! यही हुआ था खेचर के साथ!
अब मुझे लौटना था! वापिस! सो, मै शर्मा जी को लेकर वापिस लौटा, रास्ते में कुआ आया, मै रुका और फिर टोर्च की रौशनी से नीचे देखा, पानी शांत था! वहां कोई नहीं था!
खेचर-लीला समाप्त हो चली थी अब! मैंने सभी मंत्र वापिस ले लिए! अब मेरे पास दो किरदार थे, वो औरतें और खेचर! बाकी सब माया थी! और हाँ, वो भेरू! भेरू ही था वो मुख्य जिसके सरंक्षण में ये लीला चल रही थी! लेकिन भेरू कहाँ था, कुछ नहीं पता था और अब, अब मुझे खोजी लगाने थे उसके पीछे! और ये कम आसान नहीं था! ये तो मुझे भी पता चल गया था! खेचर चाहता तो मेरा सर एक झटके में ही मेरे धड से अलग कर सकता था! परन्तु उसने नहीं किया! क्यों? यही क्यों मुझे उलझाए था अब! इसी क्यों में ही छिपी थी असली कहानी!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा और हटा वहाँ से,
'जी, चलिए" वे बोले, वो भी उस समय से बाहर निकले!
हम चल पड़े वापिस!
वहीँ आ गए जहां क़य्यूम भाई और हरि साहब और शंकर टकटकी लगाए हमारी राह देख रहे थे!
"कुछ पता चला गुरु जी?" हरि साहब ने उत्कंठा से पूछा,
"हाँ, परन्तु मै स्वयं उलझा हुआ हूँ अभी तो!" मैंने हाथ धोते हुए कहा,
हाथ पोंछकर मै चारपाई पर बैठ गया, शंकर ने शर्मा जी के हाथ धुलवाने शुरू कर दिए,
"मामला क्या है?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और भयानक मामला है क़य्यूम साहब" मैंने कहा,
"ओह...." उनके मुंह से निकला,
"आपका अर्थ कि काम नहीं हो पायेगा?" हरि साहब ने पूछा,
'ऐसा मैंने नहीं कहा, अभी थोड़ा समय लगेगा" मैंने कहा,
"जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी" बड़े उदास मन से बोले हरि साहब!
"वैसे है क्या यहाँ?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"ये तो मुझे भी अभी तक ज्ञात नहीं!" मैंने बताया,
मेरे शब्द बे अटपटे से लगे उन्हें, या उनको मुझ से ऐसी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी!
"खेचर!" मैंने कहा,
"क..क्या?" कहते हुए हरी साहब उठ खड़े हुए!
"खेचर मिला मुझे यहाँ" मैंने कहा,
"हे ईश्वर!" वे बोले,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, मरी पत्नी को सपना आया था, इसी नाम का जिक्र किया था उसने!" हरि साहब ने बताया!
कहानी में एक पेंच और घुस गया!
"सपना?" मैंने पूछा, मुझे इस बारे में नहीं बताया गया था,
"जी गुरु जी" हरि साहब बोले,
"तब तो मुझे मिलना होगा आपकी धर्मपत्नी से हरि साहब" मैंने कहा,
"अवश्य" वे बोले,
मैंने घड़ी देखी, बारह चालीस हो चुके थे और अब मिलना संभव न था, अब मुलाक़ात कल ही हो सकती थी, सो मैंने उनको कल के लिए कह दिया और हम लोग फिर वहाँ से वापिस आ गए है साहब के घर!
खाना खा ही चुके थे, सो अब आराम करने के लिए मै और शर्मा जी लेटे हुए थे, तभी कुछ सवाल कौंधे मेरे मन में, मै उनका जोड़-तोड़ करता रहा, उधेड़बुन में लगा रहा! कभी कोई प्रश्न और कभी कोई प्रश्न!
मै करवटें बदल रहा था और तभी शर्मा जी बोले, "कहाँ खो गए गुरु जी?"
"कहीं नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा और उठ बैठा, वे भी उठ गए!
"शर्मा जी, खेचर ने कहा कि वे ग्यारह हैं वहां, और हमको मिले कितने, स्वयं खेचर, एक, दो वो औरतें, तीन और एक वो जिसने मुझे धक्का दिया था, चार, बाकी के सात कहा हैं?"
"हाँ, बाकी के सात नहीं आये अभी" वे बोले,
"और एक ये भेरू, खेचर का बड़ा भाई!" मैंने कहा,
"हाँ, इसी भेरू से सम्बंधित है यहाँ का सारा रहस्य!" वे बोले,
"हाँ, ये सही कहा आपने" मैंने भी समर्थन में सर हिलाया,
"खेचर ने कहा नदी के पास उसका स्थान है, अब यहाँ का भूगोल जानना बेहद ज़रूरी है, कौन सी नदी? पारवती नदी या उसकी कोई अन्य सहायक नदी?" मैंने कहा,
"हाँ, इस से मदद अवश्य ही मिलेगी!" वे बोले,
"अब ये तो हरि साहब ही बताएँगे" मैंने कहा,
"हाँ, कल पूछते हैं उन से" वे बोले,
"हाँ, पूछना ही पड़ेगा, वहाँ खेत पैर कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है" मैंने कहा,
"हाँ, मामला खतरनाक है वहाँ" वे बोले,
तभी वे उठे और गिलास में पानी भरा, मुझसे पूछा तो मैंने पानी लिया और पी लिया, नींद कहीं खो गयी थी, आज रात्रि मार्ग भटक गयी थी! हम बाट देखते रहे! लेट गए लेकिन फिर से सवालों का झुण्ड कीट-पतंगों के समान मस्तिष्क पर भनभनाता ही रहा! मध्य-रात्रि में नींद का आगमन हुआ, बड़ा उपकार हुआ! हम सो गए!
सुबह उठे तो छह बज रहे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, नहाए धोये और आ बैठे बिस्तर पे!
तभी हरि साहब आ गए, नमस्कार आदि हुई, साथ में नौकर चाय-नाश्ता भी ले आया! हमने चाय-नाश्ता करना शुरू किया! जब निबट लिए तो हाथ भी धो लिए!
"हरि साहब?" मैंने कहा,
"जी गुरु जी?" वे चौंके!
''आपकी पत्नी कहाँ है?" मैंने पूछा,
"मंदिर गयी है, आने वाली ही होगी" वे बोले,
'अच्छा, आने दीजिये फिर" मैंने कहा,
अब कुछ देर चुप्पी हो गयी वहाँ!
"वैसे गुरु जी, कोई प्राण-संकट तो नहीं है?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगा" मैंने कहा, कहना पड़ा ऐसा!
और कुछ देर बाद उनकी पत्नी आ गयीं पूजा करके, हरि साहब उठे और उनको बुलाने के लिए चले गए, ले आये साथ में कुछ ही देर में, नमस्कार हुई, उन्होंने हमे प्रसाद भी दिया, हमने माथे से लगा, खा लिया प्रसाद!
अब हरि साहब ने अपनी पत्नी से वो सपना बताने को कहा, उन्होंने बताया और मै चौंकता चला गया!
अब मैंने उनसे प्रश्न करने शुरू किये!
"आपने बताया, कि वो वहाँ ग्यारह हैं, ये आपको किसने बताया था?" मैंने पूछा,
"खेचर ने" वे बोलीं,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"और आपने उस बाबा को देखा, जिसका वो स्थान है?" मैंने पूछा,
"हाँ, देखा था, बहुत डरावना है वो, गले में सांप लपेट कर रखा था उसने!" उन्होंने बताया,
"किसी ने कुछ कहा आपसे?" मैंने पूछा,
"हाँ एक औरत ने कहा था कुछ" वे बोलीं,
"क्या?" मैंने पूछा,
"पोते के लिए तरस जायेगी तू! ये बोली वो मुझसे!" ये बताया उन्होंने 
"अच्छा! उस औरत ने अपना कोई नाम बताया?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसने अपना नाम भामा बताया था" वे बोलीं,
"ओह...भामा!" मैंने कहा,
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"बाकी वही जो मैंने आपको बताया है" वे बोलीं,
"ठीक है, बस, जो मै जानना चाहता था जान लिया" मैंने कहा, वो उठीं और चली गयीं बाहर!
अब मै फंस गया इस जाल में!
बड़ी ही विकट स्थिति थी! समझ की समझ से भी परे के बात हो गयी थी ये तो! सर खुजा खुजा कर मै सारा ताना-बाना बुन रहा था! परन्तु प्रश्नों का तरकश कुछ ऐसा था कि उसमे से बाण समाप्त ही नहीं हो पा रहे थे! अक्षय तरकश बन गया था! तभी मैंने हरि साहब से पूछा, "हरि साहब, क्या आपके खेतों के पास कोई नदी है?" 
"हाँ, है, एक बरसाती नदी है, ये पार्वती नदी में मिलती है आगे जाकर" उन्होंने बताया, 
"क्या वहाँ तक जाया जा सकता है?" मैंने पूछा,
"कहाँ तक?" उन्होंने पूछा,
"जहां वो बरसाती नदी है" मैंने कहा,
"हाँ, जा सकते हैं, लेकिन आजकल पानी नहीं है उसमे" वे बोले,
"पानी का कोई काम नही है, मुझे केवल नदी देखनी है, आपके खेतों की तरफ वाली" मैंने कहा,
"कब चलना है?" उन्होंने पूछा,
"जब मर्जी चलिए, चाहें तो अभी चलिए" मैंने कहा,
"ठीक है, मै क़य्यूम को कहता हूँ" वे बोले और क़य्यूम को लिवाने चले गए, हम वहीँ बैठ गए!
और फिर थोड़ी देर बाद क़य्यूम भाई आ गए वहाँ, नमस्कार हुई तो वे बोले, "चलिए गुरु जी"
"चलिए" मैंने कहा,
अब हम निकल पड़े वहाँ से उस बरसाती नदी को देखने के लिए, कोई सुराग मिलेगा अवश्य ही, ऐसा न जाने क्यों मन में लग रहा था!
गाड़ी दौड़ पड़ी! मै खुश था! पथरीले रास्तों पर जैसे तैसे कुलांचें भरते हुए हम पहुँच ही गए वहाँ! बड़ा खूबसूरत दृश्य था वहाँ! बकरियां आदि और मवेशी चर रहे थे वहाँ! बड़ी बड़ी जंगली घास हवा के संग नृत्य कर रही थी बार बार एक ओर झुक कर! जंगली पक्षियों के स्वर गूँज रहे थे! होड़ सी लगी थी उनमे!
"ये है जी वो नदी" हरि साहब बोले,
मैंने आसपास देखा, चारों तरफ और मुझे वहाँ एक टूटा-फूटा सा ध्वस्त मंदिर दिखा, मै वहीँ चल पड़ा, जंगली वनस्पति ने खूब आसरा लिया था उसका! एक तरह से ढक सा गया था वो मंदिर, अब पता नहीं वो मंदिर ही था या को अन्य भग्नावशेष, ये उसके पास ही जाकर पता चल सकता था, मै उसी ओर चल पड़ा! सभी मेरे पीछे हो लिए! मै मंदिर तक पहुँच, अन्दर जाना नामुमकिन ही था! प्रवेश कहाँ से था कुछ पता नहीं चल रहा था, गुम्बद आदि टूटी हुई थी, खम्बे टूट कर शिलाखंड बन गए थे! स्थापत्य कला हिन्दू ही थी उसकी, निश्चित रूप से ये एक हिन्दू मंदिर ही था!
"कोई पुराना मंदिर लगता है" मैंने कहा,
"हाँ जी, हमतो बचपन से देखते आ रहे हैं इसको" हरि साहब ने कहा,
"कुछ जानते हैं इसके बारे में?" मैंने पूछा,
:नहीं गुरु जी, बस इतना कि ये मंदिर यहाँ पर बंजारों द्वारा बनवाया गया था, एस बाप-दादा से सुना हमने" वे बोले,
तभी मुझे मंदिर के एक कोने में बाहर की तरह एक मोटा सा सांप दिखाई दिया, ये धुप सेंक रहा था शायद! मै उसकी ओर चल पड़ा! सभी चल पड़े उस तरफ! सांप को देखकर हरि साहब और क़य्यूम ठिठक के खड़े हो गए! मै और शर्मा जी आगे बढ़ चले! ये एक धामन सांप था! बेहद सीधा होता है ये सांप! काटता नहीं है, स्वभाव से बेहद आलसी और सुस्त होता है! रंग पीला था इसका!
"ज़हरीला सांप है जी ये?" हरि साहब ने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
"जी हमको तो सभी सांप ज़हरीले ही लगते हैं!" वे बोले,
"ये नहीं है, काटता नहीं है, चाहो तो उठा लो इसको!" मैंने उस सांप के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा!
सांप जस का तस लेटा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने!
"ये नहीं काटता!" मैंने कहा,
"कमाल है गुरु जी!" वे बोले,
मै उठा गया वहाँ से! सहसा मंदिर की याद आ गई!
अब मैंने उसका चक्कर लगाया, उसको बारीकी से देखा! अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया!
मै अब हटा वहाँ से! और हरी साहब और क़य्यूम को वहाँ से हटाकर वापिस गाड़ी में बैठने के लिए कह दिया, मै यहाँ कलुष-मंत्र का प्रयोग करना चाहता था! वे चले गए!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!
दूर वहाँ खेचर खड़ा था! हंसता हुआ! मै उसको देखता रहा, वो आया उर फिर मंदिर की एक दीवार में समा गया!
अब समझ में आया! भेरू का स्थान! खेचर का स्थान!
यही मंदिर! यही है वो स्थान!
इसका अर्थ था कि ये था स्थान भेरू का! खेचर इसीलिए आया था यहाँ! उसने तो मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया था! अब सोचने वाली बात ये कि वो क्यों चाहता था कि मै यहाँ आऊं? भेरू के स्थान पर? जबकि वो चाहता तो मुझे अपने रास्ते से कब का हटा चुका होता! खेचर इसी मंदिर में समा गया था, यही स्थान था, हाँ यही स्थान!
"शर्मा जी?" मी कहा,
"जी?" वो आगे आते हुए बोले,
"आपने देखा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"यही स्थान है उस भेरू का?" मैंने ये भी पूछा,
"हाँ जी, यही लगता है" वे बोले,
"तो वो क्या चाहता है?" मैंने कहा,
"नहीं पता गुरु जी" वे बोले,
"सही कहा!" मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया!
"शर्मा जी, एक बात तो है, ये खेचर कुछ कहना चाहता है" मैंने कहा,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"नदी का पता, ये मंदिर! है या नहीं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, ये तो है" वे बोले,
"अब हमारा काम पूर्ण हुआ यहाँ, चलो अब वापिस चलें, अब मै दिखाता हूँ इनको अपना माया-जाल!" मैंने कहा,
"माया-जाल?" वे विस्मित से होकर पूछ गए!
"हाँ! अब हमारी मुलाक़ात शीघ्र ही भेरू से होगी" मैंने कहा,
'अच्छा!" वे बोले,
"आप एक काम करो, हरि साहब से पूछो, यहाँ कोई शमशान है?" मैंने कहा,
"अभी पूछ लेता हूँ जी" वे बोले और वो चले गए, हरि साहब की ओर!
मै कुछ एर बाद पहुंचा वहाँ, उनकी बातें चल रही थीं!
"गुरु जी, ये कहते हैं कि दो शमशान हैं यहाँ पर, एक शहर के पास और एक इसी नदी के किनारे, आपको कौन सा चाहिए?" शर्मा जी ने पूछा,
"इसी नदी के किनारे वाला" मैंने कहा,
हरि साहब ने बता दिया, ये शमशान कोई चार किलोमीटर था वहाँ से!
'चलिए, एक नज़र मार लेते हैं" मैंने कहा,
और हम अब चल पड़े वहाँ से उसी शमशान की ओर!
वहाँ पहुंचे और मै वहाँ गाड़ी से उतरा! आसपास नज़र दौड़ाई, ये शमशान नहीं लगता था, कोई प्रबंध नहीं था वहाँ, हाँ वहाँ दो चिताएं अवश्य ही जल रही थीं!
मै उन चिताओं तक गया, ठंडी हो चुकीं राख को मैंने हाथ जोड़कर उठाया और एक पन्नी में भर लिया, पन्नी वहाँ बिखरी पड़ी थीं!
"चलिए, अब सीधे खेतों की तरफ चलें!" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब बोले,
और हम चल दिए अब खेतों की तरफ!
मै सीधे ही खेतों पर पहुंचा, वहाँ अलग अलग स्थान पर पांच जगह मैंने वो भस्म ज़मीन में गाड़ दी, ये स्थान-कीलन था! जो अब ज़रूरी भी था! 
"शर्मा जी, आप इस बाल्टी पानी मंगवाइये" मैंने कहा,
"अभी लीजिये" उन्होंने कहा,
उन्होंने हरि साहब को, हरि साहब ने शंकर से कहा और शंकर वो बाल्टी ले आया! मैंने उसी स्थान पर, जहां पानी नहीं रुकता था, एक बाल्टी पानी डाला, और कमाल हुआ, स्थान-कीलन चक्रिका ने वहाँ का भेदन-चक्र पूर्ण किया और मिट्टी गीली हो गयी! पानी ठहर गया! ये देख सभी की आँखें चौड़ी हो गयीं!
"अब चलो यहाँ से" मैंने कहा,
"जी" हरि साहब ने कहा,

तभी मेरी नज़र एक जगह पड़ी, वहाँ दोनों औरतें खड़ी थीं! अपना सर हाथों में लिए!
मै उनकी ओर चल पड़ा, शर्मा जी चलने लगे तो मैंने उनको रोक दिया, मै अकेला ही जाना चाहता था वहां, मैंने हाथ के इशारे से उनको रोक दिया और फिर वापिस शंकर के यहाँ भेज दिया, मै अब उन औरतों की तरफ बढ़ने लगा, वे दोनों औरतें मुड़ीं और आगे चलने लगीं, जैसे मुझे ही लेने आई हों! वो आगे चलती रहीं और मै उनके पीछे! मुझे जैसे सम्मोहन पाश में जकड़ लिया था उन्होंने, सच कह रहा हूँ, उस समय मै सारी सुध-बुध खो बैठा था! बस उनके पीछे पीछे पागल सा चले जा रहा था, और फिर वो कुआँ आया, कुँए में से जैसे पानी बाहर आ रहा था, बहता पानी मेरे जूतों से टकरा रहा था, मै जैसे किसी और की लोक में विचरण करने लगा था, प्रेतलोक में जैसे! कुआँ भी पार कर लिया और फॉर मैंने ज़मीन पर तड़पती हुई मछलियाँ देखीं! जैसे उनको पानी से निकाल कर बाहर छोड़ दिया गया हो! वो मुड-मुड कर उछल रही थीं, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ! सभी बड़ी बड़ी! मै एकटक उनको देखता रहा! धप्प-धप्प की आवाज़ आ रही थी उन मछलियों की, जब वो नीचे गिरती थीं! बड़ा ही अजीब सा दृश्य था!
वे औरतें और आगे चलीं, ये उन खेतों का निर्जन स्थान था, वहाँ बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, तभी वे एक बड़े से पत्थर के पीछे जाकर गायब हो गयीं, मै वहाँ उस पत्थर के सामने गया, और क्या देखा!! जो देखा अत्यंत भयानक था! वहाँ ७ सर पड़े थे, कटे हुए, धड भी थे उनके, पेट फटे हुए थे और सर उन आतों में उलझे हुए थे! मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उनकी भिनभिनाहट बहुत तीव्र और भयानक थीं, कुछ अन्य कीड़े भी लगे थे वहाँ! एक दूसरे पर चढ़े हुए! चार सर औरतों के थे और तीन सर पुरुषों के! सभी जीवित! एक एक करके सभी मेरा नाम पुकारे जा रहे थे! मै जैसे जड़ता से बाहर निकला! तभी एक औरत का धड़ खड़ा हुआ, जैसे नींद से जागा हो! सभी कटे सर चुप हो गए, केवल एक के अलावा, वो सर उसी धड़ का था!
"कौन है तू?" उस सर ने कहा,
मैंने अपना नाम बता दिया!
"क्या करने आया है?" उसने पूछा,
मै चुप रहा!
''जल्दी बता!" उसने धमका के पूछा,
मैंने कारण बता दिया!
तभी सभी कटे सर अट्टहास कर उठे! और एक एक करके खड़े हो गए! चौकड़ी मार के बैठ गए, अपने हाथों से आंते हटायीं उन्होंने अपने अपने सर पर उलझी हुई! मेड की पिचकारियाँ छूट पड़ीं आँतों से, कुछ मेरे जूते से भी टकराई, मक्खियों का झुण्ड भाग उठा एक पल को!
"चल! भाग जा यहाँ से!' एक पुरुष के सर ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
"नहीं मानेगा?" उसने धमकाया मुझे!
"नहीं!" मैंने कहा,
"सोच ले, दुबारा नहीं कहूँगा!" उसने चुटकी मार के कहा,
नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"ठीक है, तो अब देख!" उसने कहा,
तभी धूल का गुबार उठा और मेरे चेहरे से टकराया! धूल से सन गया मै! मैंने आँखें खोलीं, सब गायब! सब गायब! वहाँ केवल बड़े बड़े विषधर! फुफकारते विषधर! तभी वे आगे बढे और मुझे घेरे में डाल लिया, ले लिए! मेरी पिंडलियों पर उनकी फुफकार पड़ने लगी! गर्म और विष भरी!
अब मैंने ताम-मंत्र का जाप किया! और नीचे झुक कर मिटटी उठायी और अभिमंत्रित कर उन सर्पों पर बिखेर दी! वे एक क्षण में श्वेत हुए और धुंध के सामान लोप! मायापाश था वो! वहाँ अब कोई कीड़ा नहीं, ना ही कोई मक्खी! सब लोप हो गया!
मैंने सामने देखा, सामने वही दोनों औरतें खड़ी थीं! मै दौड़ पड़ा उनकी तरफ! मै आ गया उनके पास! अब पहली बार उनके चेहरे पर शांत भाव आये और होठों पर मुस्कराहट!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"भामा!" एक ने कहा,
"शामा" दूसरी ने कहा,
भामा और शामा!
"बहनें हो?" मैंने पूछा,
मैंने ऐसा इसलिए पूछा क्योंकि दोनों की शक्लें हू-ब-हू एक जैसी ही थीं!
"हाँ!" दोनों ने कहा,
अब कुछ बात बनी थी! वे बातचात करने को तैयार लगीं!
"तुम क्यों आती हो यहाँ?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा आने वाला है" भामा बोली,
"आने वाला है?" मैंने आश्चर्य से कहा,
"हाँ, आने वाला है" वो बोली,
"कौन है ये भेरू बाबा?" मैंने पूछा,
"हमारा मरद" उसने कहा,
"मरद( मर्द)?" मैंने विस्मित हो कर कहा,
"हाँ" वो बोली,
'तो तुम्हे किसने बलि चढ़ाया?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा ने" वो बोली,
"भेरू बाबा ने बलि चढ़ाया? किसलिए?" मैंने पूछा,
"अपने गुरु के लिए" वो बोली,
"कौन गुरु?" मैंने पूछा,
"नौमना बाबा" उसने बताया,
नौमना बाबा! नौ मन वाला बाबा! भार की एक देसी इकाई है मन, अर्थात चालीस किलो, नौ से गुणा करो तो तीन सौ साठ किलो! इतना भारी-भरकम बाबा! नौमना बाबा! कैसा होगा वो बाबा! विकराल स्वरुप! साक्षात यमपाल! बड़ी हैरत हुई मुझे!
"किसलिए चढ़ाया बलि?" मैंने पूछा,
"बाबा को प्रसन्न करने के लिए" अब शामा बोली,
"और तुम राजी थीं?" मैंने पूछा,
"प्रसन्नता से" वे बोलीं,
"अच्छा! तो नौमना बाबा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अपने वास में" वो बोली,
"और कहाँ है वास?" मैंने पूछा,
"नदी के पार" वे बोलीं, इशारा करके!
"वो मंदिर?" मैंने पूछा,
"नहीं, मंदिर के पास हमारा वास है, भेरू बाबा का वास" वे बोलीं,
उलझी हुई पहेली! मै भेरू को अंतिम लक्ष्य मान रहा था, लेकिन असल किरदार तो नदी के पार था! नौमना बाबा!
"भेरू कहाँ है, तुमने बताया कि आने वाला है?" मैंने पूछा,
"नौमना बाबा के पास!" वो बोली,
"क्या करने?" मैंने पूछा,
"पूजा, पंचम-पूजा!" वो मुस्कुरा के बोली,
पंचम-पूजा! प्रबल तामसिक पूजा! महातामसिक कहना उचित होगा! इक्यावन बलियां! नौमना सच में ही सिद्ध होगा! अवश्य ही!
"कोठरा पूज लिया?(एक तामसिक पूजन एवं भाषा)" मैंने पूछा,
"तीज पर पूजा था" उसने कहा,
मैंने हिसाब लगाया, आश्विन की तीज गए नौ दिन बीते थे!
"अब क्या करेगा ये नौमना बाबा?'' मैंने पूछा,
"धाड़ प्रज्ज्वलित करेगा!" उसने बताया,
धाड़! अर्थात वर्ष भर के लिए शक्ति-संचार! कमाल की बात थी! आज धाड़ प्रज्ज्वलित नहीं की जाती, मैंने हिसाब पुनः लगाया, उनके हिसाब से वे चार सौ वर्ष पहले जीवित थे! भेरू, खेचर, शामा, भामा और वो नौमना!
"अच्छा! मुझे उस जगह बाग़ में किसने धक्का दिया था?" मैंने पूछा,
"किरली ने" वो बोली,
"कौन किरली?" मैंने पूछा,
"खेचर की औरत" उसने बताया,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"उसका मंदिर है वहाँ" उसने बताया,
ओह! ये थी वजह! मै समझ गया!
इस से पहले मै कुछ और पूछता, वो झप्प से लोप हो गयीं!
मै लौटा वहाँ से, अब एक और स्थान पर जाना था! नौमना बाबा के स्थान पर!
मै तैयार था!
मै वापिस आया, सीधे शर्मा जी और हरि साहब के पास, शर्मा जी वहाँ से उठ कर मुझे देख आगे आये, मैंने कहा, "इनसे बोलिए कि हमको आज फिर उसी स्थान पर जाना है जहां आज गए थे, पुराने मंदिर के पास, अब कि बार नदी पार करनी है" 
"अभी कह देता हूँ" वे बोले,
और फिर शर्मा जी ने सारी बात उनको बता दी, वे तैयार हो गए और हम सब गाड़ी में बैठ, चल पड़े वहां से, नौमना बाबा का स्थान देखने!
"कोई सुराग हाथ लगा है गुरु जी?" क़य्यूम भाई ने पूछा,
"हाँ, ये सुराग ही है" मैंने कहा,
गाड़ी सर्राटे से भागी जा रही थी नदी की तरफ!
"क्या मसला है गुरु जी?" हरि साहब बे पूछा,
"बेहद उलझा हुआ और खतरनाक मसला है हरी साहब, सही वक़्त पर मै आ गया, नहीं तो यहाँ कोई अनहोनी हो जाती" मैंने कहा,
"अरे बाप रे" उनके मुंह से निकला,
"सही वक़्त पर आ गया मै" मैंने कहा,
"आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी, ऐसे ही सर पर हाथ रखे रहें" वे बोले,
"अभी कहानी आरम्भ हुई है, अंत कहाँ है ये मुझे अब भी नहीं पता हरी साहब" मैंने कहा,
"अब आप है यहाँ, अब कोई चिंता नहीं" हरी साहब हाथ जोड़ कर बोले,
मै चुप रहा, कुछ नहीं बोला,
हमको नदी के पार जाना था, अतः एक नया ही रास्ता लिया गया था, और किसी तरह करके हम वहाँ पहुँच गए, पथरीले रास्ते पर गाड़ी भागने लगी, भागने क्या, हिचकोले खाती हुई अपनी मजबूती का इम्तिहान देने लगी थी!
और हम वहाँ पहुँच गए जहां जाना था, यहाँ खंडहर थे, काफी विशाल क्षेत्र था, निर्जन, किसी समय में जगमग रहने वाला आज निर्जन पड़ा था, शहर से दूर, परित्यक्त, अब वहाँ इंसानों का बसेरा नहीं, कीड़े-मकौडों और साँपों आदि का स्वर्ग था ये अब! मैंने वो खंडहर देखे अपने किसी समय में भव्य होने के प्रमाण शेष बचे भग्नावशेषों से पता चल रहा था! मै आगे बढ़ा और अपने साथ शर्मा जी को लिया, बाकी उन दोनों को गाड़ी में ही बैठने को कह दिया, वे गाड़ी में बैठ गए!
"आइये" मैंने शर्मा जी से कहा,
"जी चलिए" वे बोले,
हम दोनों आगे बढ़ चले,
"तो ये है नौमना बाबा का स्थान!" मैंने कहा,
मै आगे चला, 
आगे दो काले सर्प-युगल प्रणय में सलिंप्त थे, मैंने हाथ जोड़े और अपना मार्ग बदल लिया, वे प्रणय में ही व्यस्त रहे, मै अपने दूसरे मार्ग पर प्रशस्त हो गया, आगे चलता रहा, शर्मा जी को हाथ के इशारे से आगे बुलाया, वे आगे आ गए,
"यहाँ कुछ अजीब दिख रहा है?" मैंने पूछा,
"क्या अजीब?" उन्होंने आसपास देख कर कहा,
"यहाँ ये जो खंडहर हैं छोटे छोटे, ये आठ हैं, एक दूसरे से कराब पचास-पचास मीटर दूर, और हम अब मध्य भाग में हैं, सभी की दूरी यहाँ से लगभग समान है!" मैंने कहा,
"अरे हाँ!" वे बोले,
तभी मैंने शर्मा जी का कन्धा पकड़ते हुए एक तरफ खींच लिया, वहाँ से एक गोह गुजर रही थी, मुंह में एक पक्षी को लिए हुए!
"गोह" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"हाँ, तो देखा ये स्थान?" मैंने अपनी बात वहीँ से आरम्भ की जहां छोड़ी थी!
"हाँ, लेकिन अजीब नहीं है इसमें कुछ?" वे बोले,
"अब देखो, अज से चार सौ वर्ष पहले ये बरसाती नदी भी यही होगी, या कहीं आसपास बहती होगी, उसमे बढ़ भी आती होगी, तो बाढ़ आने के खतरे से बचने के लिए यहाँ ये भवन निर्माण कैसे किया होगा?" मैंने पूछा,
"हां" वे बोले,
"तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम किसी या तो उस समय की पहाड़ी या किसी ऊंचे टीले पर खड़े हैं आज वर्तमान में" मैंने बताया,
"हाँ, संभव है" वे बोले,
अभी मै बात आगे बढाता कि मुझे वहाँ किसी की पदचाप सुनाई दी, तेज तेज क़दमों से कोई चहलकदमी कर रहा था! लेकिन दिख नहीं रहा था, मैंने तभी कलुष मंत्र का संधान कर अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! आँखें खोलीं तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया! मैंने आगे पीछे देखा, कोई नहीं था, तभी शर्मा जी ने कुछ देखा और चुटकी मार कर मेरा ध्यान उस तरफ किया! मैंने वहीँ देखा, ये सीढियां थीं, और उस पर बीच में से चिरी एक औरत थी, वो कलेजे तक चिरी हुई थी, अङ्ग बाहर निकल कर झूल रहे थे, उसका आधा हिस्सा आगे और आधा हिस्सा पीछे ढुलक रहा था! उसके हाथ में एक थाल सा कोई बर्तन था, 
"भाग जाओ!" एक आवाज़ आई!
मैंने चारों तरफ से देखा, कोई नहीं था वहाँ, बस वही चिरी हुई औरत थी जो सीढ़ियों पर खड़ी थी! और वो बोल नहीं सकती थी!
"कौन है?" मैंने चिल्ला के पूछा,
"भाग जाओ यहाँ से" फिर आवाज़ आई,
"कौन है, सामने आओ?" मैंने भी चिल्ला के कहा,
तभी उस औरत ने थाल मेरी तरफ फेंका, थाल में सूखी हुई अस्थियाँ, और मछलियाँ पड़ी थीं!
"भाग जाओ!" फिर से आवाज़ आई!
लेकिन वहाँ कोई नहीं था, कोई नहीं आया!
वहाँ केवल हम तीन ही थे!
रहस्य के गुरुत्वाकर्षण से मेरे पाँव जैसे भूमि में समा गए थे!
"चले जाओ" फिर से आवाज़ आई,
"जो भी है, सामने आये" मैंने कहा,
कुछ पल शांति!
"चले जाओ" फिर से आवाज़ आई, इस बार आवाज़ पीछे से आई थी, हम दोनों ने फ़ौरन ही पीछे मुड़कर देखा, वहाँ कोई नहीं था, एक जंगली पेड़ था वहाँ और कुछ बड़े बड़े पत्थर, और कुछ भी नहीं, और कुछ था भी तो कलुष-मंत्र की जद में नहीं था वो!
अब मैंने सामने देखा, चिरे हुए सर वाली औरत भी गायब थी और वो थाल और सूखी हुई अस्थियाँ और मछलियाँ भी!
"यहाँ एक गंभीर खेल खेला जा रहा है शर्मा जी!" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी" उन्होंने कहा,
"कोई हमे यहाँ से भगा देना चाहता है, लेकिन मै नहीं हटने वाला!" मैंने कहा,
"कौन है यहाँ?" अब शर्मा जी ने आवाज़ लगाई,
मैंने आसपास एख, कोई नहीं था वहाँ!
सहसा, हवा में से एक पाँव गिरा, एक कटा हुआ पाँव, पाँव में पायजेब थी, अतः ये पाँव किसी स्त्री का था, घुटने से नीचे तक कटा हुआ! बिलकुल मेरे सामने! मै और शर्मा जी पीछे हट गए!
तभी एक और पाँव गिरा, ये दूसरा पाँव था, उसी स्त्री का, पायजेब पहले, दोनों पाँव एक दूसरे से साथ सट गए थे!
"भाग जाओ यहाँ से!" अबकी बार एक औरत का स्वर सुनाई दिया!
"मै नहीं जाऊँगा, मै नहीं डरता, सामने आओ मेरे, सम्मुख बात करो मुझसे!" मैंने अब ज़िद में आकर कहा,
दोनों कटे पाँव गायब हुए उसी क्षण और मेरे समाख एक नग्न स्त्री प्रकट हो गयी, उसके शरीर पैर न कोई आभूषण था, नो कोई रक्त के निशान बस उसकी छाती पर ऊपर गले से नीचे एक गोदना था, ये गोदना ऐसा था जैसे किसी का परिचय लिखा गया हो, वो स्त्री बहुत सुंदर और शांत थी, मुझे भी भय नहीं लगा उस से! ना जाने क्यों!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"भाभरा" उसने मंद स्वर में कहा,
"कौन भाभरा?" मैंने पूछा,
"खेचरी" उसने कहा,
अब मै समझ गया, खेचर की औरत! उसकी पत्नी!
मैंने उसको ऊपर से नीचे तक देखा!
लम्बा-चौड़ा बदन, बलिष्ठ एवं गौर-वर्ण, अत्यंत रूपवान! उसकी भुजाएं मेरी भुजाओं से भी अधिक मोटी और बलशाली थीं!
"जाओ, चले जाओ यहाँ से" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"भेरू बाबा आने वाला है" उसने बताया,
"तो?" मैंने पूछा,
"वो काट देगा तुमको" वो बोली,
"क्यों काटेगा?" मैंने पूछा,
"उसको अन्य कोई सहन नहीं यहाँ, उसके स्थान पर" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"मुझे जानती हो?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कौन हूँ मै?" मैंने पूछा,
उसने मेरे सब आगा-पीछा बता दिया!
"मै कहीं नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,
"व्यर्थ में हलाक़ कर दिए जाओगे" वो बोली,
"देखते हैं" मैंने कहा,
"मान जाओ, चले जाओ" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने में आँखों में देखा, जैसे कोई दया का भाव हो उसकी आँखों में, मै जान रहा था परन्तु मै जानना नहीं चाहता था! मुझे भेरू से मिलना था!
मेरे देखते ही देखते भाभरा लोप हो गयी!
"भाभरा!" मैंने कहा,
अब मै आगे बढ़ा, उन्ही सीढ़ियों पर, सीढ़ी पर जैसे ही आया मुझे चावल उबलने की गंध आई, बेहद तेज, जैसे बड़ी मात्र में चावल उबाले जा रहे हों!
मै आगे बढ़ गया!
लगता था जैसे किसी विशेष आयोजन हेतु चावल उबाले जा रहे हों! किसी महाभोज की तैय्यारियाँ चल रही हों! ये गंध मुझे ही नहीं, शर्मा जी को भी आई थी, तीक्ष्ण गंध थी बहुत! नथुनों के पार होते हुए अन्तःग्रीवा पर अपना स्वाद छोड़ते हुए! मै उन सीढ़ियों से ऊपर की तरफ चला, ये एक बड़ा सा शिलाखंड था, जो अब टूटा हुआ पड़ा था, तभी मुझे वहाँ किसी के खिलखिलाने की आवाजें आयीं! जैसे कई बालक किसी के पीछे शोर मचाते हुए घूम रहे हों और वो उनको समझा रहा हो! जैसे बालकों ने उसको उपहास का पात्र मान लिया हो! फिर अचानक से आवाज़ बंद हो गयी! वहाँ फिर से सन्नाटे की जो काई फटी थी, फिर से एक हो गयी! मै उस शिलाखंड से नीचे उतरा, और मेरे सामने खड़ा था खेचर!
मै ठिठक के खड़ा हो गया!
"अब जा यहाँ से" खेचर ने कहा,
"क्यों खेचर?" मैंने पूछा,
"बस, बहुत हुआ" वो गुस्से में बोला,
"क्यों? तू ही तो लाया था मुझे यहाँ?" मैंने कहा,
"नहीं, अब जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं तो?" मैंने पूछा,
"जान से जाएगा" वो बोला,
"भेरू मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,
"फूंक देगा तुझे" वो बोला,
"आने दो उसको फिर!" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा?" उसने अब धमकाया मुझे!
"नहीं" मैंने कहा,
"तेरे भले के लिए कह रहा हूँ" उसने कहा,
"कोई आवश्यकता ही नहीं" मैंने कहा,
खेचर लोप हुआ! और मै अब सन्न! सन्न इसलिए की न जाने अब क्या हो आगे? कौन आये? भेरू अथवा नौमना बाबा!
मैंने अब त्वरित निर्णय लिया, गुरु-वन्दना कर मैंने महा-वपुरूप मंत्र का जाप किया! और फिर उस से अपने को और शर्मा भी को सशक्त किया! शक्ति-संचार हुआ, रोम-रोम खड़ा हो गया! और हम अब एक अभेद्य-ढाल में सुरक्षित हो गए!
मै वहाँ से आगे आया, कुछ दूर गया, तभी मेरे कंधे पर जैसे किसी ने हाथ रखा, ये वही औरत थी, भाभरा! उसने हाथ नहीं रखा था, बल्कि अपने केशों का बंधा हुआ चुटीला टकराया था मुझसे! उसने अपना हाथ आगे उठाया और बढाते हुए मेरी ओर किया, मैंने अपना हाथ आगे बाधा दिया और उसने अपने हाथ से मेरे हाथ में कुछ दे दिया, मैंने खोल का देखा, ये एक गंडा था, सोने से बना हुआ, काले रंग के धागे से गुंथा हुआ, मैंने सामने देखा, भाभरा नहीं थी वहाँ! वो जा चुकी थी!
हाँ वो गंडा है आज तक मेरे पास, मै आपको उसकी तस्वीर दिखाता हूँ--




ये है वो तस्वीर, उस गंडे की, ये उसकी कलाई में बांधे जाने वाला गंडा है, जो अब मेरे गले में आता है, ऐसा था उसका डील-डौल! भाभरा सच में एक दयालु प्रेतात्मा थी, मै आज भी उसका सम्मान करता हूँ, उसने वो गंडा मेरी रक्षा हेतु दिया था, या यूँ कहिये कि उस गंडे ने मेरे मनोबल स्थिर रखा था! मुझे अभी भेरू बाबा और नौमना बाबा से भी मिलना था, अतः ये गंडा मेरे लिए किसी संजीवनी से कमतर नहीं था!
मैंने वो गंदा अपनी जेब में रखा और वहाँ से निकलने लगा, अब मुझे आवश्यक तैयारिया करनी थीं! समय आ पहुंचा था एक दूसरे को आंकने का! तोलने का! अतः मै और शर्मा जी वहाँ से फ़ौरन ही निकले, गाड़ी में बैठे और फिर हरि साहब के घर की ओर चल दिए!

हम घर पहुंचे, मई सीधे ही स्नान करने चला गया, और फिर शर्मा जी भी स्नान करने चे अगये, वे आये और मैंने फिर अपना बैग खोला, बैग में से अब सभी आवश्यक वस्तुएं बाहर निकालीं, और एक छोटे बैग में भर दीं, आज संध्या-समय इनमे शक्ति जागृत करनी थी, ये परम आवश्यक ही थी, ये ऐसे ही है किस जैसे किसी बन्दूक या राइफल को साफ़ करना!
अब हरि साहब से मैंने अधिक बातें नहीं कीं, उन्होंने भोजन के बारे में पूछा तो हमने हामी भरी और भोजन लगवा दिया गया, किसी प्रकार से भोजन हलक के नीचे उतारा और फिर हम विश्राम करने चले गये! दरवाज़ा भेड़ दिया था, और मै अब लेट गया, शर्मा जी कुर्सी पर बैठे आज का अखबार खंगालने लगे! अखबार अब एक ओर रख उन्होंने और मुझसे पूछा, "गुरु जी?"
"बोलो?" मैंने कहा,
"सोये तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं तो" मैंने कहा,
"मुझे कुछ समझाइये" वे बोले,
"पूछिए" मैंने कहा,
"भामा और शामा, ये पत्नियां हैं भेरू की" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो भेरू ने उनको बलि चढ़ाया बाबा नौमना के लिए" वे बोलते गए,
"हाँ" मैंने कहा,
"किस कारण से?" उन्होंने पूछा,
"स्पष्ट है, बाबा नौमना को प्रसन्न करने के लिए!" मैंने बताया,
"प्रसन्न किसलिए?" उन्होंने पूछा,
'शक्ति प्राप्त कने हेतु" मैंने कहा,
"अच्छा, तो भामा और शामा ही क्यूँ?" उन्होंने पूछा,
"अर्थात?" मै अब उठ खड़ा हुआ!
"कोई और भी हो सकता था उनके स्थान पर?" उन्होंने शंका का डंका बजा दिया!
"हाँ, हो सकता है ऐसा. परन्तु उन्होंने स्वयं बताया था कि नौमना बाबा को प्रसन्न करने के लिए" मैंने कहा,
"अच्छा, तो फिर ये खेचर? और उसकी पत्नी भाभरा?" उन्होंने पूछा,
"ह्म्म्म! ये तो बलि नहीं चढ़े!" मैंने कहा,
"इनका क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, ये तो नहीं पता चला अभी" मैंने कहा,
"जहां तक ये सवाल है,वहाँ तक उसका जवाब भी उलझा हुआ है गुरु जी" वे बोले,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"देखा जाए तो खेचर और भाभरा ने अभी तक हमारी मदद ही कि है, वो गंडा भी भाभरा ने आपको दे दिया, है या नहीं?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, निःसंदेह!" मैंने कहा,
"ये मदद किसलिए?" उन्होंने पूछा,
"शायद मुक्ति के लिए?" मैंने पूछा,
"हाँ, संभव है ये, लेकिन मैंने सोचा, किसी प्रतिकार के लिए" वे बोल गए,
मुझे जैसे विद्युत् का झटका लगा!
"प्रतिकार? कैसा प्रतिकार?" मैंने पूछा,
"मदद? कैसी मदद?" वे बोले,
धम्म! जैसे में मुंह के बल गिरा ज़मीन पर!
बात में दम था! अवश्य ही ये भी एक गूढ़ रहस्य ही था! मदद! कैसी मदद??
"आपको क्या लगता है?" मैंने पूछा,
"अभी कुछ और परतें शेष हैं" वे बोले,
"यक़ीनन!" मैंने कहा,
और सच में, अभी भी कई परतें थीं वहाँ खोलने के लिए!

सच कहा था शर्मा जी ने, परतें तो बहुत थीं इस मामले में! और न जाने कितने परतें बाकी थीं खुलने में!
"चलिए शर्मा जी, अब ये भी जानते हैं की भेरू बाबा कब आ रहा है!" मैंने कहा,
"ये कौन बताएगा?" उन्होंने पूछा,
"खेचर या भामा और शामा, कोई भी इन में से!" मैंने कहा,
"अर्थात आज रात फिर से खेत पर जाना होगा" वे बोले,
"हाँ, जाना तो होगा ही" मैंने कहा,
"ठीक है, अब इस कहानी का रहस्योद्घाटन कर दीजिये गुरु जी!" वे बोले,
"आज यही प्रयास करूँगा" मैंने कहा,
उसके बाद हम लेट गए, थकावट हो चली थी सो थोड़ी देर के विश्राम के लिए आँखें बंद कीं और फिर कुछ ही देर में सो गए हम!
जब नींद टूटी तो शाम के छह बजे थे, नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया था, वो चाय ले आया था, साथ में हरि साहब भी थे, नौकर ने चाय टेबल पर रखी और हमने एक एक कप उठा लिया, चुस्की लेते हुए, नींद की खुमारी तोड़ते रहे!
अब शर्मा जी ने हरि साहब से कह दिया की क़य्यूम भाई से कह दीजिये की रात में खेतों पर जाना है हमको, आज एक क्रिया भी करनी है वहाँ, सो सामान भी मंगवाना है कुछ, शर्मा जी ने सामान लिखवा दिया, इसमें मांस, शराब आदि सामग्रियां थीं, आज मुझे वहाँ क्रिया करनी पड़ सकती थीं, आज भेरू को जगाना था!
और इस तरह से रात दस बजे का वक़्त मुक़र्रर हो गया! हरि साहब वो परचा लेकर बाहर चले गए और मै और शर्मा जी टहलने के लिए अपने अपने जूते पहन, बाहर निकल गए!
हम करीब आधे-पौने घंटे टहले होंगे तभी फ़ोन आया हरि साहब का, शर्मा जी ने फ़ोन उठाया, शर्मा जी को हरि साहब ने बताया कि वे लोग घर आ चुके हैं और अब हम भी वहाँ पहुँच जाएँ, हम अब वापिस हो लिए थे, घर आये तो सामान का प्रबंध हो गया था!
अब मुझे अपनी सामग्री और सामान व्यवस्थित करना था, मैंने अपना त्रिशूल और कपाल-कटोरा उसी छोटे बैग में रख लिया, और कुछ और भी तांत्रिक-वस्तुएं थीं जो मैंने रख ली थीं!
धीरे धीरे घंटे गुजरे आयर बजे दस! सब वहीँ बैठे थे सो हम एक दम से उठे और सीधा गाड़ी में जा बैठे, गाड़ी दौड़ पड़ी खेतों की तरफ!
हम खेत पहुँच गए, मैंने सामान उठाया और शनकर के कोठरे पर सामान रख दिया, वहाँ से एक बड़ी टोर्च ली और मै वहाँ से उन सभी को बिठा कर शर्मा जी को साथ लेकर एक अलग ही स्थान पर चला गया, हाँ बुहारी ले ली थी मैंने शंकर से, मैंने एक पेड़ के नीचे एक जगह बुहारी लगाई, जगह साफ़ की, और फिर अपना बैग रख दिया, एक एक करके मैंने सारा सामान वहाँ रख दिया तरतीब से! अपने शरीर पर भस्म मली, शर्मा जी के माथे और छाती पर भस्म-लेप लगा दिया! ये प्रश्न-क्रिया थी, अतः मैंने शर्मा जी को अपने साथ बिठा लिया था!
अब मैंने अलखदान निकाला, और उसको अपने सामने रख दिया, उसमे सामग्री डाली और फिर अग्नि उसके मुख पर विराजमान कर दी! अलख-घोष किया और अलख चटाख-पटाख की आवाज़ के साथ जोर पकडती चली गयी! एक थाल में मांस और मदिरा रख ली, कुछ गैंदे के फूल भी रख दिए वहाँ और अब दो कपाल-कटोरे निकाले! एक शर्मा जी को दिया और एक मैंने स्वयं लिया, उनमे मदिरा परोसी और सबसे पहले अलखभोग दिया! एक अट्टहास किया! त्रिशूल बाएं भूमि में गाड़ दिया और औघड़-कलाप आरम्भ हो गया वहाँ! कपाल-कटोरे से मै और शर्मा जी मदिरा के घूँट हलक से नीचे उतारते चले गए! साथ ही साथ कलेजी के कच्चे टुकड़े चबाते चले गए!



मैंने अब कलुष-मंत्र का संधान किया और अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! दृश्य स्पष्ट हुआ सामने का! मैंने कलेजी का एक टुकड़ा निकाला और कछ खाया, और फिर हाथ में निकाल लिया, एक मंत्र पढ़ते हुए पुनः लील गया उसको! इस से वो मंत्र मेरे अन्दर समाहित हो गया! मेरे शरीर और मस्तिष्क में एकाग्रचित होने का भाव उत्पन्न हो गया! अन मात्र लक्ष्य और केवल लक्ष्य!
मै औघड़ी मुद्रा में खड़ा हुआ! त्रिशूल लिया और भेरू बाबा का आह्वान किया!
"आओ भेरू!" मैंने कहा,
नृत्य-मुद्रा में आया!
"आओ भेरू!" मैंने फिर से कहा,
कोई नहीं आया!
"आ भेरू?" मैं गर्राया!
कोई नही आया!
अभी मै उसको पुकारता कि वहाँ एक औघड़ सा प्रकट हुआ, गले में नेत्र-बिम्बों की माला पहने! बिम्ब-माल! बंगाल का अभेद्य तंत्र! कामरूप का सुदर्शन!
"कौन है तू?" वो दहाड़ा!
"जा! भेरू को बुला!" मैंने कहा,
"उत्तर दे, कौन है तू?" उसने कहा,
"जा, भेज उसे!" मै भी गरजा!
"क्यों मरने चला आया है यहाँ?" उसने हाथ के इशारे से कहा, उसके हाथ से कुछ रक्त की बूँदें छिटक कर मेरी ओर आई, मेरे मुख पर पड़ीं!
"सुन! जा, भेज भेरू को!" मैंने कहा,
उसने मुझे अपशब्द कहे! मै यही चाहता था, उसको भड़काना! वो भड़क गया था!
"तू जानता है मै कौन हूँ?" उसने छाती पर हाथ मारते हुए कहा,
"मै नहीं जानना चाहता, जा भेज अपने बाप भेरू को!" मैंने कहा,
"खामोश!" वो चिल्लाया!
"जा, अब निकल यहाँ से, बुला भेरू को!" मैंने कहा, धिक्कारा उसे!
"बस! बहुत हुआ! तूने शाकुण्ड को ललकारा है! टुकड़े कर दूंगा तेरे!" उसने कहा,
शाकुण्ड! तो ये शाकुण्ड औघड़ है!
तभी मेरे चारों ओर अग्नि-चक्रिका प्रकट हुई, उसका बंध धीरे धीरे कम होता जा रहा था, मैंने फ़ौरन ही ताम-मंत्र का जाप कर उसको जागृत किया, अग्नि-चक्रिका मुझे छोटे ही लोप हो गयी! ये देख शाकुण्ड की भृकुटियाँ तन गयीं! जैसे किसी दुर्दांत क्रोधित सर्प ने किसी पर वार किया हो और वार खाली चला जाए!
अब मैंने अट्टहास लगाया!
शाकुण्ड ने मायाधारी, सर्प, कीड़े-मकौड़े और न जाने क्या क्या बनैले जीव-जंतु प्रकट किये, लेकिन ताम-मंत्र ने सबका नाश कर दिया!
शाकुण्ड आगे आया!
"कौन है तू?" उसने अब धीमे स्वर में पूछा,
मैंने उसको अपना और अपने दादा श्री का परिचय दे दिया!
"क्या करने आया है यहाँ?" उसने पूछा,
"मुक्त! कुक्त करने आया हूँ!" मैंने कह ही दिया!
"किसे?" उसने पूछा,
"सभी को, जो यहाँ इस भूमि-खंड में फंसे रह गए हैं!" मैंने कहा,
"ये इतना सहज नहीं!" उसने कहा,
"मै जानता हूँ, आगे न जाने कितने शाकुण्ड मिलने हैं मुझे!" मैंने कहा,
"सुन! लौट जा यहाँ से!" उसने फिर से मंद स्वर में कहा,
"नहीं शाकुण्ड बाबा!" मैंने कहा,
"समझ जा!" उसने कहा,
"नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"क्या चाहिए तुझे? मांग क्या मांगता है?" उसने कहा,
"आपका धन्यवाद शाकुण्ड बाबा! मै धन्य हुआ!" मैंने कहा,
शाकुण्ड हंसा!
"भेरू बाबा को भेजो बाबा!" मैंने कहा,
'वो यहाँ नहीं है!" उसने बताया,
"तो फिर?" मैंने कहा,
"बाबा नौमना के पास है!" शाकुण्ड ने कहा,
"मै वहीँ जाऊँगा!" मैंने कहा,
"जाना! अवश्य ही जाना! परन्तु चौदस को!" वो बोल,
फ़ौरन मै समझ गया कि क्यों चौदस!
"जी बाबा!" मैंने कहा,
और फिर मेरे देखते ही देखते शाकुण्ड बाबा भूमि में समा गए!
मै बैठ गया आसन पर!
चौदस कल थी! पंचांग के हिसाब से दिन में ५ बज कर १३ मिनट से आरम्भ था उसका, पहला करण तीक्ष्ण था और दूसरा मृदु, अतः दूसरे करण में ही जाना उचित था! ये प्रेतमाया थी! एक से एक बड़े शक्तिशाली प्रेत थे यहाँ! और न जाने कितने अभी आये भी नहीं थे!
मै बैठा और कपाल-कटोरे में मदिरा परोसी! और कच्चे मांस का आनंद लिया! तभी वहाँ एक अट्टहास गूंजा! ये खेचर था! सामने उकडू बैठा हुआ!
"बहुत ज़िद्दी है तू!" उसने कहा,
"ये तो कल देखना खेचर!" मैंने कहा!
खेचर अट्टहास लगाते ही लोप हो गया! और मैंने कपाल-कटोरा रिक्त कर दिया!
अब मैंने वहाँ से अपना सामान-सट्टा उठाया और अलख को वहीँ छोड़ दिया, अलखदान मै सुबह उठा सकता था, अतः अलख वहीँ छोड़ दी मैंने भड़कती ही, बाकी सारा सामान इकट्टा कर मै और शर्मा जी वहाँ से वापिस हो लिए!
वहां वे सभी हमारी चिंता में लगे थे, हमे कुशल से देख प्रसन्न हुए और फिर हम अब चल पड़े वहाँ से, हरि साहब के घर! आज रात विश्राम करना था और कल फिर रात्रिकाल में एक गंभीर टकराव होना था, देखना था ऊँट किस करवट बैठता है!
हम घर पहुँच गए, नहाए धोये और फिर विश्राम करने के लिए कमरे में आ गए, भोजन कर ही लिया था सो भोजन की मनाही की और सीधा बिस्तर में कूद गए! नशा छाया हुआ था! शाकुण्ड के बातें रह रह के याद आने लगी थीं! मेरे मस्तिष्क पटल पर एक एक का रेखाचित्र गढ़ता चला गया! अब दो शेष थे, एक भेरू बाबा और एक बाबा नौमना!
नींद से खूब ज़द्दोज़हद हुई और आखिर नींद को लालच देकर पटा ही लिया! अंकशायिनी बनने को सहर्ष तैयार हो गयी और मै उसके आलिंगन में ढेर हो गया!
सुबह नींद खुली तो सात बज चुके थे, शर्मा जी उठ चुके थे और कमरे में नहीं थे, गौर किया तो उनकी और हरि साहब की बातें चल रही थीं, बाहर बैठे थे दोनों ही! मै उठा, अंगड़ाइयां लीं और फिर नहाने का मन बनाया, नहाने गया, वहाँ से फारिग हुआ और फिर कपडे पहन कर वापिस आ गया, और कमरे से बाहर निकला, हरि साहब और शर्मा जी से नमस्कार हुई और फिर वहाँ बिछी एक कुर्सी पर मै बैठ गया, सामने पड़ा अखबार उठाया, चित्र आदि का अवलोकन किया और फिर रख दिया अखबार वहीँ, अब तक चाहि आ गयी, चाय पी, नाश्ता भी किया और फिर यहाँ वहाँ की बातें चलती रहीं!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले,
"आप हरि साहब को आज का सामान लिखवा दीजिये" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
अब मै उठा वहाँ से और कमरे में आ गया, फिर से लेट गया, तभी थोड़ी देर बाद वहाँ शर्म जी आ गए,
"लिखवा दिया सामान?" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"दोपहर तक मिल जाना चाहिए" मैंने कहा,
"कह दिया मैंने" वे बोले,
"ठीक" मैंने कहा,
"आज खेतों में तो कोई काम नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, आज वहाँ कोई काम नहीं" मैंने कहा,
"तो सीधे वहीँ जाना है?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"आज बहुत मुश्किल रात है" मैंने कहा,
"मै जानता हूँ" वे बोले,
मैंने करवट बदली और दूसरी ओर मुंह कर लिया,
शर्मा जी भी लेट गए अपने बिस्तर पर,
"आज मै आपको अपने साथ नहीं बिठाऊंगा, हाँ मुझे नज़र में ही रखना" मैंने कहा,
"अवश्य गुरु जी" वे बोले,
हम बातें करते रहे निरंतर, एक दो फ़ोन भी आये दिल्ली से, बात हुई और फिर से यहीं का घटनाक्रम आगे आकर खड़ा हो गया सामने!
घंटे पर घंटे बीते, कभी उठ जाते कभी एक आद झपकी ले लेते! और आखिर ७ बज गए! तिथि का प्रथम करण आरम्भ हो गया था, दूसरा आने में अभी समय बाकी था, मैंने पुनः सामान की जांच की, सब कुछ सही पाया, कुछ मंत्र भी जागृत कर लिए और अब मै मुस्तैद हो गया!
रात्रि समय ठीक साढ़े ग्यारह बजे हम निकल पड़े वहीँ उसी भेरू बाबा के स्थान की ओर! आज की रात भयानक थी, अत्यंत भारी, पता नहीं कल सूर्या को सिंहासनरूढ़ कौन देखने वाला था!
हिचकोले खाती गाड़ी ले चली हम को वहीँ के लिए, इंच, मीटर और फिर किलोमीटर तय करते करते हम पहुँच गए वहाँ!
मैंने टोर्च ली, शर्मा जी को भी साथ लिया, बैग उठाया और उसमे से सभी वस्तुएं निकाल लीं, हवा एकदम शांत थी, न कोई स्पर्श ही था और न कोई झोंका ही! अब मुझे एक उपयुक्त स्थान चुनना था, मैंने नज़र दौड़ाई तो एक जगह के एक शिला के पास वो जगह मिल गयी, साफ़ जगह था वो, वहां रेत था कुछ मिट्टी सी, ये स्थान ठीक था, हाँ मै किसी और के स्थान में अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर गया था, अब मैंने यहाँ अपना बैग रखा, एक जगह हाथ से गड्ढा खोदा दो गुणा डेढ़ फीट का, यहाँ अलख उठानी थी मुझे! मैंने सबसे पहले अपना आसन बिछाया, मंत्र पढ़ते हुए, फिर त्रिशूल गाड़ा मंत्र पढ़ते हुए, कपाल रखे वहाँ और कपाल कटोरा मुंड के सर पर रख दिया! फिर एक एक करके संभी सामग्री और सामान वहां व्यवस्थित किया, अलख के लिए मैंने सार आवश्यक सामान अलख में रखा और फिर मैंने शर्मा जी से कहा,"अब आप जाइये शर्मा जी" 
"जाता हूँ गुरु जी, एक बार जांच कर लीजिये, किसी वस्तु की कोई कमी तो नहीं?" उन्होंने पूछा,
"नहीं, कोई कमी नहीं, सब ठीक है" मैंने कहा,
वे उठे,
"सफलता प्राप्त करें गुरु जी" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"मै चलता हूँ" वे चलने लगे वहाँ से,
"ठीक है, मुझे दूर से नज़र में ही रखना, किसी को यहाँ नहीं आने देना, चाहे कुछ भी हो जाए" मैंने कहा,
"जी गुरु जी" वे बोले और अब वापिस हुए,
अब मैंने अपना चिमटा उठाया और फिर अपनी अलख और उस क्रिया-स्थान को उस चिमटे की सहायता से एक घेरे में ले लिया, ये औंधी-खोपड़ी मसान का रक्षा-घेरा था, उसको आन लगाते हुए मैंने वो प्राण-रक्षा वृत्त पूर्ण कर लिया और अब अलख उठा दी! अलख चटख कर उठी, मैंने अलख को प्रणाम किया और फिर गुरु-वंदना कर मैंने अलख-भोग दिया! तीन थालियाँ निकाली और उनमे सभी मांस, मदिरा आदि रख दिए, ये शक्ति-भोग था! 
अब मैंने सबसे महत्वपूर्ण मंत्र जागृत किये, कलुष, महाताम, भंजन, एवाम, अभय एवं सिंहिका आदि मंत्र! मै एक एक करके उनको नमन करते हुए शिरोधार्य करता चला गया! अंत में देह-रक्षण अघोर-पुरुष को सौंपा और अब मै तत्पर था!
अब मैंने भस्म-स्नान किया और फिर कपाल-कटोरे में मदिरा परोसी और फिर गटक गया! कुरुंड-मंत्र से देह स्फूर्तिमान हो गयी, नेत्र चपल और जिव्हा केन्द्रित हो गयी!
मै खड़ा हुआ और एक अट्टहास किया! महानाद! और फिर बैठ गया, क्रिया आरम्भ हो गयी थी!
और तभी मेरे सामने से खेचर, भाभरा, भामा, शामा और मुंड-रहित किरली निकल गए! एक झांकी के समान! और फिर वही शाकुण्ड बाबा! वही गुजरे वहाँ से! 
दूसरा करण आरम्भ हुआ और यहाँ मैंने अब अलख से वार्तालाप आरम्भ किया, नाद और घोर होता गया, मुझे औघड़-मद चढ़ने लगा!
अब मैंने भेरू को बुलाने के लिए, मांस के टुकड़े अभिमंत्रित किये और उनको चारों दिशाओं में फेंक दिया! फिर से मंत्र पढ़े, एक बार को हतप्रभ से वे सभी वहाँ फिर प्रकट हुए और फिर लोप हुए! समय थम गया! वहाँ क दृश्य चित्र में परिवर्तित हो गया, सुनसान बियाबान में लपलपाती अलख, उसके साथ बैठा एक औघड़ और वहाँ मौजूद कुछ प्रेतात्माएं! खौफनाक दृश्य! और हौलनाक वो चित्र! अलख की उठी लपटों ने भूमि को चित्रित कर दिया!
और तभी, तभी एक महाप्रेत सा प्रकट हुआ! मैंने उसको ध्यान से देखा, कद करीब सात फीट! गले में सर्प धारण किये हुए, मुझे एकदम से हरि साहब की पत्नी क ध्यान आया, उन्होंने ही बताया था, एक महाप्रेत भेरू गले में सर्प धारण किये हुए, तो ये भेरू था! आन पहुंचा था वहाँ! बेहद कस हुआ शरीर था उसका, चौड़े कंधे और दीर्घ जांघें! साक्षात भयानक जल्लाद! साक्षात यमपाल! नीचे उसे लंगोट धारण कर रखी थी, हाथ में त्रिशूल और त्रिशूल में बंधा एक बड़ा सा डमरू! वो हवा में खड़ा था, भूमि से चंद इंच ऊपर! गले में मालाएं धारण किये, अस्थियों से निर्मित मालाएं! गले में एक घंटाल सा धारण किये हुए! हाथों में असंख्य तंत्राभूषण! बलिष्ठ भुजाएं और चौड़ी गर्दन! एक बार को तो मुझे भी सिहरन सी दौड़ गयी! काले रुक्ष केश, जैसे विषधर आदि लिपटें हों उसके सर पर! मस्तक पर चिता-भस्म और पीले रंग से खिंचा एक त्रिपुंड!
"कौन है तू?" उसने भयानक गर्जना में मुझसे पूछा,
मैंने उसको परिचय दिया अपना!
"क्या करने आया है यहाँ?" उसने फिर से पूछा,
मैंने अपना मंतव्य बता दिया!
उनसे एक विकराल अट्टहास किया! जैसे किसी बालक( यहाँ मै इंगित हूँ) ने ठिठोली की हो!
"ये जानते हुए कि मै कौन हूँ?" उसने कहा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब चला जा यहाँ से" उसने कहा,
"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
"जाना पड़ेगा" उसने कहा,
"नहीं, कदापि नहीं" मैंने कहा,
"प्राण गंवाएगा?" उसने कहा,
"देखा जाएगा" मैंने कहा,
"तूने मुझे आँका नहीं?" उसने फिर से डराया मुझे!
"नहीं आंकता तो यहाँ नहीं आता!" मैंने कहा,
उसने फिर से अट्टहास किया!
"जा, अभी भी समय शेष है" उसने समझाया,
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
एक पल को अभेद्य शान्ति!
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
"हठ मत कर" उसने कहा,
"कोई हठ नहीं कर रहा मै" मैंने कहा,
"क्यों मौत को बुलावा देने पर तुला है?" उसने कहा,
"मौत आएगी तो देखा जाएगा" मैंने कहा,
"तू नहीं मानेगा इसका मतलब?" उसने अब अपना त्रिशूल भूमि में मारे हुए कहा,
"आपके अनुसार नहीं" मैंने कहा,
"अंतिम बार चेतावनी देता हूँ मै!" उसने त्रिशूल मेरी ओर करके कहा, उसने त्रिशूल मेरी ओर किया और मेरी अलख की लपटें झूल कर मेरी ओर झुक गयीं! ऐसा प्रताप उसका!
मुझे घबराना चाहिए था, परन्तु मै नहीं घबराया, औघड़ तो मौत और जिंदगी की दुधारी तलवार पर निरंतर चलता है, हाँ मौत का फाल अवश्य ही बड़ा होता है!
"हट जा मेरे रास्ते से!" कहा भेरू ने!
और मेरी तरफ त्रिशूल किया, मेरी अलख की लपटें जैसे भयातुर होकर मुझसे पनाह मांगने लगीं! और दूसरे ही क्षण एक भयानक लापत से उठी वहाँ और मेरी ग्रीवा से टकराई! मुझे लगा जैसे किसी के बलिष्ठ हाथों ने मेरा कंठ जकड़ लिया हो! मैंने मन ही मन एवाम-मानता क जाप किया और मै तभी उस जकड़ से मुक्त हो गया, हाँ, साँसें तेज ह गयीं थीं अवरोध के कारण!
"हा!हा!हा!हा!" उसने भयानक अट्टहास लगाया!
"जा, तुझे छोड़ देता हूँ!" उसने हंस कर कहा,
मैंने अपनी जीव को काबू में किया और कहा, "मै यहीं डटा रहूँगा भेरू!"
उसने फिर से अट्टहास किया!
"जा चला जा लड़के!" उसने कहा,
"नहीं भेरू!" मैंने कहा,
"नहीं मानता?" उसने फिर से धमकाया!
"नहीं!" मैंने कहा,
"ठहर जा फिर!" उसने कहा,
उसने एक चुटकी मारी, चुटकी की आवाज़ ऐसी कि जैसे किसी की हड्डी टूटी हो! मैंने अपना उल्टा पाँव देखा, वो टेढ़ा हो गया था! बस टूटने की क़सर थी! मै पीछे गिर पड़ा, असहनीय दर्द हुआ, छटपटा गया मै!
वहाँ भेरू ने एक चुटकी और मारी होती तो मेरा पाँव जड़ से ही अलग हो जाता, मैंने तभी दारुष-मंत्र क बीज पढ़ा और उस क्षण मेरा पाँव ठीक हो गया! मंत्र से मंत्र टकरा रहे थे! मै खड़ा हो गया, अपने चेहरे पर आये पसीने का स्वाद मेरी जिव्हा ने ले लिया था अब तक!
"अब जाता है कि नहीं लड़के?" भेरू ने कहा, गुस्से में!
"नहीं भेरू" मैंने कहा,
"तो प्राण यहीं छोड़ने पड़ेंगे!" उसने चिल्ला कर कहा,
"मै तैयार हूँ!" मैंने कहा,
तभी झक्क से लोप हुआ वो!
मैंने चारों ओर ढूँढा उसको! वो कहीं नहीं था!
तभी मुझे अट्टहास सुनाई दिया अपनी बायीं तरफ! वो वहाँ एक शिला से सहारा लिए खड़ा था, मतलब एक पाँव उसने शिला पर रखा हुआ था! कैसी विप्लव प्रेत-माया थी!
"तुझे दिखाता हूँ कौन हूँ मै!" उसने कहा और फिर उसने अपने सर्प को कंधे से उतारा और नीचे छोड़ दिया!
सांप नीचे भूमि पर कुंडली मार कर बैठ गया! और तभी! तभी वहाँ न जाने कहाँ कहाँ से अनगिनत सांप आते चले गए, मेरे चारों ओर! ढेर के ढेर! रंग-बिरंगे!
"बस भेरू?" मैंने चिढाया उसे!
"देखता जा!" उसने कहा 
उसने ऐसा कहा और मैंने विमोचिनी माया का जाप किया! सर्प मोम समान हो गए! विमोचिनी यक्षिणी-प्रदत्त महाविद्या है! कोई भी महाप्रेत उसको खंडित नहीं कर सकता!
अब अट्टहास करने की मेरी बारी थी! सो मैंने किया और अपना त्रिशूल भूमि में से निकाला और पुनः मंत्र पढ़ते हुए भूमि में गाड़ दिया! सर्प लोप हो गए! शून्य में बस धूमिल होती उनकी फुफकार रह गयी!
ये देख भेरू ने अपना पाँव हटा लिया शिला से! उसने होंठ हिलाकर मुझे संभवतः अपशब्द निकाले थे!
"क्या हुआ भेरू, भेरू बाबा?" मैंने उपहास सा किया उसका!
मैंने कहा और मुझे किसी आक्रामक भैंसे की जी आवास आई, नथुने फड़काते हुए! मैंने पीछे देखा, वहाँ एक शक्तिशाली भैंसा खड़ा था! मैंने तभी रिक्ताल-मंत्र का जाप किया, और अपने को फूंक लिया उस से! वो भिनसा आगे बढ़ा और पर्चायीं की तरह मेरे ऊपर से गुजर गया!
मै सुरक्षित था!
"क्या हुआ भेरू?" मैंने कहा,
क्रोध में नहाया हुआ भेरू! फटने को तैयार भेरू!
"क्या हुआ?" मैंने फिर से उपहास उड़ाया!
भेरू ने आँखें बंद कीं और फिर! फिर ध्यान लगाया!
कुछ ही क्षण में मेरी आसपास की मिट्टी धसकने लगी, जैसे मेरा ग्रास कर जायेगी और मै ज़मींदोज़ हो जाऊँगा! मैंने अपना त्रिशूल पकड़ लिया और अलख को देखते हुए, द्वित्ठार-माया का प्रयोग कर दिया! भूमि यथावत हो गयी!
और भेरू!
भेरू को जैसे काटो तो खून नहीं!
भुनभुना गया था भेरू!
"लड़के??" भेरू गरज के बोला
मैंने उसको देखा!
"क्या समझता है तू?" उसने कहा,
"कुछ भी नहीं!" मैंने कहा,
"चला जा! अभी भी समय है" उसने हाथ के इशारे से कहा,
"मै नहीं जाने वाला भेरू बाबा!" मैंने कहा,
"अपान-वायु से तेरे प्राण खींच लूँगा मै!" उसने कहा,
"वो भी कर के देख लो भेरू!" मैंने कहा,
भेरू गुस्से में उबल रहा था! उसके अन्दर क्रोध का लौह धधक धधक कर बुलबुले छोड़ रहा था!
उसने झुक कर मिट्टी उठायी, मै समझ गया कि फिर से भेरू कोई प्रपंच लड़ाने वाला है!
भेरू ने उस मिट्टी को अभिमंत्रित किया और मेरी ओर उछाल दिया! ये देह-घातिनी शक्ति थी! मैंने फ़ौरन ही दिक्पात शक्ति का संधान कर उसको भी एक प्रकार से निरस्त कर दिया!
अब तो भेरू की सब्र-सीमा लंघ गयी! वो कभी वहाँ प्रकट होता, लोप होता और फिर कहीं दूसरे स्थान पर प्रकट हो लोप होता! मुझे उसके लिए पूर्णाक्ष घूमना पड़ता!
"क्या हुआ भेरू?" अब मैंने कहा,
भेरू चुप्प!
"क्या हुआ? बस? बल सीमा समाप्त?" मैंने पूछा,
उसने फिर से ज़मीन धसकाने वाला प्रयोग किया! मुझे बार बार उछलना पड़ता! तो मैंने अपने त्रिशूल को उखाड़ कर फिर से स्तम्भन-मंत्र पढ़ कर गाड़ दिया, धसकना समाप्त हुआ!
इस सोते हुए संसार में दो औघड़ एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे! एक देहधारी था और एक मात्र छाया!
"अकेले पड़ गए भेरू तुम!" मैंने कहकहा लगाया!
उसने चिल्ला के मुझे चुप रहने को कहा!
"भेरू! जाओ, जाकर बुलाओ अपने नौमना बाबा को!" मैंने चुनौती दी उसको!
नौमना बाबा का नाम सुनकर भड़क गया वो! अनाप-शनाप बोलने लगा, जिग्साल-साधना के अंश पढने लगा! फिर आकाश में उड़ते हुए लोप हो गया! मैंने उसको लोप होते हुए देखा और फिर कुछ पल की असीम शान्ति! वो चला गया था शायद! मै अपने आसन पर जैसे ही बैठने लगा तभी मैंने अपने समक्ष दो सुंदरियों को देखा! हाथ में लोटे लिए हुए, लोटों में दूध भरा था, सच कहता हूँ, कोई अतिश्योक्ति नहीं, वे अद्वितीय सुंदरियां थीं! सुडौल देह, उन्नत वक्ष-स्थल, संकीर्ण कमर, दीर्घ नितम्ब-क्षेत्र! केश कमर तक झूलते हुए, चमकदार, आभूषण धारण किये हुए! कामातुर आवेश! त्वचा ऐसी, कि हाथ लगाओ मैली!
अब मै खड़ा हो गया!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
"हम रम्भूक कन्याएं हैं ओ साधक!" उन्होंने एक साथ कहा!
रम्भूक कन्याएं! मेरा अहोभाग्य! स्वयं महासिद्धि मेरे समक्ष खड़ी थीं! तोरम-रुपी कन्याएं! 
"क्या चाहती हो?" मैंने पूछा,
"आप दुग्धपान करें!" वे बोलीं, खनकती आवाज़ उनकी!
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"सिद्देश्वर-चरण पूर्ण करने हेतु!" वे बोलीं,
ओह! कितना असीम लालच! मेरे मस्तिष्क में तार झनझना गए! भाड़ में जाएँ हरि साहब! इनको स्वीकार करो और जय जयकार!
नहीं! कदापि नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! दंड का भागी हो जाऊँगा मै, मुख नहीं दिखा सकता अपने गुरु को! श्रापग्रस्त हो किसी बरगद के वृक्ष पर ब्रह्मराक्षस का दास हो जाऊँगा! नहीं ऐसा संभव नहीं! 
क्या प्रपंच लड़ाया था भेरू बाबा ने!
दिव्या रम्भूक कन्याएं! मेरे समक्ष!
"नहीं!" मैंने कहा,
"लीजिये!" वे बोलीं, मेरी तरफ लोटा करते हुए! पात्र में केसर के रंग से मिला दूध था! मै उसको दिव्य दूध ही कहूँगा!
"लीजिये?" वे बोलीं!
"नहीं!" मैंने कहा,
मैंने आकाश में देखा! चाँद-तारे सभी देख रहे थे इस खेल को! और मै ढूंढ रहा था उस भेरू बाबा को!
वो वहाँ कहीं नहीं था!
"वाह भेरू वाह!" मैंने हंस कर कहा,
"लीजिये?" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"पछतायेंगे!" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"ले लीजिये" वे फिर से बोलीं,
"नहीं" मैंने कहा,
"ले लीजिये, हठ कैसा?" वे बोलीं,
"नहीं" मैंने फिर से मना किया,
अब वे पीछे हटीं,
दुग्ध-पात्र अपनी कमर में लगाए, पीछे मुड़ीं और लोप हो गयीं!
ओह! कितना सुकून! जैसे सुलगता, दहकता शरीर झम्म से गोता लगा गया हो हिम-जल में! ऐसा परमानन्द का एहसास! जैसे अवरुद्ध नथुने एक झटके से खुल गए हों! ओह! वर्णन नहीं कर सकता मै और अधिक!
फिर से कुछ समय बीता, जैसे युद्ध-विश्राम का समय हो गया हो!
और तभी जैसे ध्वनि-रहित दामिनी कड़की और मै उसके तमरूपी प्रकाश से सराबोर हो गया!
एक अनुपम, दिव्यसुन्दरी प्रकट हुई! मेरे माथे पर शिकन उभरीं अब! ये कैसी माया? अब कौन! हलक में थूक अटक के रह गया, यही होती है अवाक रह जाने की स्थिति!
वो अनुपम सुन्दरी मेरे समक्ष आई, सहस्त्र आभूषणों से सुशोभित उसकी गौर देह! उसकी आभूषणों से न ढकी त्वचा चकाचौंध कर रही थी! बलिष्ठ कद-काठी, उन्नत देह! लाल रंग का चमकीला दिव्य-वस्त्र!
वो मुस्कुराई! स्पष्ट रूप से कहता हूँ, एक पल को मै द्वन्द भूल गया और काम हिलोरें मारने लगा मुझ में! मस्तिष्क की दीवारें फटने को तैयार हो गयीं! जननेद्रिय में जैसे स्पंदन सा होने लगा! ये क्या था? कोई माया? कोई तीक्ष्ण माया? या इस सुन्दरी का दिव्य प्रभाव?
वो मुस्कुराते हुए और लरजती हुई चाल से मेरे समीप आई, केवड़े की खुशबु नथुनों में वास कर गयी! आँखें बंद होने लगीं, होश खोने को आमादा से हो गए!
"साधक!" उसने बेहद कामुकता से भरे स्वर में पुकारा!
मुझ पर मद सवार होने लगा, काम-ज्वर और तीव्र होने लगा! अब बस छटपटाने की नौबत शेष थी!
मैंने धीरे से आँखें खोलने की कोशिश की, आँखें खोल लीं! वे मेरे इतना समीप थी की उसके वक्ष के ऊपरी सिरे मुझे मेरे सीने में छू रहे थे! ये छुअन बेहद अजीब और वर्णन-रहित है, आज भी! 
'साधक?" उसने पुकारा,
"हाँ" मैंने धीमे से कहा,
"जानते हो मै कौन हूँ?" उसने पूछा, उसकी साँसें मेरी ग्रीवा पर काम के गहरे चिन्ह छोड़े जा रही थीं!
"मै मृणाली हूँ!" उसने कहा,
मृणाली! ओह! ये मै कहाँ फंस गया!
मृणाली, दिव्य-स्वरुप में एक काम-कन्या है! एक दिव्य काम-सखी! इस से साधक यदि काम-क्रीडा करे तो यौवनामृत की प्राप्ति होती है! देह पुष्ट, बलशाली और निरोग हो जाती है, आयुवर्द्धक होता है इसका मात्र एक ही स्पर्श!
उसने तभी मेरे माथे को अपनी जिव्हा से छुआ! मै नीचे झूल गया पीछे की तरफ और तभी उसने मुझे संभाल लिया, मेरे नेत्र बंद हो गए!
"उठो?" उसने कहा,
मै शांत!
"साधक?" उसने पुकारा,
मै शांत!
"उठो?" उसने कहा,
मै अब संयत हुआ और खड़ा हुआ, त्रिशूल का सहारा लिया!
"क्या चाहती हो?" मैंने उन्मत्त से स्वर में पूछा,
"यही तो मै आपसे पूछ रही हूँ" उसने मुस्कुराते हुए कहा,
"चले जाओ मृणाली" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
"जाओ" मैंने कहा,
वो पीछे हटी और अपने हाथों से मेरे केश पकड़ लिए और सीधे मुझे अपनी ओर खींच लिया, मुझे चक्कर सा आ गया!
"छोडो?" मैंने कहा,
अब वो हंसी!
'छोडो?" मै चिल्लाया!
"नहीं" उसने कहा,
"मृणाली? छोडो?" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
अब उसने मुझे और करीब खींचा! मै झुंझला सा गया, छूटने की कोशिश की लेकिन लगा किसी गज-शक्ति ने मुझे थाम रखा हो!
मैंने तभी उर्वार-मंत्र पढ़ा! उसने फ़ौरन ही छोड़ा मुझे और हंसने लगी!
"कच्चे हो अभी!" उसने कहा,
"अब जाओ यहाँ से" मैंने कहा,
"नहीं!" उसने कहा,
वो अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर थी! अडिग!
"मृणाली?" मैंने कहा,
"हाँ?" उसने उत्तर दिया?"
"अब जाओ यहाँ से" मैंने कहा,
"नहीं" उसने फिर से व्यंग्य से कहा,
"मुझे विवश न करो कि मै तुमको यहाँ से नदारद करूँ" मैंने कहा,
"आप कर ही नहीं सकते, मै अन्तःमर्म जानती हूँ" उसने कहा,
"नहीं जानती तुम" मैंने कह दिया,
"मै जानती हूँ" उसने कहा,
"कुछ नहीं जानती, नहीं जानती मै यहाँ किसलिए आया हूँ, तुम केवल उस भेरू बाबा को और अपने लक्ष्य को ही जानती हो मृणाली!" मैंने कहा,
"मै जानती हूँ" उसने कामुक मुद्रा बना कर ऐसा कहा,
अब मै विवश था! मैंने त्रिशूल लिया और उसको ओर कर दिया! वो हटने की बजाय ठहाके मारने लगी!
"अरे ओ साधक!" उसने कहा,
मै चुप हो गया,
"तेरे जैसे न जाने कितने आये और कितने गए! मृणाली यहीं है आज तक!" उसने कहा,
हम्म! काम-दंभ! वाह! क्या उदाहरण दिया था!
"मेरा जैसा न कोई आया और अब न कोई आएगा!" मैंने भी प्रतिवार किया!
उसने तभी अपना अंशुक उठाया और अपना योनि-प्रदेश दिखाया, मैंने देखकर मुंह फेर लिया, जैसे तिरस्कृत कर दिया हो!
ये उस से बर्दाश्त नहीं हुआ! वो लपक के मेरे ऊपर झपटी! मेरे ऊपर आ कर चिपक गयी! उसने मेरी कमर में अपनी दोनों टांगों से मुझे जकड़ लिया, बाजुओं से मेरे केश खींचे लगी पीछे की तरह और मेरे मुख और माथे को चाटने लगी! केवड़े की सुगंध से मै भी जैसे सकते में आ गया था!
उसने काम-क्रीडा की मुद्रा में क्रीडा आरम्भ की, योनि-स्राव से मै कमर के नीचे भीगने लगा! मेरे पाँव उस स्राव में भीग गए, मिट्टी गीली हो गयी और मै नीचे गिर गया फिसल कर!
वो मेरे ऊपर क्रीडा में मग्न थी, मुझे चाटती जाती थी, मेरी जिव्हा उसकी जिव्हा से टकराती तो मेरा दम घुटने लग जाता! मै परोक्ष रूप से कुछ नहीं कर पा रहा था, अतः मैंने मनोश्चः त्रिपुर-मलयमंजिनी का जाप कर दिया! जाप के तीसरे बीज स्वरुप में मृणाली को उठा के फेंका किसी ने मेरे ऊपर से और वो गिरते ही हुई लोप!
प्राण छूटे!
अब मै खड़ा हुआ! संयत हुआ!
तभी प्रकट हुआ वहाँ भेरू बाबा!
"आ गया भेरू!" मैंने उपहास सा उड़ाया उसका!
भेरू जैसे फफक रहा था!
"चला जा! जो चाहता है वो संभव नहीं!" भेरू ने कहा,
"नहीं जाऊँगा भेरू!" मैंने कहा,
"क्या चाहिए तुझे, इसके अलावा?" उसने पूछा,
"कुछ नहीं, और कुछ नहीं!" मैंने कहा,
"सुन?" उसने झिड़का मुझे!
"सुनाओ भेरू बाबा!" मैंने कहा,
"प्राण की बाजी हार जाएगा, इसीलिए जो चाहिए मांग ले" उसने कहा,
"नहीं, सबकुछ है मेरे पास!" मैंने कहा,
और तभी भेरू लोप हुआ!
चाल चल गया अपनी!
यही लगा मुझे उस समय!
और तभी वहाँ एक और रूपसी प्रकट हुई!
मुझसे भी लम्बी! सहस्त्र-श्रृंगार धारण किये हुए! सुन्दर अत्यंत सुंदर! उसका बदन बेहद सुंदर! अप्रतिम! जैसे साक्षात यक्षिणी! हाथों में दो घड़े लिए हुए! कच्ची मिट्टी के घड़े!
मेरे चेहरे पर आया हुआ विस्मय और घोर चिंता में परिवर्तित होने लगा!
"ओ साधक!" उसने धीमे स्वर में कहा,
मैंने उसको देखा!
तभी उसे अपने हाथों में रखे घड़े नीचे ज़मीन पर दे मारे! अकूत धन-सम्पदा बिखर गयी! स्वर्ण! स्वर्ण से निर्मित जेवर! और सफेद, काले, नीले रंग के बड़े बड़े हीरे, माणिक्य और पन्ने जैसे अनमोल रत्न!
"ले, उठा ले जितना उठाना हो!" वो बोली,
मैंने रत्न देखे! स्वर्ण देखा! अकूत दौलत! आज के भौतिक-युग का सर्वश्रेष्ठ ईंधन! काया माता-पिता, क्या भाई-बहन, क्या अन्य रिश्ता! कुछ नहीं इसके सामने! मनुष्य जिसके लिए कमरतोड़ मेहनत करता है, लाख जतन करता है समेटने को, वो यहाँ मिट्टी में पड़े थे मेरे सामने! 
"बोल साधक?" वो बोली,
"नहीं" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"सब माया है" मैंने धीरे से कहा,
"कैसी माया?" उसने कहा,
"तू भी मायावी रूपसी है!" मैंने कहा,
वो खिलखिलाकर हंसी!
वो हंसती रही! उसने और धन प्रकट किया वहाँ! इतना तो मैंने कभी न सुना और न देखा!
"ये सब ले जा!" वो बोली,
"नहीं!" मैंने कहा,
"मूर्ख तो नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अपने हाथ से कुछ स्वर्ण उठाया और मुझ पर फेंका!
"ले! लेजा!" उसने फिर से कहा,
"नहीं चाहिए मुझे!" मैंने कहा,
"धनसुली का धन माया नहीं होता साधक!" उसने कहा,
"मानता हूँ" मैंने कहा,
"ले जा फिर! सारा! जितना चाहिए वो भी लेजा!" उसने कहा,
धनसुली! धन-यक्षिणी की सहोदरी!
"मुझे नहीं चाहिए" मैंने फिर से मना कर दिया!
अब वो क्रोध में आई!
"और क्या चाहिए तुझे?" उसने गुस्से से पूछा,
"आप जाइये और भ्रू को लाइए सामने" मैंने कहा,
झम्म!
वो झम्म से लोप, साथ ही सारा धन भी लोप! टूटे घड़े भी लोप, रह गये तो बस उनके चिन्ह! मिट्टी में अंकित चिन्ह!
"भेरू?" मैंने चिल्लाया!
कोई नहीं आया!
"कुछ और भी बाकी है तो ले आ!" मैंने डंका बजाते हुए कहा!
भेरू प्रकट हुआ! हाथों में हाथ बांधे!
भेरू जैसे भीरु बन गया था!
"क्या बात है भेरू?" मैंने पूछा,
भेरू चुप!
अब मैंने अट्टहास लगा!
"पंचमहाभूत! हाँ! पंचमहाभूत! ये जस की तस रहती है भेरू!" मैंने कहा,
अब भेरू को चढ़ा ताप!
"सुन लड़के!" उसने कहा,
"सुनाओ?" मैंने कहा,
"तूने अपने काल को स्वयं आम्नात्री किया है, मै तुझे जीवित नहीं छोड़ने वाला!" उसने कहा,
"तो करके देख ले ये भी!" मैंने कहा,
उसने गुस्से में मेरी ओर अपना त्रिशूल दे मार फेंक कर! मुझ तक आने से पहले ही ताम-मंत्र ने त्रिशूल को भूमि पर ही गिरा दिया!
अब मै हंसा!
भेरू क्रोधित!
वो भयानक रूप से चिल्लाया! हड़कम्प सा मच गया उस स्थान पर! मेरी अलख जैसे अनाथ होने के भय से कांपने लगी!
भेरू स्वयं आगे बढ़ा!
ये मुझे पता था!
"ठहर जा!" मैंने कहा,
वो नहीं माना!
मैंने तभी यम्त्रास-मंत्रिका का जाप किया! मुझ तक आते आते कलाबाजी सी खायी भेरू ने और नीचे गिर गया! फ़ौरन उठ भी गया! अचंभित! हैरत में!
मेरी हंसी छूट गयी!
"भेरू!" मैंने कहा और अब मै उसकी तरफ बढ़ा!
भेरू पीछे हटा!
"भेरू! मै तुझे नहीं क़ैद करूँगा! घबरा नहीं!" मैंने कहा,
वो पीछे हटा फिर भी! डरा हुआ सा!
"भेरू! बहुत समय बीत गया भटकते भटकते! अब समय पूर्ण हुआ!" मैंने कहा,
"नहीं!" वो बोला,
"मान जा!" मैंने समझाया उसे!
"नहीं!" वो घबराया!
"ठीक है!" मैंने कहा और मै पीछे अपनी अलख तक गया!
"भेरू!" मैंने पुकारा,
"बोल?" वो चिल्ला के बोला,
"जा!" मैंने कहा,
"कहाँ?" वो निहत्था सा खड़ा हुआ मुझसे पूछ रहा था!
"तेरे पालनहार बाबा नौमना के पास!" मैंने कहा,
ये सुनते ही बिफर गया वो!
"क्यों?" उसने पूछा,
"जा बुला उसको अब!" मैंने कहा,
"नहीं!" वो चिल्लाया!
"भेरू! क्या नही किया तूने उसके लिए! तुझे बचाने नहीं आएगा वो?" मैंने उपहास किया!
वो चुप्प!
"जा!" मैंने कहा,
और तभी वो झप्प से लोप हुआ!
और अब! अब मुझे स्वागत करना था बाबा नौमना का!
मै तैयार था!
UL: 0 DL: 196608 Ratio:
भेरू बाबा चला गया था! मै नहीं कहूँगा कि मुंह की खाकर! ये ऐसा कोई अस्तित्व का द्वन्द नहीं था, ये तो शक्ति-सामर्थ्य का द्वन्द था, दादा श्री की असीम कृपा से मै अभी तक अपने उचित मार्ग पर प्रशस्त था! लोभ-लालच आदि को पछाड़ दिया था मैंने! मैंने अपनी गुरु को नमन किया, उनके आशीर्वाद से मै अभी तक डटा हुआ था!
वहाँ भयानक सन्नाटा छाया हुआ था! अलख की रौशनी चटक-चटक कर उठ रही थी! मै औघड़-मद में डूबा था, मदिरापान करता हुआ आगे देखे जा रहा था! दीन-दुनिया से कटा हुआ भिड़ा हुआ था वहाँ के 'शासक औघड़' की प्रतीक्षा में! चन्द्रमा सर पर टंगे हुए थे! उन्हें सब मालूम था, हाँ सब मालूम! मै रह रह कर उस एकांकी रात्रि भ्रमणकारी को देखता! जो न जाने कितनी सदियों से अनवरत हराता आया है ऐसे समय समय के तमसपूर्ण नाभिय-औघड़ों को! चन्द्रमा को देखता और आंसू निकालता जाता! सलाम बजाता जाता! गर्दन थक जाती तो झटका खाके नीचे हो जाती! मै फिर से गर्दन उठा लेता!
तभी!
तभी जैसे कोई भारी-भरकम आकाशीय पिंड गिरा भूमि पर, दूर अँधेरे में! अनपढ़ और गंवार कीड़े मकौड़े जो बेसुरा तान छेड़े हुए थे, सब शांत हो गए!
मै खड़ा हुआ!
त्रिशूल सीधे हाथ में थामा!
सामने देखा!
वहाँ था! कोई न कोई अवश्य ही था! पर स्पष्ट नहीं था! मेरी अलख की रौशनी की हद में नहीं था! और तभी भूमि पर जैसे थाप सी हुई, कोई बढ़ा मेरी तरफ! और जो मैंने देखा, वो आजतक नहीं देखा!
उसको इंसान कहूँ, या बिजार! सांड या भैंसा! महाप्रेत कहूँ या फिर कोई राक्षस! यक्ष कहूँ कि कोई आततायी गान्धर्व! दैत्य या कोई दानव? क्या कहूँ????
भयानक शरीर उसका! केश रुक्ष और जटाओं में परिवर्तित! कुछ सर पर बंधे हुए और कुछ घुटनों तक आये हुए, हाथों में अस्थियों के भुजबंध और चांदी के भारी भारी कड़े! पांव में घुटनों तक चांदी के कड़े! छाती पर भयानक बाल! अस्थिमाल धारण किये हुए! स्फटिक की मालाएं, महारुद्र की घंटियाँ! मानव अस्थियों से बना दंड! भुजाओं में बंधे अस्थिमाल! कोहनी से नीचे भास्मिकृत अस्थियाँ! बंधी हुईं, लटकी हुईं मनकों की तरह! तीन फाल वाला बड़ा सा त्रिशूल, उस पर चार-पांच इंसानी मुंडों से बने डमरू बंधे थे!
और अब शरीर!
लम्बाई करीब आठ या साढ़े आठ फीट कम से कम! दानव! मेरी एक जांघ और उसकी कलाइयां, बराबर! मेरी छाती और उसका एक पाँव! लात मार दे तो सीधा उसी से मिलन. जिसने भेजा यहाँ पृथ्वी पर! चेहरा इतना चौड़ा कि अश्व भी शर्मा के भाग जाए! जबड़ा इतना बड़ा कि एक-दो मुगे तो बिना हड्डी निकाले ही चबा जाए! भयानक इतना कि कोई देख ले तो विस्मृति का रोग तत्क्षण मार जाए!
सच में ही नौमना! नाम साक्षात्कार कर दिया था उसने! किसी जिन्न से संकर प्राणी था वो, लगता है!
"कौन है तू?" उनसे सिंह की जैसी दहाड़ में पूछा,
ऐसी दहाड़ कि एक बार को मै भी सिहर गया!
"कौन है तू?" उसने कहा,
मैंने गर्दन उठा के उसको देखा, वो अकेला ही था!
मैंने अपना परिचय दे दिया!
"बस! बहुत हुआ, अब यहाँ से जा!" वो दहाड़ा!
"मै नहीं जाऊँगा!
"जाना होगा!" वो भर्रा के बोला,
"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
"तेरी इतनी हिम्मत?" वो चिल्ला के बोला,
मैंने कुछ नहीं कहा,
और तभी मैंने उसके पीछे एक एक किरदार को देखा! खेचर! भाभरा, किरली, भामा, शामा और शाकुण्ड!
"जा अब यहाँ से?" उसने धमकाया!
"क्यों?" मैंने कहा,
वो भयानक अट्टहास लगाते हुए हंसा!
"ये मेरा स्थान है" उसने कहा,
"स्थान था, अब नहीं!" मैंने कहा,
वो चुप हुआ!
"प्राणों से मोह नहीं?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो फिर से हंसा!
वो हंसता था तो उसका बड़ा सा घड़ेनुमा पेट नृत्य सा करता था!
"जा, बहुत हुआ" उसने पलटते हुए कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो फिर पलटा!
और अब उसने थूका मुझ पर! थूक मुझ तक आया! मेरी अलख काँप गयी, मेरी गोद में बैठने के लिए 'लालायित' हो गयी! वो सरंक्षण चाहती थी!
मैंने भी थूका उधर!
ये देख वो अब बौराया! गुस्से में चिल्लाया! उसकी चिल्लाहट से सभी किरदार लोप हो गए! रह गया केवल मै!
केवल मै!
अकेला!
यमदूत! साक्षात यमदूत! मृत्यु का परकाला! सच में ही था वो नौमना! मैंने ऐसा विशाल देहधारी नहीं देखा था कभी!
हाँ, मै अकेला था वहाँ! नितांत अकेला! जैसे कोई बिल्ली जंगली श्वानों के बीच फंस जाए, पेड़ पर चढ़ जाए और अब न नीचे उतरे बन और न ऊपर ही चढ़े!
"सुन ओ लड़के!" उसने अपनी साँस को विराम देते हुए कहा,
"कहो बाबा नौमना" मैंने कहा,
"चला जा यहाँ से" वो बोला,
"मै नहीं जाऊँगा!" मैंने भी स्पष्ट मंशा ज़ाहिर कर दी,
वो फिर से बिसबिसा के हंसा!
"ठीक है, मरना चाहता है तो यही सही" उसने कहा,
अब वो आगे बढ़ा, मै थोडा सा घबराया!
उसने अपने दोनों हाथ आगे किये और एक मंत्र पढ़ते हुए मेरी ओर करके हाथ खोल दिए! मै उसी काशन अपने स्थान से करीब २ फीट उड़ा और धम्म से पीछे गई गया! कमर में चोट लगी, पीठ के बल गिरने से पत्थर पीठ में चुभ गए, हाँ खून आदि नहीं निकला, ऐसा ताप उस! मै हैरान था, मेरे रक्षा-मंत्र को भेद डाला था बाबा नौमना ने! कमाल था, हैरतअंगेज़ और अविश्वश्नीय! खैर मै फिर से खड़ा हुस और अपनी कंपकंपाती अलख के पास आया!
"अब जा लड़के!" उसने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
अब मै ज्वैपाल-विद्या का जाप किया, उसे जागृत किया, विद्या जागृत हुई और मेरी रक्षा हेतु मुस्तैद हो गयी! नही करता तो बार बार ऐसा करते वो मेरी कमर ही तोड़ देता!
"नही समझा?'' उसने कहा,
मै कुछ नहीं बोला,
उसने फिर से वही मुद्रा अपनायी! दोनों हाथ आगे किये, मंत्र बुदबुदाये और मेरी और करके हाथ खोल दिए! मुझे झटका तो लगा लेकिन मै संभल गया! विद्या ने सम्भाल लिया, हाँ मेरी अलख की लौ मेरी गोद में शरण अवश्य लेने को आतुर हो गयी!
ये देख बाबा नौमना थोडा सा अचंभित हुआ! और फिर उसने अटटहास लगाया!
"ज्वैपाल!" उसने जैसे मजाक सा उड़ाया मेरा! 
मै चुप!
कहने के लिए कुछ था ही नहीं मेरे पास!
"जा, छोड़ दिया तुझे!" उसने धिक्कार के कहा मुझे!
मै चुप!
"जा! अब नहीं आना यहाँ कभी, दो टुकड़े कर दूंगा तेरे!" उसने कहा,
"नहीं जाऊँगा मै!" मैंने कहा,
"ज़िद न कर!" उसने ऐसा कहा जैसे मुझे समझाया हो!
"कोई ज़िद नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"मान जा! वापिस चला जा!" उसने फिर से कहा,
"असम्भव है बाबा!" मैंने कहा,
कयों?" उसने पूछा,
"मै सत्य के मार्ग पर हूँ, मुझे कैसा डर?" केह ही दिया मैंने,
वो अब फट कर हंसा! खौफनाक हंसी उसकी!
"सत्य!" उसने हँसते हँसते कहा,
"हाँ बाबा सत्य" मैंने भी मोदन किया!
"दिखाता हूँ!" उसने कहा,
अब उसने अपना त्रिशूल उठाया और भूमि पर एक वृत्त बना दिया! और फिर उसमे थूक दिया!
तभी उसकी क्रिया स्पष्ट हुई!
चौरासी डंक-शाकिनियां प्रकट हुईं! अपने शत्रु का भंजन करने हेतु!
अर्राया बाबा नौमना! बढ़ चलीं वे सभी मेरी तरफ!
मैंने तभी रिपुभान-चक्र का जाप किया और मै उसके सुरक्षा आवरण में खच गया! अब वे मेरा कुछ नहीं कर सकती थीं! जैसे एक गोश्त के टुकड़े पर सैंकड़ों चींटियाँ आ लिपटती हैं, वैसे ही वे सभी डंक-शाकिनियां मुझसे आ लिपटीं! रिपुभान-चक्र से जैसे उनके दांत भोथरे हो गए! वो एक एक करके लोप होती गयीं!
"वाह!" बोला बाबा नौमना!
ये व्यंग्य था या सराहना?
"वाह!" उसने कहा,
अब आप मेरी मनोस्थिति समझिये! मै नहीं जान पा रहा था कि ये प्रशंसा है या कोई व्यंग्य बाण!
"कौन है इस तेरा खेवक?" उसने पूछा,
खेवक! एक प्राचीन तांत्रिक-शब्द! अब प्रचलन में नहीं है!
मैंने अपने दादा श्री का नाम बता दिया उसका!
"बढ़िया खे गया तुझे! उसने कहा,
अब मुझे धन्यवाद कहना ही पड़ा! 
"अब मेरी बात मानेगा?" उसने कहा,
"जाने को मत कहना" मैंने कहा,
वो फिर से हंसा!
"नहीं कह रहा!" उसने कहा,
"बोलिये" मैंने कहा,
"तेरे पास अभी वर्ष शेष हैं, सदुपयोग कर उनका!" वो बोला,
"वही कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"तू नहीं कर रहा!" उसने कहा,
"मै कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"तू नहीं कर रहा" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"मेरा कहना नहीं मान रहा तू!" उसने कहा,
वाद-प्रतिवाद में निपुण था बाबा नौमना!
"मैं कैसे मान लूँ? जाऊँगा नहीं मैं" मैंने कहा!
"पछतायेगा!" वो बोला,
"मेरा भाग!" मैंने कहा,
"मै अब खेल नहीं खेलूंगा लड़के!" उसने कहा,
"मुझे पता है!" मैंने कहा,
अब कुछ अल्पविराम!
वो आगे बढ़ा!
मैं वहीँ अलख पर डटा था, ईंधन डालकर और भड़का लिया था मैंने उसको! 
विकराल बाबा नौमना भयानक लग रहा था! मेरी इहलीला का कभी भी भक्षण कर सकता था वो!
"अब देख लड़के!" वो चिल्ला के बोला,
मैं तो तैयार था!
उसने त्रिशूल आगे किया और उसपर से डमरू उतारा एक! उसने एक ख़ास मुद्रा में डमरू बजाया!
और ये क्या???
भूमि में से जगह जगह सर्प निकलने लगे! विषैले भुजंग! ये माया नहीं थी! सर्प कुंडली मार कर बैठ गए थे, मुझे घेर के!
मैंने तब सर्प-मोहिनी विद्या जागृत की, महामोचिनी विद्या का जाप भी किया लेकिन सर्प लोप नहीं हुए! अब प्राण संकट में थे! ये तो वज्रपात सा था!
नौमना बाबा ने फिर से डमरू बजाया, और डमरू बजाते हुए जिसे वे सर्प उसके हाथ की कठपुतलियां हों, ऐसे व्यवहार करते हुए आने लगे मेरी तरफ! उनकी फुफकार ऐसी कि जैसे कोई रस्सी खींची जा रही हो कुँए से, जिसके सहारे कोई बड़ी सी बाल्टी लटकी हो!
महामोचिनी विद्या प्रभावहीन हो गयी थी! अब मैंने गुरु-आज्ञा ली और सर्पकुंडा नामक कन्या का आह्वान किया! सर्पकुंडा प्रकट हुई, मैंने नमन किया और वे सर्प भाग के पीछे हटे! जैसे कोई दिव्य-नौल(नेवला) देख लिया हो!
सर्पकुंड आने नृत्य की भावभंगिमा में अपने दोनों पाँव थिरकाए और वे सर्प जहां से आये थे वहीँ घुस गए! मैंने मस्तक झुकाया सर्पकुंडा के समख और वो भन्न से लोप हुई!
ये देख सूजन सी आ गयी चेहरे पर नौमना बाबा के! उसका वो प्रपंच भेद डाला था मैंने!
वो बेहद गुस्सा हुआ! अपने गले की मालाएं तोड़ के फेंक दीं!
"नौमना बाबा!" मैंने हंसा अब!
हालांकि मेरी ये हंसी मेरी जीत की तो क़तई नहीं थी, बस पारिस्थितिक हंसी थी! हाँ बस यही!
"सुन लड़के?" उसने कहा,
"जी?" अब मैंने सम्मान सूचक शब्द कहा!
"क्या चाहिए तुझे?" उसने पूछा,
"आप जानते हैं" मैंने कहा,
"हम्म!" उसने कहा,
और फिर से डमरू उठा लिया, मैं आसान से खड़ा हो गया, कोई नयी विपदा आने वाली थी, निश्चित ही!
तभी आकाश से कुछ महाभीषण प्रेत प्रकट हुए, गले में त्रिकोण धारण किये हुए! मैं जान गया, ये वज्राल महाप्रेत हैं! किसी भी शक्ति से टकराने वाली वज्राल महाप्रेत, कुल सोलह!
"अब नहीं बचेगा तू लड़के!" खिलखिला के हंसते हुए कहा नौमना बाबा ने!
सोलह आने सच थी उसकी बात!
मेरे पास वज्राल से बचने का कोई सटीक उपाय नहीं था! हाँ, कोई घाड़ पास में होता आसान के स्थान पर होता तो मैं निपट लेता!
तभी एक युक्ति काम आयी! मैंने फ़ौरन अपने चाक़ू से अपना जिव्हा-भेदन किया और रक्त की कुछ बूँदें लीं, बूँदें अलख में डालीं, अलख भड़की, मेरे मंत्र ज़ारी थे! और वहाँ वज्राल बढ़ चले थे मेरी ओर!
तभी मैंने आमुंडनी का आह्वान किया! वज्राल थम गए वहीँ के वहीँ! और थम गया आंकेहन चौड़ी कर बाबा नौमना!
भड़भड़ाती हुई आमुंडनी प्रकट हुई! मेरी रुकी हुई साँसें फिर चलने लगीं!
मैंने नमन किया उसको! उसने प्रयोजन भांपा और वो चल पड़ी वज्राल महा प्रेत के समूह की ओर! वे भाग खड़े हुए! जहां थे वहीँ से ऊपर उड़ चले! मैंने एक एक को देखा! सभी के सभी नदारद हो गए! मेरे सम्मुख आयी आमुंडनी तो मैंने मस्तक झुका दिया, वो भन्न से लोप हो गयी! अब मैंने बाबा नौमना को देखा! वो धम्म से नीचे बैठ गया!
"बस बाबा?" मैंने कहा,
वो कुछ नहीं बोला!
"बाबा?" मैंने फिर से पुकारा! 
अबकी बाबा ने एक माला मेरी ओर फेंक दी गले से उतार के!
मैं उठा और जाकर वो माला उठायी, ये माला इंसान के हाथ के पोरों की हड्डिओं की बनी थीं, उसमे बीच में मानव केश गुंथे हुए थे, डोर भी मानव-आंत से बनी थी!
"ये किसलिए बाबा?" मैंने पूछा,
"ये मेरा गुरु-माल है" उसने कहा,
हाथ काँप गए मेरे! जड़ हो गया शरीर! परखच्चे से उड़ने को तैयार मैं!
"किसलिए बाबा?" मैंने घुटनों पर बैठते हुए बोला,
"समय पूर्ण हुआ" उसने कहा,
"कैसा समय बाबा?" मैंने विस्मय से पूछा,
"तू जानता है" वो बोला,
"नहीं बाबा, मैं नहीं जानता" मैंने गर्दन हिलायी और माला अपनी छाती से लगायी!
"धारण कर ले इसे!" उसने कहा,
ओह! नौमना बाबा के गुरु की माला! मेरा अहोभाग्य! मैंने कांपते हाथों से माला धारण कर ली!
"बाबा डोम! वे हैं मेरे गुरु!" वो बोला,
कुछ आहट हुई!
मैंने आसपास देखा!
सभी मौजूद थे वहाँ!
सभी!
कुछ देखे और कुछ अनदेखे!
वे सभी वहीँ खड़े थे, समूह में! शांत! जैसे बरसों से किसी की राह ताक़ रहे हों! जैसे कोई लेने आएगा उन्हें! जैसे भटकाव समाप्त!
शाकुण्ड सबसे पहले आये मेरे पास!
"उठ बेटा!" वे बोले,
मै मंत्र-मोहित सा उठ गया!
बरसों बीत गए हम प्रतीक्षा में!" वे बोले,
"प्रतीक्षा?" मैंने मन ही मन सोचा!
"हाँ, बरसों गुजर गए!" भाभर ने कहा,
मैंने भाभर को देखा!
संकुचाते हुए खड़ी थी वो!
"मै इसीलिए लिवा कर आया था तुम्हे!" खेचर ने कहा,
अब मै समझा!
भामा और शामा आगे आयीं अब! अपनी कटारें गिरा दीं ज़मीन पर, उनकी दुर्गन्ध, सुगंध में परिवर्तित हो गयी!
अब मेरी हिम्मत बढ़ चली! मै आगे बढ़ा! बाबा नौमना के पास! वो बैठा हुआ था, और बैठे हुए भी वो मेरे क़द के बराबर ही आ रहा था!
मैंने उसके समक्ष हाथ जोड़े! बहुत ऊंचा दर्ज़ा था बाबा नौमना का! बाबा नौमना मुस्कुराए!
"बादल छंट गए! अन्धकार मिट गया! आज!" वे बोले,
मुझे इतना सुकून! इतना सुकून कि जैसे मै उसका मद बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा, अपना भार भी सहन नहीं कर पाऊंगा, गिर जाऊँगा भूमि पर! तभी मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने, मैंने पीछे मुडकर देखा, ये बाबा भेरू था! मैंने प्रणाम किया, उसने प्रणाम स्वीकार किया! और मुस्कुराया!
"धन्य है तू और तेरा खेवक!" वो बोला!
मैंने गर्दन झुक कर स्वीकार किया!
"सुनो?" शाकुण्ड ने कहा,
"आदेश?" मैंने कहा,
"पिंजरा टूट गया, अब उड़ना है!" वे बोले,
मै मर्म समझ गया!
"अवश्य!" मैंने कहा,
मै पाँव छूने झुका बाबा शाकुण्ड के!
"नहीं" वे बोले,
मुझे समझ नहीं आया!
"अभी नहीं" वे बोले,
अब मै समझ गया!
"सुनो" ये नौमना बाबा की आवाज़ थी!
मै वहाँ गया!
"किरली का मंदिर निकालो" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"वहाँ हमारा स्थान बनाना" वे बोले,
"अवश्य" मैंने कहा,
"सभी का" वे बोले,
"अवश्य" मैंने गर्दन भी हिलाई ये कह के!
शान्ति! एक अजीब सी शान्ति!
"कुछ चाहिए?" बाबा भेरू ने कहा,
"नहीं!" मैंने कहा,
मुस्कुरा गया बाबा भेरू!
"मै कल मंदिर निकलवाता हूँ बाबा नौमना!" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"अब हम वहीँ मिलेंगे!" वे बोले,
"जैसी आज्ञा!" मैंने कहा और आँखें बंद कीं!
और जब आँखें खोलीं तो वहाँ कोई नहीं था!
मै अत्यंत भारी मन से लौट पड़ा अपनी अलख के पास! और बुक्का फाड़ के रोया! आंसू न थमे! मै रो रो के सिसकियाँ भरने लगा! और लेट गया! मै बाबा नौमना के प्रबाव में था! एक असीम सा सुख! एक अलग ही सुख!
मै होश खो बैठा!
बेहोश हो गया!
जब मेरी आँख खुली तो मै बिस्तर पर लेटा था, कमरा जाना पहचाना लगा, ये हरि साहब का घर था! चक्र घूमा स्मृति का! सब याद आने लगा! मै चौंक के उठ गया! कमरे में मालती जी, हरि साहब, क़य्यूम भाई और शर्मा जी मेरे बिस्तर पर आ बैठे थे!
"अब कैसे हैं गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"मै ठीक हूँ, कब आया मै यहाँ?'' मैंने पूछा,
"सुबह ५ बजे" वे बोले,
मैंने घडी देखी, दस बज चुके थे!
"उठिए आप सभी" मैंने कहा और मै भी उठ गया, मै जस का तस था, न नहाया था न कुछ और, बस हाथ-मुंह धोया और कपडे बदल कर आया उनके पास!
"कहीं जाना है?" हरि साहब ने पूछा,
"हाँ, खेतों पे" मैंने कहा,
"वहाँ?" वे बोले,
"हाँ, कुछ खुदाई करनी है वहाँ, करवानी है, शंकर और दुसरे मजदूरों को तैयार करवाइए आप अभी" मैंने कहा,
"मै अभी फ़ोन करता हूँ" वे बोले,
और फिर कोई दस मिनट के बाद हम चल पड़े वहाँ से खेतों की और,
वहाँ शंकर और, और ५ आदमी तैयार थे, फावड़े और गैंती लेकर! मै फ़ौरन ही उनको अपने पीछे पीछे ले आया, वहीँ पपीते और केले के पेड़ों के पास, और एक जगह मैंने इशारा किया, मुझे दूर भाभरा खड़ी दिखाई दी, उसने बता दिया इशारा करके, ये वही जगह थी यहाँ से मुझे धक्का देकर भगाया गया था! मैंने वहीँ से खुदाई करवानी आरम्भ की, भाभरा लोप हो गयी!
चारपाइयां आ गयीं, हम वहीँ बैठ गए! खुदाई आरम्भ हो गयी! मै लेट गया, और आँखें बंद कर लीं, गत-रात्रि की सभी घटनाएं मेरे सामने से गुजर गयीं, तभी मेरा हाथ उस गुरु-माल पर गया, आनंद! असीम आनंद!
दोपहर हुई और फिर शाम!
तभी शंकर आया वहाँ, कम से कम दस फीट खुदाई हो चुकी थी और तब एक दीवार दिखाई दी, पत्थर की! अब वहाँ से घड़े, सिल और पत्थर निकलने लगे! और खुदाई की! रात भर खुदाई हुई, बार बार रुक कर और तब एक छोटा गोल मंदिर झाँकने लगा वहाँ! तभी वहाँ एक घडा गिर दीवार में से निकल कर, मैंने वो उठाया, हिलाया, उसमे कुछ था! घड़े का मुंह मिट्ठी की ठेकरी से ही बंद किया गया था! मैंने वो हटाया, अन्दर सोना था! सिक्के, भारी भारी सिक्के! ये मेहनताना था! मंदिर बनवाने का! मै सब जानता था! एक सिक्के का फोटो ये है--



और मित्रगण! तीन दिवस पश्चात वहाँ से एक मंदिर निकल आया! एक छोटा मंदिर, उसका प्रांगण! ये खेड़ा-पलट था! वस्तुतः ये वही था! इसी में मृत्यु हुई होगी वहाँ उनमे से कईयों की!
अब हरि साहब आये मेरे पास!
"कमाल हो गया गुरु जी" वे बोले,
"अभी काम बाकी है" मैंने कहा,
"नया बनवाना है, यही न?" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वे बोले,
"सिक्कों का कुल वजन कितना निकला?" मैंने पूछा,
"एक किलो और साढ़े सात सौ ग्राम" वे बोले,
"ठीक है" मैंने कहा,
"सब यहीं लगा दूंगा गुरु जी" वे बोले,
"अत्युत्तम!" मैंने कहा,
अब मैंने उनको समझाया कि वहाँ कब, क्या और कैसा करना होगा, उन्होंने इत्मीनान से सुना और अमल करने का फैंसला लिया!
अब शर्मा जी आ गए!
"आइये" मैंने कहा,
"कितना भव्य मंदिर है, मै अभी देख कर आया हूँ, लाल रंग का!" वे बोले,
"हाँ, अब साफ़ सफाई करवा दीजिये वहाँ" मैंने कहा,
"कह दिया मैंने" वे बोले,
"बहुत बढ़िया" वे बोले,
"हरी साहब, आप इन मजदूरों के परिवार को भोजन और नए वस्त्र और कुछ धन दीजिये आज ही!" मैंने कहा,
"जी ज़रूर" वे बोले,
अब मै एक चारपाई पर बैठ गया!
उसके अगले दिन, हरि साहब ने अपने मजदूरों को पैसा दे दिया, उनके बालक-बालिकाओं के नाम पैसा जमा भी करा दिया, कुछ पैसा उन्होंने दान भी कर दिया, सभी खुश थे!
और फि वो तिथि या दिवस या रात्रि आ गयी जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार था! उस रात करीब १ बजे मै मंदिर पर पहुंचा, मैए किसी को भी साथ ना लिया, शर्मा जी को भी नहीं, ये मुक्ति-क्रिया था, मुझे अकेले को ही करनी थी, मै साजोसामान लेकर आया था, मै उसी मंदिर की भूमि में पहुंचा और आसान लगा लिया, आँखें बंद कीं और बाबा नौमना का आह्वान करने लगा, कुछ देर में ही मेरे सर पर किसी ने हाथ रखा, ये बाबा शाकुण्ड थे!
"उठो!" वे बोले,
मै उठ गया,
"हम सब आ गए हैं!" वे बोले,
मैंने नज़रें घुमा कर देखा, सभी वहाँ खड़े थे! मुस्कुराते हुए!
मै सीधा बाबा नौमना के पास गया! उन्होंने मुझे देखा, मेरे सर पर हाथ रखा! मेरे आंसू छलक गए! मैंने अपने गले से वो गुरु-माल उतार और फिर बाबा के चरणों में रख दिया!
इस से पहले वो कुछ कहते मैंने ही कहा, "मै मनुष्य हूँ, लोभ, लालच, मोह, काम, क्रोध लालसा कूट कूट के भरी है, अब ना सही, कभी बाद में कोई भी एक मेरे हृदय में सत्ता क़ायम कर सकता है, फिर मेरा वजूद नहीं रह जाएगा कुछ भी!कोई भी सत्तारूढ़ हुआ तो मै, मै नहीं रहूँगा और ये गुरु-माल मेरे लिए फंदा बन जाएगा, बाबा!" मैंने कहा,
वो मुस्कुराये और गुरु-माल उठाया! अपने हाथ में रखा!
"इसको धारण कर लो!" उन्होंने खा,
"नहीं कर सकता!" ऩीने कहा,
"ये आदेश है" वे हंस के बोले,
अब मै आदेश कैसे टालता! ले लिया मैंने! मित्रगण! आज भी मेरी हिम्मत नहीं होती उसको धारण करने की! मैंने सम्भाल के रखा है उसको अपने दादा श्री की वस्तुओं के साथ!
"हमे जाना है अब" भेरू ने कहा,
"उफ़! अब सब ख़तम!" मेरे दिल में आया ये विचार!
मित्रगण, मैंने उसी समय मुक्ति-क्रिया आरम्भ की और सबसे पहले रेखा को पार किया बाबा शाकुण्ड ने! आशीर्वाद देते हुए, फिर भामा-शामा, फिर भाभरा, फिर किरली! फिर भेरू और फिर खेचर! जाने से पहले खेचर मुझसे गले मिला!
और अंत में बाबा नौमना उठे! मुझे कुछ बताते हुए, कुछ सिखाते हुए विदा लेते हुए आशीर्वाद देते हुए हाले गए! पार हो गए! रह गया मै अकेला! अकेला ये घटना सुनाने के लिए! लेकिन मै कही भूल नहीं सका आज तक उनको!
मित्रगण! वहाँ एक मंदिर बनवा दिया गया, आज वहाँ भक्तगण आते हैं, वहाँ सभी के स्थान बने हैं! पूजन हो रहा है उनका! सच्चाई मै जानता हूँ, या वो सब जो इस घटना के गवाह हैं!
वक़्त बीत गया है! लेकिन मुझे आज भी लगता है मै आवाज़ दूंगा तो आ जायेंगे बाबा नौमना! लेकिन आवाज़ दे नहीं पाया हूँ आज तक! पता नहीं क्यों!
मै दो महीने पहले गया था वहाँ, जाना पड़ा था, आज वो स्थान रौनकपूर्ण है! फल-फूल सब है वहाँ! वो मंदिर! उस पर लहराता ध्वज! मै देख कर आया वही सब स्थान जो मैंने देखे थे भेरू के साथ, बाबा नौमना के साथ!
मैंने ये घटना इसीलिए यहाँ लिखी कि आप लोगों तक वो गुमनाम साधक प्रकाश में आ जाएँ! आशा करता हूँ इस घटना का एक एक किरदार आपको याद रहेगा, आपकी कल्पना में! साकार हो उठेंगे वे सभी!
आज हरि साहब का काम-काज चौगुना और तीन पोते हैं! छोटे लड़के की भी शादी हो गयी, लड़की भी खुश है! सभी पर नूर बरसा है बाबा नौमना का!
और,
आप सभी का धन्यवाद इस घटना को पढ़ने के लिए!

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